संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, May 24, 2007

हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं: मजरूह सुल्‍तानपुरी की बरसी पर विशेष


आज से सात साल पहले मजरूह सुलतानपुरी ने आज ही के दिन इस दुनिया को अलविदा कह दिया था और मेरी उनसे मिलने की सालों पुरानी तमन्‍ना सिर्फ एक सपना ही बनके रह गयी । मुझे याद है कि आठवीं नौंवीं में पढ़ने वाले दिन थे । और म0प्र0 के सागर शहर में थी पिताजी की पोस्टिंग । रेडियो सुनने का चस्‍का तो पहले से ही था, पर यहां मित्रों की संगति में मन्‍ना डे, तलत महमूद, रफी साहब और लता जी को सुनने की होड़ सी लग गई । नये नये गाने हम खोजने लगे । इसी दौरान मजरूह साहब की शायरी की एक पुस्‍तक स्‍कूल की लाईब्रेरी में हाथ लगी । उसे पढ़ा तो अपन मजरूह के फैन हो गये । यहां से मेरा मजरूह के गानों को ध्‍यान से सुनने का सिलसिला शुरू हुआ । और फिर तो उनसे जुड़ी बातें लगातार सामने आती चली गयीं ।

मजरूह मेरे प्रिय शायर हैं, प्रिय और आदर्श गीतकार हैं । क्‍यों हैं यही मैं आज आपको बताऊंगा ।

मजरूह का जो पहला और सबसे मशहूर शेर मैंने पढ़ा था, वो ये है, कई लोग इस शेर को ‘कोट’ करते हैं, पर शायर का नाम तक नहीं जानते ।

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़ि‍ल मगर
लोग साथ आते गये कारवां बनता गया ।।

ये कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर के ‘एकला चलो रे’ का सार एक शेर में समा लेने जैसे वाली बात है, हालांकि इस शेर में कारवां बनने की बात कही गयी है, पर अकेले चलने की बात भी है ।

अब मजरूह का एक बुलंद शेर और सुन लीजिये । पहले इसकी संक्षिप्‍त पृष्‍ठभूमि ।
आज़ादी की लड़ाई के दौरान मजरूह ने कुछ ऐसा लिख दिया कि जेल में डाल दिये गये, जवानी का जोश और शायरी का जुनून था । उन्‍होंने वहां ये शेर लिखा, जिसे आपका ये दोस्‍त बेहद बेहद प्‍यार करता है----

रोक सकता हमें ज़िन्‍दाने बला क्‍या मजरूह
हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं ।।


‍ज़िन्‍दान का मतलब होता है जेलर या जेल ।

मजरूह ने अपनी फिल्‍म यात्रा 1946 में आई फिल्‍म शाहजहां से शुरू की थी, इस फिल्‍म में नौशाद का संगीत था और सारे गाने सहगल ने गाये थे, वही इस फिल्‍म के नायक थे, आज भी खालिस उर्दू वाले वो नग्‍मे फिल्‍म संगीत के क़द्रदानों की जान हैं ।

जैसे ग़म दिये मुस्‍तकिल इतना नाजुक है दिल ये ना जाना
यहां सुनिए

या फिर

जब दिल ही टूट गया हम जीके क्‍या करेंगे ।
यहां सुनिए

इसमें से ‘जब दिल ही टूट गया’ की शायरी तो कमाल है । उलफत का दिया हमने इस दिल में जलाया था, उम्‍मीद के फूलों से इस घर को सजाया था, एक भेदी लूट गया, हम जीके क्‍या करेंगे ।

मजरूह का एक शेर और याद आ गया, ये शेर भी उन्‍होंने जेल में रहते हुए ही लिखा
था ।

देख ज़िन्‍दां के परे जोशे जुनूं, जोशे बहार
रक्‍स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर ना देख ।।

एक और शेर

जला के मशाल-ऐ-जाना, हम जुनूने सिफत चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले । ।

एक और शेर

शबे इंतज़ार की कश्‍मकश ना पूछ कैसे सहर हुई
कभी एक चराग़ चला लिया, कभी एक चराग़ बुझा दिया ।।

आईये अब मजरूह के फिल्‍मी गीतों की तरफ चलें । मुझे मजरूह और साहिर के बीच हुई एक बहस याद आ रही है । मजरूह ने एक बार साहिर के गीतों पर टिप्‍पणी करते हुए कहा था कि साहिर तो एक माली से भी उर्दू गजल कहलवा लेते हैं । अरे भैया फिल्‍म में कोई मेकेनिक के किरदार में है तो गाना उसी की ज़बान में होना चाहिये । ये कहां की बात हुई कि मेकिनिक मियां ग़ज़ल कहने लगें ।

ये बात बिल्‍कुल सही थी । साहिर साहब के हम सब शैदाई हैं पर ये उनके फिल्‍मी गीतों की कमज़ोरी रही है । मजरूह ने हमेशा किरदार के मुताबिक़ गीत लिखे । मिसाल के लिए फिल्‍म ‘चलती का नाम गाड़ी’ का गीत
‘पांच रूपैया बारह आना’
यहां सुनिए


इसी फिल्‍म के लिए उन्‍होंने लिखा—हम थे वो थी और समां रंगीन समझ गये ना ।
जाना था जापान पहुंच गये चीन समझ गये ना । याने याने याने प्‍यार हो गया ।
ये सारे गाने साबित करते हैं कि मजरूह किरदार के भीतर जाकर उसके मुताबिक़ गाने लिखते थे ।

उनकी शायरी की ऊंचाई से तो हम सब वाकिफ हैं ही । उसकी मिसाल देने के लिये आपको केवल दो गाने सुनवाऊंगा ।

एक तो सन 1970 में आई फिल्‍म दस्‍तक का
ये गीत । संगीत मदन मोहन का ।

हम हैं मताए कूचओ बाज़ार की तरह

उठती है हर निगाह खरीददार की‍ तरह

वो तो कहीं हैं और मगर दिल के आसपास

फिरती है कोई शय निगाहे यार की तरह ।।

मजरूह लिख रहे हैं वो अहले वफा का नाम

हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह

इस कूए तिश्‍नगी में बहुत है एक जाम

हाथ आ गया है दौलते बेदार की तरह

सीधी है राहे शौक़ पर यूं ही कभी कभी

ख़म हो गयी है गेसुए दिलदार की तरह ।।



इस रचना के आखिरी दो शेर गाने में इस्‍तेमाल नहीं किये गये हैं । अब दूसरे गाने की
बारी । फिल्‍म का नाम है ‘दिल की राहें’ ।

>
यहां सुनिए ।


रस्‍मे उल्‍फत को निभाएं तो निभाएं कैसे,


हर तरफ आग है दामन को बचाएं कैसे ।।

दिल की राहों में उठाते हैं जो दुनिया वाले

कोई कह दे के वो दीवार गिराएं कैसे ।।

दर्द में डूबे हुए नग्‍मे हज़ारों हैं मगर

साज़े दिल टूट गया हो तो सुनाएं कैसे ।।

बोझ होता जो गमों का तो उठा ही लेते

जिंदगी बोझ बनी हो तो उठायें कैसे ।।


इन नग्‍मों में दुनिया की जुल्‍मतों से छलनी हुआ दिल अपनी बात कह रहा है । मेरे एक मित्र कहते हैं कि ये दोनों नारीवादी गीत हैं । पुरूष का दिल टूटने के नग्‍मे फिल्‍मों में बहुत हैं और काफी खूबसूरत हैं । पर ये उन गिने चुने नग्‍मों में से हैं जिनमें बहुत शायराना तबियत है और जो एक नारी की वेदना को बहुत शिद्दत के साथ उभारते हैं । दोनों गाने मदन मोहन ने स्‍वरबद्ध किये हैं और लता जी ने गाये हैं ।

आज मजरूह की बरसी है, इसलिये मजरूह सुल्‍तानपुरी पर केंद्रित श्रृंखला मैंने आज से शुरू की है । इस श्रृंखला में हम समय समय पर मजरूह के गीतों का विश्‍लेषण करेंगे ।
फिल्‍हाल आप बताईये आपको मजरूह का कौन सा गाना बहुत पसंद है ।

9 comments:

Anonymous,  May 24, 2007 at 10:29 AM  

यूनुस साहब कौन सा गाना, भई कौन से गाने बोलिये.
"हमें तुमसे प्यार कितना" किसने नहीं गुनगुनाया होगा? राजकपूर की धरम करम का तेरे हम सफर गीत हैं तेरे, अभिमान के सारे गाने, खासकर "नदिया किनारे हेराय आयी कंगना" और "अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी", बरसात की रात का "न तुम हमें जानो",
इतने सारे गाने है. नासिर हुसैन की लगभग हर फिल्म में मजरूह साहब ही लिखते थे और इनके हर फिल्म के हर गने हिट थे.
पाकीजा की "ठाड़े रहियो, ओ बांके यार"; बेहद पसन्द गीतों में से एक है.
और आजकल इनका एक गाना बहुत सुन रहा हूं, आज भी घर पर सुनकर आया हूं, "बाबूजी धीरे चलना, प्यार में, जरा संभलना" (ये शायद रिमिक्स या कवर वर्जन था, पर भी बहुत मधुर है)
और क्या आपको मालूम है कि मजरूह साहब ने "गंगा की लहरें" में प्ले-बैक सिंगिंग भी की है?

mamta May 24, 2007 at 11:02 AM  

मजरूह साब के गानों की लिस्ट तो खैर बहुत लंबी है पर इस बार आपने कोई ऑडियो क्यों नही लगाया।

Anonymous,  May 24, 2007 at 2:10 PM  

Mujhe aisa lag rahaa hai jaise main Urdu Adab ki mahfil main baiti hun.

Annapurna

Anonymous,  May 24, 2007 at 5:19 PM  

बहुत अच्छा लगा मजरूह सुल्तानपुरीजी के अच्छे गानों के बारे में जानकर!

संतोष कुमार पांडेय "प्रयागराजी" May 24, 2007 at 8:22 PM  

इस पोस्ट के माध्यम से मजरूह साहब को मेरी ओर से भी श्रद्धांजलि।

Udan Tashtari May 24, 2007 at 9:18 PM  

बहुत खूबसूरत प्रस्तुति-मजरुह साहब के विषय में. वाह!!

Unknown May 24, 2007 at 11:24 PM  

Yunus, am listening to Majrooh Sultanpuri's ghazal from Dastak. It's lajawab!
Among Majrooh Sahab's songs, this is my favourite: Bane ho ek khaak sey, from the movie Aarti.

Jo ek ho toh kyun na phir dilon ka dard baant lo
Lahu ki pyaas baant lo, roohon ki gard baant lo
Laga lo sabko ko tum gale, habib kya, raqeeb kya

This was Majrooh's sage counsel to those who believe in, and propagate, artificial divisions.
My salaam to this poetic genius.

Voice Artist Vikas Shukla विकासवाणी यूट्यूब चॅनल May 28, 2007 at 4:57 PM  

मजरूह साबने पंचमदा के लिये लिखे सभी गीत मुझे पसंद है.
और उन्होंने अपनी सत्तर अस्सी की आयुमें आशाजी के लिये लिखा गैरफिल्मी गाना, " जानम समझा करो...." जिसके बोल हैं

"रात शबनमी भीगी चांदनी
दूसरा कोई दूरतक नहीं
इसके आगे हम और क्या कहे
जानम समझा करो...."

कितने संयम के साथ और फिरभी कितनी डायरेक्ट बात......
विकास शुक्ल

Anonymous,  April 11, 2014 at 12:14 PM  

Sir Rasme ulfat is gazal by Naksh Layalpuri and not majrooh sahab!
Jayant Kulkarni

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