संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।
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Monday, February 9, 2009

मांझी नैया ढूंढे किनारा:मुकेश की आवाज़

मांझी गीतों से मेरा पुराना अनुराग रहा है । 'मांझी-गीत' किसी भी भाषा में हों मुझे आल्‍हादित करते रहे हैं । 'बांग्‍ला मांझी गीतों' की अपनी एक दुनिया है । बांगला ठीक से समझ ना आने के बावजूद मैं इन गीतों को सुनता रहता हूं । लेकिन आज एक ऐसा गीत आपके लिए, जो हिंदी फिल्‍म संगीत जगत का प्‍यारा सा मांझी गीत है । सन 1971 में राजश्री प्रोडक्‍शन की फिल्‍म आई थी 'उपहार' । मुख्‍य कलाकार थे जया भादुड़ी, स्‍वरूप दत्‍त और यूनुस परवेज़ वग़ैरह । सुधेंदु रॉय ने इस फिल्‍म का निर्देशन किया था । जो कई फिल्‍मों के कला-निर्देशक रहे फिर उन्‍होंने अमिताभ बच्‍चन वाली 'सौदागर' जैसी फिल्‍म का भी निर्देशन किया । lb_uphaar

बहरहाल...मैं इस मांझी गीत की बात कर रहा था, सभी मांझी गीतों की तरह इस गीत में भी दार्शनिकता है । जिंदगी की इस 'फॉर्मूला-वन-रेस' में ऐसे गीत हमें रूककर पुनर्विचार करने की प्रेरणा देते हैं । इस गीत के मर्म को मैं अभय तिवारी की इस पोस्‍ट और ज्ञान जी की इस 'ज्ञान-बीड़ी'....( जी हां जहां भी ज्ञान दिया जाए उसे हम ज्ञान-बीड़ी कहते हैं ) से जोड़कर प्रस्‍तुत कर रहा हूं । इन दोनों पोस्‍टों को पढ़कर इस गीत को सुना जाए तो इसका अपना एक 'पाठ'...अपना 'रिफरेन्‍स'...एक 'प्‍लेटफार्म' तैयार होता है । मुझे लगता है कि इस गाने को इन दोनों पोस्‍टों से जोड़कर एक 'त्रिवेणी' तैयार होती है । ये अलग बात है कि इस गाने में 'मांझी' हमें 'प्रेम' की किसी खोज की ओर ले जाता है । पर ये सच है कि हम सबकी अपनी अपनी खोज है । किसी को तो पता है कि वो क्‍या खोज रहा है । पर किसी-किसी को पता ही नहीं कि उसका लक्ष्‍य, उसका पथ आखिर है क्‍या ।


छल-छल बहती जीवन-धारा मांझी नैया ढूंढे किनारा

किसी ना किसी की खोज में है ये जग सारा 
कभी ना कभी तो समझोगे तुम ये इशारा
ऐसी कोई मौज नहीं  जिस को कोई खोज नहीं
ओ-हो...
कोई ना कोई तो हर किसी को लगता है प्‍यारा ।।
मांझी नैया ।।
जीवन-पथ पर चलते हुए इक दिन थक कर चलते हुए
ओ-हो...
कहीं ना कहीं मैं थाम लूंगा आंचल तुम्‍हारा ।।
मांझी नैया ।।
जैसे सीता-राम मिले, जैसे राधा-श्‍याम मिले
ओ-हो...
कभी ना कभी तो मिलन होगा, तुमसे हमारा ।।
मांझी नैया ।।

और हां फिल्‍म 'उपहार' की कथा यहां पढिये । अगर इस फिल्‍म को देखना ही चाहते हैं तो ऑनलाईन राजश्री की वेबसाईट पर यहां देखिए । इसके लिए आपको मुफ्त साईन-अप करना होगा ।

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Wednesday, September 3, 2008

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार: शिवमंगल सिंह सुमन की कविता की संगीतमय प्रस्‍तुति

शिवमंगल सिंह 'सुमन' स्‍कूल के ज़माने में हमारे प्रिय कवि रहे हैं । आज भी उनकी कई रचनाएं जिंदगी के इन रास्‍तों पर एक लाईट-हाउस की तरह लगती हैं । हमारा सौभाग्‍य रहा है कि हमने 'सुमन' जी को साक्षात देखा है और कवि-सम्‍मेलनों में उन्‍हें कविता-पाठ करते हुए देखा-सुना है । शिवमंगल सिंह सुमन की उपस्थिति मात्र ही बड़ी 'असरदार' हुआ करती थी ।
                           Shiv mangal singh suman चित्र-साभार कविता-कोश

दरअसल 'रेडियोवाणी' के लिए गानों की तलाश में कई बार यायावरी करनी पड़ती है और ये यायावरी ही है जो ऐसी चीज़ें हमारे हवाले करवा देती है जिनके बारे में हमने पहले कभी सोचा भी ना हो । अब देखिए ना भला कभी हमने सोचा ही ना था कि सुमन जी की वो कविता, जो 'बाल-भारती' में पढ़ी थी, और फौरन याद हो गयी थी और जिसे इससे अलग धुन पर हम स्‍कूल में समवेत स्‍वरों में गाया करते थे, वही हमें मिल जाएगी और वो भी इतने 'इन्‍फेक्‍शस' अंदाज़ में गाई हुई । पिछले कुछ दिनों से ये गीत और इसका संगीत हमारे घर और हमारे ज़ेहन में गूंज रहा है । और बार बार सुमन जी याद आ जाते हैं । उनका कविता-पाठ याद आ जाता है । 'निर्बल कुम्‍हार के हाथों से, कितने रूपों में गढ़ी -गढ़ी'......'मिट्टी की बारात' शीर्षक ये कविता मैंने उस ज़माने में टी.वी. से कैसेट पर रिकॉर्ड कर ली थी । या फिर 'जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी' । उन दिनों हमें ऐसी कविताएं ही पसंद आती थीं ।


सन 1987 में नेहरू जन्‍मशती के अवसर पर काव्‍य-भारती म्‍यूजिकल्‍स कलकत्‍ता ने एक रिकॉर्ड जारी किया था जिसका शीर्षक दिया गया था --'अमर बेला' । इसमें कई महत्‍त्‍वपूर्ण कवियों की रचनाओं को गाया गया था । इस रिकॉर्ड को मनीष दत्‍त ने तैयार किया था । इसमें मुझे सबसे ज्‍यादा प्रभावित किया इस गीत ने । 'तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार' । इसे चंदन राय चौधरी ने गाया है । तो सुनिए और इस गीत का आनंद लीजिए । मुझे पूरा यक़ीन है कि कुछ-कुछ भटियाली शैली में स्‍वरबद्ध किया गया ये गाना आपके मन में लंबे समय तक गूंजता रहेगा और आपको विकल करता रहेगा ।




इस कविता की इबारत ये रही । गाते समय इसके एक अंतरे को छोड़ दिया गया है

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार ।।


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