मांझी नैया ढूंढे किनारा:मुकेश की आवाज़
मांझी गीतों से मेरा पुराना अनुराग रहा है । 'मांझी-गीत' किसी भी भाषा में हों मुझे आल्हादित करते रहे हैं । 'बांग्ला मांझी गीतों' की अपनी एक दुनिया है । बांगला ठीक से समझ ना आने के बावजूद मैं इन गीतों को सुनता रहता हूं । लेकिन आज एक ऐसा गीत आपके लिए, जो हिंदी फिल्म संगीत जगत का प्यारा सा मांझी गीत है । सन 1971 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म आई थी 'उपहार' । मुख्य कलाकार थे जया भादुड़ी, स्वरूप दत्त और यूनुस परवेज़ वग़ैरह । सुधेंदु रॉय ने इस फिल्म का निर्देशन किया था । जो कई फिल्मों के कला-निर्देशक रहे फिर उन्होंने अमिताभ बच्चन वाली 'सौदागर' जैसी फिल्म का भी निर्देशन किया ।
बहरहाल...मैं इस मांझी गीत की बात कर रहा था, सभी मांझी गीतों की तरह इस गीत में भी दार्शनिकता है । जिंदगी की इस 'फॉर्मूला-वन-रेस' में ऐसे गीत हमें रूककर पुनर्विचार करने की प्रेरणा देते हैं । इस गीत के मर्म को मैं अभय तिवारी की इस पोस्ट और ज्ञान जी की इस 'ज्ञान-बीड़ी'....( जी हां जहां भी ज्ञान दिया जाए उसे हम ज्ञान-बीड़ी कहते हैं ) से जोड़कर प्रस्तुत कर रहा हूं । इन दोनों पोस्टों को पढ़कर इस गीत को सुना जाए तो इसका अपना एक 'पाठ'...अपना 'रिफरेन्स'...एक 'प्लेटफार्म' तैयार होता है । मुझे लगता है कि इस गाने को इन दोनों पोस्टों से जोड़कर एक 'त्रिवेणी' तैयार होती है । ये अलग बात है कि इस गाने में 'मांझी' हमें 'प्रेम' की किसी खोज की ओर ले जाता है । पर ये सच है कि हम सबकी अपनी अपनी खोज है । किसी को तो पता है कि वो क्या खोज रहा है । पर किसी-किसी को पता ही नहीं कि उसका लक्ष्य, उसका पथ आखिर है क्या ।
छल-छल बहती जीवन-धारा मांझी नैया ढूंढे किनारा
किसी ना किसी की खोज में है ये जग सारा
कभी ना कभी तो समझोगे तुम ये इशारा
ऐसी कोई मौज नहीं जिस को कोई खोज नहीं
ओ-हो...
कोई ना कोई तो हर किसी को लगता है प्यारा ।।
मांझी नैया ।।
जीवन-पथ पर चलते हुए इक दिन थक कर चलते हुए
ओ-हो...
कहीं ना कहीं मैं थाम लूंगा आंचल तुम्हारा ।।
मांझी नैया ।।
जैसे सीता-राम मिले, जैसे राधा-श्याम मिले
ओ-हो...
कभी ना कभी तो मिलन होगा, तुमसे हमारा ।।
मांझी नैया ।।
और हां फिल्म 'उपहार' की कथा यहां पढिये । अगर इस फिल्म को देखना ही चाहते हैं तो ऑनलाईन राजश्री की वेबसाईट पर यहां देखिए । इसके लिए आपको मुफ्त साईन-अप करना होगा ।
