मोहम्मद रफी और मुंशी प्रेमचंद 'पिपरा के पतवा'
हमने सोचा कि ‘रेडियोवाणी’ पर किसी ऐसे गाने की बात की जाए- जिसमें इन दोनों कलाकारों का संगम हुआ हो और ऐसे में ‘गोदान’ की याद आना सहज ही था। प्रेमचंद का उपन्यास गोदान सबसे पहले सन 1936 में मुंबई से ही प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशक थे हिंदी ग्रंथ रत्नाकर। इस उपन्यास को आप ऑनलाइन यहां पढ़ सकते हैं।
प्रेमचंद और मुंबई का क्या यही एकमात्र कनेक्शन था। जी नहीं....यहां आपको दिलचस्प बात बतायी जाये कि मुंशी प्रेमचंद एक ज़माने में मुंबई आए थे। वो भी फिल्मों में अपना भाग्य आज़माने के लिए। पर उससे भी पहले उनका मुंबई कनेक्शन बन गया था। उनके उपन्यास ‘सेवा-सदन’ पर बाज़ार-ए-हुस्न नाम की फिल्म बनाने का क़रार हुआ था और इससे प्रेमचंद बड़े खुश थे। उन्होंने 14 फरवरी 1934 को जैनेंद्र कुमार को एक ख़त लिखा जिसमें लिखा--"सेवा सदन का फिल्म हो रहा है. इस पर मुझे साढ़े सात सौ मिले... साढ़े सात सौ."। पर दिक्कत ये हुई कि मुंबई की कंपनी महालक्ष्मी पिक्चर्स ने किताब के अधिकार ले लिये और नानूभाई वकील के निर्देशन में एक दोयम दर्जे की फिल्म परोस दी, जिससे प्रेमचंद खासे दुःखी हुए। इसके बाद जब प्रेमचंद की आर्थिक स्थिति ख़राब हुई ‘हंस’ और ‘जागरण’ को छापना तक मुश्किल होने लगा तो भगवतीचरण वर्मा के आग्रह पर प्रेमचंद मुंबई आए थे। और अजंता सिनेटोन में आठ हज़ार रूपए सालाना की नौकरी कर ली थी। 1935 में वो वापस भी लौट गए थे। इस बीच उनकी कहानी पर मोहन भवनानी ने ‘मिल मज़दूर’ बनायी थी- इस फिल्म में प्रेमचंद ने एक रोल भी किया था। फिल्म मजदूरों के बीच इतनी हिट हुई कि अँग्रेज़ सरकार को इस पर प्रतिबंध लगाना पड़ गया था।
आगे चलकर प्रेमचंद की कृतियों पर कई फिल्में बनीं—जिन पर हम बाद में कभी चर्चा करेंगे। सन 1963 में ‘गोदान’ पर त्रिलोक जेटली ने इसी नाम की फिल्म बनायी थी, जिसमें होरी बने थे राजकुमार, धनिया बनीं कामिनी कौशल और गोबर की भूमिका निभाई महमूद ने। यहां दिलचस्प बात ये है कि जब फिल्म के लिए गीत-संगीत की जिम्मेदारी देने की बारी आयी तो बड़ा ही अनूठा चयन किया गया। फिल्म के लिए संगीत का जिम्मा मैहर घराने के प्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर को दिया गया और गीतकारी का जिम्मा सहज रूप से आया अंजान के नाम। अंजान चूंकि मूल रूप से बनारस के रहने वाले थे—वहां की बोली-बानी को भली-भांति जानते थे इसलिए यह एकदम सही चयन बन गया। कहते हैं कि पंडित रविशंकर ने इस फिल्म के संगीत के लिए खूब रिसर्च किया था। बनारस के आसपास के गांवों के लोक-संगीत को गहराई से जाना समझा और तब बना ‘गोदान’ का संगीत- जो सही मायनों में अमर हो गया। पंडित रविशंकर ने इस फिल्म के संगीत में क्या कमाल किया था इसे समझने के लिए आपको ‘गोदान’ का टाइटल म्यूजिक ज़रूर सुनना चाहिए। हम आपके लिए इसे खोजकर लाए हैं। ये रहा।
आज हम जिस गाने की बात करने जा रहे हैं- वो है—‘पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा’। अद्भुत गीत है ये। गोबर यानी महमूद को होली पर शहर से गांव जाना है। वो अपने सेठ जी से छुट्टी मांगता है और जब छुट्टी मिल जाती है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। अब गोबर चल पड़ा है—कांधे पर लाठी—और साथ में एक पोटली। महमूद को हमेशा हास्य-भूमिकाओं में देखने की आदत के रहते उनकी ये भूमिका आपको झटका देती है। शहर में नौकरी करने आए गांव के एक युवक गोबर की भूमिका। प्रेमचंद का एक किरदार। मोहम्मद रफी गाने की पहली पंक्ति बिना संगीत के गाते हैं—ये एक पुकार है—एक ललक—खुशी, उत्साह अपने घर वापस जाने का--
पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा
कि हियरा में उठत हिलोर
पुरवा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा
कि चल आज देसवा की ओर।।
और इसके बाद लोक-वाद्यों का ऐसा संयोजन कि गर्दन और पैर अपने आप ही थिरकने लगते हैं। इस गाने को डूबकर सुनें तो ऐसा अहसास होने लगता है कि आप खुद ही गांव लौट रहे हैं। अपने घर। अपने लोगों के पास। पंडित रविशंकर हों और सितार ना हो संगीत में—ऐसा नहीं हो सकता। बांसुरी, मैंडोलिन और सितार इंटरल्यूड में आपको बहा ले जाता है अपने साथ।
झुकी-झुकी बोले काले काले ये बदरवा
कबसे पुकारे तोहे नैनों का कजरवा
उमर-घुमर जब गरजे बदरिया रे
ठुमुक ठुमुक नाचे मोर
पुरवा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा
कि चलो आज देसवा की ओर।।
अंजान ने भले अमिताभ बच्चन की फिल्मों के लिए ढेर कमर्शियल गीत रचे हों, पर इस फिल्म के गीतों में उनका भदेस रूप खूब खिला है। ऐसा लगता है जैसे ‘गोदान’ की भावभूमि पर उन्हें बनारस का क़र्ज़ चुकाने का मौक़ा मिला और उन्होंने इसे खूब निभाया। गाने में यहां सितार के टुकड़े के ज़रिए मोर नाचने का जो प्रभाव पैदा किया गया है—वो अद्भुत से भी परे है।
यहां ये भी ग़ौर करने की बात है कि मोहम्मद रफ़ी के गानों में उनका पंजाबी मिज़ाज खूब झलकता रहा है। कुछ शब्दों में तो खास तौर पर—जैसे ‘संग’ में वो खास पंजाबी तरीक़े से ‘सांग्ग’ गाते हैं और वो बड़ा प्यारा भी लगता है। रफी को इस उत्तर भारत के इस ग्रामीण गीत को गाने के लिए खासा अभ्यास करना पड़ा होगा और उन्होंने इसे बड़ी कुशलता से निभाया है। ऊंचे दर्जे के कलाकार ऐसे ही होते हैं।
यहां जब वो गाते हैं ‘सिमिट सिमिट बोले लंबी ये डगरिया/ जल्दी जल्दी चल राही अपनी नगरिया’... तो आनंद आ जाता है। गाने में जो टेर चाहिए थी—जो उछाह- उसे रफी ने गाने में अपनी आवाज़ से साकार कर दिया है।
सिमिट सिमिट बोले लंबी ये डगरिया
जल्दी जल्दी चल राही अपनी नगरिया
रहिया तकत बिरहिनिया दुल्हनिया रे
बांधके लगनिया की डोर
पुरवा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा
कि चलो आज देसवा की ओर।।
मोहम्मद रफी की आवाज़ की मस्ती ‘गोदान’ के होली गीत में भी खूब खिलती है।
‘गोदान’ के किसी भी गाने को सुनें तो आपको केवल बोल नहीं सुनने होते—प्रील्यूड और इंटरल्यूड में घुली देसी तरंग पर थिरकना भी होता है। एक अच्छी फिल्म का सही संगीत ऐसा ही होता है। ‘होली खेलत नंदलाल’ में रफी की आवाज़, अंजान के बोल और पंडित रविशंकर का संगीत कुछ ऐसा जादू रचता है कि गीत खत्म होने के बाद भी आप उससे बाहर नहीं निकल पाते। गीत आपके ज़ेहन में गूंजता रहता है।
मोहम्मद रफी की याद का दिन है आज और हम उन्हें सलाम करते हैं। मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन भी- इन दोनों महान कलाकारों को हमारा नमन।
5 comments:
'Pipra ke patwa...'kya baat hai..
subah ki shuruaat isse achchi bhi kya hogi.Is behtrin article ke liye behd shukriya.Pt. Ravishankar, Mohammad Rafi sahb aur Premchand!
What a tribute to both the legends...������������������������
लाजवाब
Mera man b pipra k patva ki tarh hi hilne lga
गोदान फ़िल्म में पंडित रविशंकर का शानदार गीत-संगीत है। गाने सभी लाज़वाब हैं पर 'जिया हरत रहत दिन रैन' और 'चली आज गोरी पिया की नगरिया" ये दोनों गीत मुझे बेहद पसन्द है।
हमेशा की तरह एक और बढिया पोस्ट। शुभकामनाएं।
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