सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मितवा, सुन मेरे साथी रे: सचिन देव बर्मन के गाये गीतों पर आधारित श्रृंखला की दूसरी कड़ी ।
मैंने अपने पिछले लेख में लिखा था कि सचिन दा की आवाज़ में एक फकीराना स्पर्श है । दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं । बाज़ार से निकला हूं ख़रीददार नहीं हूं । कुछ इस तरह का फ़लसफ़ा लगता है । अफ़सोस की बात बस इतनी है कि सचिन दा ने बहुत ज्यादा गीत नहीं गाए, शायद इसका कारण ये रहा होगा कि सचिन दा की आवाज़ किसी भी नायक पर फिट नहीं बैठती थी, या इसे दूसरे तरीक़े से कहें तो ज्यादा मुनासिब होगा कि किसी भी नायक की शख्सियत ऐसी नहीं थी कि उसे परदे पर सचिन दा की आवाज़ मिल सके । फिर भी कई ऐसे नग़मे हैं जो सचिन दा की उपस्थिति का लगातार अहसास कराते रहते हैं । तो आज हम शुरू करते हैं इस नग्मे से ।
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सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मितवा, सुन मेरे साथी रे ।।
होता तू पीपल मैं होती, अमरलता तेरी
तेरे गले माला बनके पड़ी मुस्काती रे ।।
सुन मेरे साथी रे ।।
जिया कहे तू सागर मैं होती तेरी नदिया
लहर बहर करती अपने पिया से मिल जाती रे
सुन मेरे साथी रे ।।
केवल दो अंतरों का गीत है । दो अंतरे क्या हैं, आप खुद ही पढ़ लीजिये केवल चार पंक्तियां हैं मूल रूप से । लेकिन कितना गहरा अर्थ समाहित किया है मजरूह सुल्तानपुरी ने इस गीत में । इसे हम विशुद्ध भटियाली धुन कह सकते हैं । भटियाली संगीत में बांसुरी का बड़ा महत्त्व है । आप इस गाने को सुनिये और बांसुरी की तान के साथ खुद भी लहराईये । ये गाना तब हमारा साथ देता नज़र आता है जब जिंदगी में चीज़ें हमारे हाथ से छूट छूट जाती हैं । हम रेत की तरह उन्हें मुट्ठी में बंद करना चाहते हैं और वो सरक सरक पड़ती हैं । ये हमारी निराशाओं का गीत है ।
अगला गीत वो है जिसके बारे में चर्चा करने को हैदराबाद की अन्नपूर्णा जी ने भी कहा था, सन् 1971 में आई फिल्म अमर प्रेम का गीत ‘डोली में बिठाई के कहार’ ।
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डोली में बिठाईके कहार, लाए मोहे सजना के द्वार
ओ डोली में बिठाईके कहार ।।
बीते दिन खुशियों के चार, देके दुख मन को हज़ार
ओ डोली में बिठाईके कहार ।।
मर के निकलना था, घर से सांवरिया के जीते जी निकलना पड़ा
फूलों जैसे पांवों में पड़ गये ये छाले रे, कांटों पे जो चलना पड़ा
पतझड़ हो पतझड़, बन गयी पतझड़ बैरन बहार ।। डोली में बिठाईके कहार ।।
जितने हैं आंसू मेरी अंखियों में, इतना नदिया में नहीं रे नीर
ओ लिखने वाले तूने लिख दी ये कैसी मेरी टूटी नैया जैसी तकदीर
उठा मांझी, ओ मांझी रे, उठा मांझी उठे पतवार ।। डोली में बिठाईके कहार ।।
टूटा पहले मेरा मन, अब चूडियां टूटीं, हुए सारे सपने यूं चूर
कैसा हुआ धोखा, आया पवन का झोंका, मिट गया मेरा सिंदूर
लुट गये, ओ रामा लुट गये, ओ रामा रे, लुट गये सोलह सिंगार ।। डोली में बिठाईके कहार ।।
इस गाने में उस महिला की पीड़ा है, जिसका जीवन उजड़ गया है । आनंद बख्शी ने इस गाने को इतनी तल्लीनता और तन्मयता से लिखा है कि क्या कहें । फिल्म में ये गीत भी बैकग्राउंड गीत की तरह आता है । ‘मर के निकलना था घर से, जीते जी निकलना पड़ा’ और ‘जितने हैं आंसू मेरी अंखियों में इतना नदिया में नहीं रे नीर’ इन पंक्तियों से जैसे दर्द छलक छलक पड़ रहा है । इस गीत के लिए ऐसी आवाज़ की ज़रूरत थी, जिसमें दर्द का महासागर हो । यूं लगे जैसे कोई किसी ऊंचे से पहाड़ पर खड़े होकर ऊपर वाले तक अपनी दर्द भरी पुकार पहुंचा रहा है । और ये स्वर केवल बर्मन दादा की ही हो सकता था । इस गाने को तब सुनिए जब आप नितान्त अकेले हों और सुनते हुए अपनी आंखें बंद कर लीजिये, फिर देखिये कि किस तरह आपके अंतस में उतरेगा जज्बात का समंदर । दरअसल दर्द भरे इन चुनिन्दा गीतों के लिए बर्मन दा संगीत के देवपुरूष हैं । अफ़सोस बस इतना है कि ये गाने ना तो टी0वी0 पर आपको ज्यादा दिखाई देते हैं और ना ही रेडियो पर ज्यादा सुनाई देते हैं । यहां तक कि श्रोता इन गानों की फ़रमाईश भी नहीं करते । या तो इन्हें लोगों ने भुला दिया या फिर संगीत के क़द्रदान वर्ग तक ही ये सीमित रह गये । आज के ज्यादातर शोरगुल भरे संगीत में ये खामोश नग्मे सुकून का स्वर्ग बन गये हैं ।
और अब बात फिल्म ‘बंदिनी’ के इस गाने की ।
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ओ रे मांझी
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूं इस पार
ओ मेरे मांझी, अबकी बार, ले चल पार, ले चल पार ।।
मन की किताब से तू, मेरा नाम ही मिटा देना
गुण तो ना था कोई भी, अवगुण मेरे भुला देना
मुझे आज की बिदा का मरके भी रहता इंतज़ार ।। मेरे साजन हैं ।।
मत खेल जल जायेगी, कहती है आग मेरे मन की
मैं बंदिनी पिया की, चिर संगिनी हूं साजन की
मेरा खींचती हैं आंचल, मन मीत तेरी हर पुकार ।। मेरे साजन हैं ।।
शैलेन्द्र ने ये गीत लिखा था सन 1963 में आई फिल्म बंदिनी के लिये ।
इस गाने में भी वही विकलता, वही बेक़रारी है । कुछ छूट रहा है, तक़दीर पर अपना वश नहीं है और नायिका की मनोदशा को दर्शाने के लिए ये गीत फिल्म में रखा गया है । एक बात की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूंगा । सचिन दा के जिन नग्मों की चर्चा आज हमने की उन तमाम गीतों में एक नारी के हृदय की पीड़ा, उसकी वेदना को उजागर किया गया है । ये सारे गीत बैकग्राउंड में आते हैं । नारी की पीड़ा और उसके जीवन की उलझन को दर्शाने के लिए ये गीत लता जी से भी गवाए जा सकते थे । या किसी और गायिका की आवाज़ भी ली जा सकती थी । पर ये फिल्म निर्देशकों की सूझबूझ और कलात्मकता ही थी कि उन्होंने सचिन दा की आवाज़ का सहारा लिया । बंबईया फिल्म के व्याकरण के हिसाब से देखें तो एक भी पक्ष इस आवाज़ का समर्थन करता नज़र नहीं आता । फिर भी ये गाने फिल्मों में आये । इन्होंने लोगों का ध्यान खींचा और कामयाबी हासिल की । तभी तो हम आज इतने सालों बाद भी इनका जिक्र कर रहे हैं । वो भी इतनी शिद्दत के साथ । पिछली पोस्ट पर किन्हीं अमिताभ जी ने टिप्पणी की थी कि इन गानों का वीडियो भी अगर दिखाऊं तो अच्छा होगा । उनसे निवेदन है कि वो वीडियो की लिंक भेज दें या टिप्पणी में इसी पोस्ट पर दिखा दें । जो वीडियो मुझे मिले वो यहां दिखाए जा रहे हैं ।
फिल्म बंदिनी का गीत ‘ओ रे मांझी’
फिल्म गाईड का गीत ‘ वहां कौन है तेरा’
5 comments:
bahut-bahut-bahut shukriya Guide ka vedio dikhane ke liye. Main DevAnand ki bahut badi FAN hun.
Aajkal bahut se jr. artists main ek tarah ka faishon ho gayaa hai Dev saheb ki acting ki nakal ke bahane comment karna. onko meri salaah hai ki ek baar Guide zaroor dekhe.
Main samajh sakthi hun yeh vedios arrange karnaa aapke liye aasaan nahi hai. Mujhe khed hai main isme aapki koi sahaayatha nahi kar paa rahi.
Jaise Devsahab ki behtareen film hai Guide oosi tarah se Rajesh khanna aur Sharmila Tagore ki behtareen film hai Amar Prem.
Aur haan main bhi onhi mai se hun jinhone is geet ko bhula diyaa. Mujhe ab bhi yeh geet yaad nahi aa raha. jis geet ki maine charcha ki voh geet Bandini kaa -
O re Majhi aur
sun mere bandhu re
tha, is baare main aapse ghaflat ho gai.
Annapurna
सचिन देव बर्मन जी आवाज मे गाना हमेशा ही background मे होता था पर फिर भी बहुत ही प्रभावशाली होता था और उनकी आवाज मे एक अजीब सी कशिश सी होती थी । विडियो के लिए शुक्रिया।
सचिन कर्ता के अमर गीतों की इस सुमधुर प्रस्तुति/उपहार के लिए आभार !
युनुस जी ,
बहुत साल पहले की बात बता रहा हूँ ,एक बार जावेद अख्तर साहब का इन्तेर्विएव टी.व्. पर आ रहा था तो इन्तेर्विएव तकर ने उनसे पुछा की ,आपकी पसंद का कोई गीत या आपकी पसंद की कोई रचना या रचनाकार के बारे में बताइए
तो उन्होंने शिलेन्द्र का जिक्र किया और कहा की बंदिनी के इस गीत की जो लाइन है की मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना,इस कल्पना के बारे में सोच कर मैं अचम्भित होता हूँ की कितना अच्छा और कैसे सोचा होगा मनो की मन कोई नोट बुक है और हम पेंसिल और रबड़ का इस्तमाल करते है उस पर और उसमे ये रेकुएस्ट की जा रही है की मेरा नाम तुम उस मन रूपी किताब से मिटा देना ,ज़रा इमागीनाशन की हेइघ्त देखिये,सल्लम है शिलेन्द्र के इमागीनाशन को.
अमित
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