संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे-- चित्रलेखा फिल्म का गाना। रेडियोवाणी के तेरह बरस।
9 अप्रैल 2007 को हमने अपने इस ब्लॉग 'रेडियोवाणी' का आग़ाज़ किया था।
ये वो दिन थे जब ना इंटरनेट आज की तरह इतना तेज़ था और ना ही देवनागरी में लिखना इतना आसान हुआ करता था। यूनीकोड फॉन्ट्स के बारे में हम धीरे धीरे जान रहे थे। कमाल की बात ये है कि इत्तेफाक़ से अपना ध्यान
ब्लॉग की दुनिया की तरफ गया था। संगीत के बारे में जो पहला चिट्ठा पढ़ा था वो मनीष
कुमार का था। ब्लॉग का नाम था ‘एक शाम मेरे नाम’। मनीष आज भी लिखे जा रहे हैं और उन्होंने अपने ब्लॉग
को एक पोर्टल में बदल लिया है। ब्लॉगिंग की दुनिया में जो दूसरी महत्वपूर्ण व्यक्ति
थे वो थे रवि रतलामी। जिनकी तमाम पोस्टें पढ़कर भी हमें ब्लॉग शुरू करने की प्रेरणा
मिली थी। और इस तरह 9 अप्रैल को ‘रेडियोवाणी’
का आग़ाज़ हुआ। यह बहुत कुछ नया सीखने और उसे आज़माने का लंबा सफर रहा।
ब्लॉगिंग की दुनिया तब बड़ी चहल-पहल से भरी हुआ करती थी। एक से एक धाकड़ शख्सियतें
और उनके बीच की बहस और टकराव सब। रचनात्मकता का एक कमाल का दौर था वो। आज रेडियोवाणी की सालगिरह की इस पोस्ट को रचते हुए
तमाम साथी याद आ रहे हैं।
ये वो दिन थे जब ना इंटरनेट आज की तरह इतना तेज़ था और ना ही देवनागरी में लिखना इतना आसान हुआ करता था। यूनीकोड फॉन्ट्स के बारे में हम धीरे धीरे जान रहे थे।
आज रेडियोवाणी की सालगिरह की पोस्ट 9 तारीख की बजाय
बारह तारीख को आ रही है और ये लॉक-डाउन के दिन हैं। लॉक-डाउन के इन बदहवास दिनों में
तरह-तरह के ख्याल आते हैं मन में। मन कभी अतीत की यादों में भटकता है तो कभी सूनी
सड़कों और उचाट मंज़र से अकबका-सा जाता है। ऐसे में आज ही ख़्याल आया कि आज तो निर्देशक
किदार शर्मा की याद का दिन भी है। उनका जन्मदिन। बस यहीं से इस ब्लॉग-पोस्ट का आयडिया
शुरू हुआ।
किदार शर्मा एक ऐसे निर्देशक हैं जिन्होंने कई कमाल की फिल्में बनायी हैं। उनका सफ़र तीस के दशक में शुरू हुआ था। वो सहगल का दौर था। कम लोगों को पता है कि जब सन 1935 में पी.सी.बरूआ ने शरतचंद्र की कृति पर फिल्म ‘देवदास’ बनायी तो उसके संवाद और गाने केदार शर्मा ने ही लिखे थे। यानी ‘बालम आए बसो मोरे मन में’ और ‘दुःखके दिन अब बीतत नाहीं’ शर्मा जी के ही लिखे गीत थे। संगीत तिमिर बरन का था। यहां एक मज़ेदार बात। प्रमथेश चंद्र बरूआ की 'देवदास' के कैमेरामैन थे नितिन बोस जबकि बिमल रॉय पब्लिसिटी कैमेरामैन की तरह काम कर रहे थे।
किदार शर्मा एक ऐसे निर्देशक हैं जिन्होंने कई कमाल की फिल्में बनायी हैं। उनका सफ़र तीस के दशक में शुरू हुआ था। वो सहगल का दौर था। कम लोगों को पता है कि जब सन 1935 में पी.सी.बरूआ ने शरतचंद्र की कृति पर फिल्म ‘देवदास’ बनायी तो उसके संवाद और गाने केदार शर्मा ने ही लिखे थे। यानी ‘बालम आए बसो मोरे मन में’ और ‘दुःखके दिन अब बीतत नाहीं’ शर्मा जी के ही लिखे गीत थे। संगीत तिमिर बरन का था। यहां एक मज़ेदार बात। प्रमथेश चंद्र बरूआ की 'देवदास' के कैमेरामैन थे नितिन बोस जबकि बिमल रॉय पब्लिसिटी कैमेरामैन की तरह काम कर रहे थे।
बीस बरस बाद बिमल रॉय ने अपनी तरह से देवदास बनायी।
ये सन 1964 की बात है। इस बार संगीत सचिन देव बर्मन का था और गीत साहिर के थे। बहरहाल
बात किदार शर्मा से शुरू हुई थी। केदार शर्मा वो निर्देशक हैं जिन्होंने अपनी ही एक
फिल्म को दोबारा बनाया। उन्होंने सन 1941 में चित्रलेखा बनायी थी। तब इसके कलाकार
थे मेहताब, नांद्रेकर और ध्यानी। इसके तेईस बरस बाद उन्होंने
दोबारा यही फिल्म बनायी। इस बार उन्होंने बतौर चित्रलेखा चुना मीनाकुमारी को। कुमार
गिरी बने अशोक कुमार और बीज गुप्त की भूमिका निभाई प्रदीप कुमार ने।
सवाल ये है कि क्या ऐसे कुछ और निर्देशक हुए हैं जिन्होंने अपनी ही किसी फिल्म को कुछ बरस बाद दोबारा बनाया हो। जब मैंने यह सवाल अज़ीज़ दोस्त और फिल्म-इतिहास के विशेषज्ञ पवन झा से पूछा तो उनका जवाब ये था:
सवाल ये है कि क्या ऐसे कुछ और निर्देशक हुए हैं जिन्होंने अपनी ही किसी फिल्म को कुछ बरस बाद दोबारा बनाया हो। जब मैंने यह सवाल अज़ीज़ दोस्त और फिल्म-इतिहास के विशेषज्ञ पवन झा से पूछा तो उनका जवाब ये था:
‘बहुत से निर्देशकों ने ऐसा किया है महबूब खान ने औरत - मदर इंडिया, विजय भट्ट ने रामराज्य और चेतन आनन्द ने अफ़सर/साहिब बहादुर और टैक्सी ड्राइवर/जानेमन बनाई’
है ना मज़ेदार बात। एक निर्देशक अपनी ही कृति को
दोबारा बनाए। बहरहाल..अब कुछ बातें उपन्यास ‘चित्रलेखा’
के बारे में। भगवती बाबू ने यह उपन्यास 1934 में लिखा था। दिलचस्प
बात ये है कि पहले इसे साहित्य भवन ने छापा था। पर 1937 में भगवती बाबू ने इसे
भारती भंडार, लीडर प्रेस इलाहाबाद से छपवा लिया और तब इसकी
लोकप्रियता तेज़ी से बढ़ी। भगवती चरण वर्मा कभी फिल्मों में भाग्य आज़माने के लिए
भी आए थे।
यहां ये भी उल्लेख कर दिया जाए कि ‘चित्रलेखा’ का रेडियो रूपांतरण करके आकाशवाणी के कई केंद्रों ने इस पर नाटक खेला है। विविध भारती का ‘चित्रलेखा’ का प्रोडक्शन तो कमाल का रहा है- जिसे प्रोड्यूस किया था विजय लक्ष्मी छाबड़ा ने।
यहां ये भी उल्लेख कर दिया जाए कि ‘चित्रलेखा’ का रेडियो रूपांतरण करके आकाशवाणी के कई केंद्रों ने इस पर नाटक खेला है। विविध भारती का ‘चित्रलेखा’ का प्रोडक्शन तो कमाल का रहा है- जिसे प्रोड्यूस किया था विजय लक्ष्मी छाबड़ा ने।
चित्रलेखा के तमाम गानों पर लिखने का जी करता है।
इस फिल्म के गानों की सूची ये रही:
मन रे तू काहे ना धीर धरे
संसार से भागे फिरते हो
छा गये बादल नीलगगन पर
मारा गया ब्रहम्चारी
आली री रोको ना कोई
काहे तरसाए जियरा
सखी रे मेरा मन उलझे तन डोले
मन रे तू काहे ना धीर धरे
संसार से भागे फिरते हो
छा गये बादल नीलगगन पर
मारा गया ब्रहम्चारी
आली री रोको ना कोई
काहे तरसाए जियरा
सखी रे मेरा मन उलझे तन डोले
साहिर ने इस फिल्म के गानों में कमाल किया है। ‘मन रे’ में वो लिखते हैं—
उतना ही उपकार समझ कोई/जितना साथ निभा दे/जनम मरण का मेल है सपना/ ये सपना बिसरा दे/ कोई न संग मरे/ मन रे तू काहे ना धीर धरे।।
इसी तरह एक गाने में वो लिखते हैं:
रूप की संगत और एकान्त/आज भटकता मन है शान्त/कह दो समय से थम के चले/घुल गया कजरा साँझ ढले।।
साहिर के गाने और रोशन का संगीत ‘चित्रलेखा’ की जान हैं। रेडियोवाणी की सालगिरह पर ये गाना आपके लिए। हमेशा की तरह इबारत के साथ।
गाना- संसार से भागे फिरते हो
आवाज़- लता
गीत- साहिर
संगीत-रोशन
अवधि- 3 54
संसार से भागे फिरते हो
भगवान को तुम क्या पाओगे
इस लोक को भी अपना ना सके
उस लोक में भी पछताओगे।।
ये पाप है क्या ये पण्य है क्या
रीतों पर धर्म की मोहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को
कैसे आदर्श बनाओगे।।
ये भोग भी एक तपस्या है
तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचेता का होगा
रचना को अगर ठुकराओगे।।
हम कहते है ये जग अपना है
तुम कहते हो झूठा सपना है
तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जनम बिता कर जायेंगे
तुम जनम गँवा कर जाओगे।।
7 comments:
यूनुस,जिन्दाबाद।
इस फिल्म पर अपने सतीश पंचम जी ने भी ब्लॉग पर सुन्दर पोस्ट लिखी थी।
(कैसी जुल्मी बनाई तैंने नारी कि मारा गया ब्रम्हचारी.......चित्रलेखा रॉक्स डूड :-)).
1941 में बनी चित्रलेखा के एक गीत में नायिका भगवान से कहती है ...... तुम जाओ जाओ भगवान बनो इन्सान बने तो जाने.... यह गीत रामदुलारी ने गाया था। इस फिल्म के लिये निर्देशक केदार शर्मा ने संगीतकार उस्ताद झंडे खां साहब को सारे गीत भैरवी में ढालने को कहा था और उस्ताद जी ने वैसा किया भी।
तुम जाओ जाओ भगवान बने
इन्सान बने तो जाने
तुम उनके जो तुमको ध्यायें
जो नाम रटें, मुक्ति पावें
हम पाप करें और दूर रहे
तुम पार करो तो माने
तुम जाओ बड़े भगवान बने
तुम जाओ जाओ भगवान बने...
तुम उनके...
(तुम जाओ जाओ भगवान बने
)
चित्रलेखा उपन्यास पढ़ने के पहले अगर किदार शर्मा जी की फिल्म चित्रलेखा देखते हैं तो यह एक महान और भव्य फिल्म है लेकिन मैने चित्रलेखा उपन्यास पढ़ने के बाद इसे देखा तो यह फिल्म मन को उतनी नहीं भाई। श्वेतांक जैसे पात्र के लिए महमूद बिल्कुल उस भूमिका के साथ न्याय नहीं कर पाते। वे अपने कॉमेडियन वाली छवि से बाहर नहीं निकल पाए। महमूद इस फिल्म में शिष्य कम मसखरे ज्यादा लगते हैं। "कैसी जुल्मी बनाई तूने नारी" गीत देखिए उसमें यह साफ-साफ दिखता भी है।
बीजगुप्त के पात्र में प्रदीपकुमार और चित्रलेखा के पात्र के साथ मीनाकुमारी ठीकठाक ही लगे।
इस फिल्म का सुन्दर पहलू है इसका शानदार गीत-संगीत।
I'm big fan of vividh bharati and I came from Lucknow Uttar Pradesh to meet. Unus Khan sir please help me is this possible or not Rohit chaube after few days I will back to Lucknow . Kindly please �� reply regards your listener Rohit my emails I'd is whychaubealone@gmail.com
Post a Comment
if you want to comment in hindi here is the link for google indic transliteration
http://www.google.com/transliterate/indic/