साहिर लुधियानवी की नज़्म—मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे
ताजमहल को नये सात आश्चर्यों में शामिल कर लिया गया, बड़ा हो हल्ला हुआ, वोट दीजिये, एस.एम.एस कीजिये वग़ैरह । और तिजारत यानी व्यापार के इस दौर में ताजमहल को चंद एस.एम.एस. की बिना पर सर्टिफिकेट दे दिया गया । इस सबसे अलग ताजमहल कभी उर्दू शायरी में भी चर्चा और बहस का मुद्दा था । शकील बदायूंनी ने लिखा था- इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, दुनिया को मुहब्बत की निशानी दी है । और तरक्की पसंद तूफानी शायर साहिर से रहा नहीं गया । ये उनका जवाब था । इस नज़्म का शीर्षक है—ताजमहल........चूंकि इसमें बहुत बुलंद उर्दू के अलफ़ाज़ हैं इसलिये कुछ कठिन शब्दों के मायने दिये जा रहे हैं ।
ताज तेरे लिए इक मज़हरे-उल्फ़त ही सही
तुझको इस वादिये रंगीं से अकीदत ही सही
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्मे-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवते शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरे मेहबूब पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा तूने
सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक-मकानों को तो देखा होता
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे
ये इमारतो-मकाबिर, ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतलक-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूं
दामने-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अज़दाद का खूं
मेरी मेहबूब, उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनको सन्नाई ने बख्शी शक्ले-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनामो-नुमूद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील
ये चमनज़ार, ये जमना का किनारा, ये महल
ये मुनक्क़श दरोदीवार, ये मेहराब, ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझे ।।
कुछ कठिन शब्दों के मायने
मज़हर-ऐ-उल्फत—प्रेम का प्रतिरूप
वादिए-रंगीं—रंगीन घाटी
बज्मे शाही—शाही महफिल
सब्त—अंकित,
सतवते-शाही— शाहाना शानो शौक़त
पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा—प्रेम के प्रदर्शन/विज्ञापन के पीछे
मक़ाबिर—मकबरे तारीक—अंधेरे सादिक़—सच्चे
तशहीर का सामान—विज्ञापन की सामग्री
हिसार—किले
मुतलक-उल-हुक्म—पूर्ण सत्ताधारी
अज़्मत—महानता
सुतूं—सुतून
दामने-देहर—संसार के दामन पर
अज़दाद—पुरखे
ख़ूं—खून
सन्नाई—कारीगरी
शक्ले-जमील—सुंदर रूप
बेनामो-नुमूद—गुमनाम
चमनज़ार—बाग़
मुनक़्क़श—नक्काशी
शकील बदायूंनी का लिखा नग्मा ‘इक शहंशाह ने बनवा के हसीन ताजमहल’ आप यहां सुन सकते हैं ।
ताज तेरे लिए इक मज़हरे-उल्फ़त ही सही
तुझको इस वादिये रंगीं से अकीदत ही सही
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्मे-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवते शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरे मेहबूब पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा तूने
सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक-मकानों को तो देखा होता
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे
ये इमारतो-मकाबिर, ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतलक-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूं
दामने-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अज़दाद का खूं
मेरी मेहबूब, उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनको सन्नाई ने बख्शी शक्ले-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनामो-नुमूद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील
ये चमनज़ार, ये जमना का किनारा, ये महल
ये मुनक्क़श दरोदीवार, ये मेहराब, ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझे ।।
कुछ कठिन शब्दों के मायने
मज़हर-ऐ-उल्फत—प्रेम का प्रतिरूप
वादिए-रंगीं—रंगीन घाटी
बज्मे शाही—शाही महफिल
सब्त—अंकित,
सतवते-शाही— शाहाना शानो शौक़त
पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा—प्रेम के प्रदर्शन/विज्ञापन के पीछे
मक़ाबिर—मकबरे तारीक—अंधेरे सादिक़—सच्चे
तशहीर का सामान—विज्ञापन की सामग्री
हिसार—किले
मुतलक-उल-हुक्म—पूर्ण सत्ताधारी
अज़्मत—महानता
सुतूं—सुतून
दामने-देहर—संसार के दामन पर
अज़दाद—पुरखे
ख़ूं—खून
सन्नाई—कारीगरी
शक्ले-जमील—सुंदर रूप
बेनामो-नुमूद—गुमनाम
चमनज़ार—बाग़
मुनक़्क़श—नक्काशी
शकील बदायूंनी का लिखा नग्मा ‘इक शहंशाह ने बनवा के हसीन ताजमहल’ आप यहां सुन सकते हैं ।
5 comments:
Ek sher ye bhi tho hai -
Ek Shahenshah ne banvaa ke haseen Tajmahal
Hum ghareebon ki mohabbat ka udaayaa hai mazaak
Annapurna
Vah Yunusbhai,
Maza aa gaya. Sahir was a true leftist. Mujhe yaad aaya film Pyasa ka unka wo geet 'Jinhe Naaz Hain Hind Par wo Kahan hain ?'
Kitni alag soch aur alag andaz tha unka.
Aapka blog padhna ye ab roj ki adat si ho gayi hain. Lage Raho...
यूनुस जी बड़े दिन से तलाश थी इस नज़्म की, आज सुभद्रा जी के बहाने ये भी मिल गई, आपके बलॉग पर अक्सर वो मिल जाता है जो बहुत दिन से ढूढ़ा जा रहा हो।
क्या इसे किसी ने गाया नहीं है? खोजिए ना. मिले तो दीजिए.
भाई बड़ी मेहनत करते हैं आप,साहिर विज़नरी थे इसमें कोई शक नहीं है,रियाज़ भाई की बात दोहराते हुए कहता हूं कि गाना मिले तो ज़रूर सुनवाइयेगा!
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