कायम है जादू गुलज़ार का।।
ये सच है कि फिल्म-फेयर पुरस्कारों में अब वो चमक बाक़ी नहीं रह गयी, जो किसी ज़माने में हुआ करती थी। शायद इसकी एक वजह है पुरस्कारों की बढ़ती भीड़...। वैसे भी हर बेहतरीन परंपरा की चमक कभी ना कभी फीकी पड़ ही जाती है। इस बार के फिल्मफेयर पुरस्कारों की फेहरिस्त से गुज़रते हुए मुझे एक दिलचस्प तथ्य नज़र आया और यही इस लेख का कारण बन गया है। इस बार फिल्मफेयर पुरस्कार एक पिता-पुत्री की जोड़ी ने जीता है। हरिंदर सिक्का की पुस्तक ‘कॉलिंग सहमत’ पर आधारित मेघना गुलज़ार की फिल्म ‘राज़ी’ ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार तो जीता ही है, आलिया भट्ट सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री करार दी गयीं, अरिजीत सिंह सर्वश्रेष्ठ गायक बने हैं। मज़ेदार बात ये है कि मेघना गुलज़ार ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीता है और उनके पिता गुलज़ार बने हैं सर्वश्रेष्ठ गीतकार।
चलिए पहले तथ्यों के गलियारों में एक चक्कर काट लिया जाए। संभवत: यह पहला मौक़ा है जब पिता पुत्री की जोड़ी को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला है। यहां ये भी बता दिया जाए कि गुलज़ार के पास फिल्मफेयर अवॉर्ड की एक लंबी क़तार है। गुलज़ार के पास अलग-अलग कैटेगरी के कुल 21 फिल्मफेयर अवॉर्ड हैं। और इस फेहरिस्त में वो सबसे ऊपर हैं। पहली बार उन्होंने फिल्म ‘आनंद’ के लिए सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता था। फिर ‘नमक हराम’ के लिए भी संवाद लेखक का पुरस्कार। बतौर गीतकार उन्होंने कुल 12 बार फिल्मफेयर पुरस्कार जीता है। और मुझे लगता है कि ज़रूरी है कि हम उन सभी पुरस्कारों का जिक्र कर दें।
1978 में फिल्म ‘घरौंदा’ के गाने ‘दो दीवाने शहर में’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पहला फिल्मफेयर पुरस्कार उन्होंने जीता था।
उसके बाद ‘गोलमाल’, ‘थोड़ी-सी बेवफाई’, ‘मासूम’, ‘इजाज़त’, ‘लेकिन’, ‘दिल से’, ‘साथिया’, ‘बंटी और बबली’, ‘इश्किया’, ‘जब तक है जान’ और अब ‘राज़ी’। यहां मैंने गानों के बोल जान-बूझकर नहीं दिये हैं। आप आसानी से इन्हें खोज सकते हैं।
गुलज़ार को फिल्म ‘राज़ी’ के ‘ए वतन’ गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला है।
आपको बता दें कि इस गाने की रचना-प्रक्रिया बड़ी मजेदार रही है। बात ये है कि देशभक्ति गीतों के अकाल के इस समय में किसी फिल्म में ऐसा गीत आये जो अल्लामा इकबाल से प्रेरित हो—तो इसे एक बड़ी घटना क्यों ना माना जाए। अपने एक इंटरव्यू में गुलज़ार ने कहा भी है कि इस गीत की प्रेरणा उन्हें बचपन में गाये जाने वाले इकबाल के एक गीत से मिली। ये गीत गुलज़ार के स्कूल में गाया जाता था। जिन पंक्तियों ने गुलज़ार को प्रेरित किया है—वो हैं—‘लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी/ जिंदगी शम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी’। अल्लामा इकबाल की ये रचना ‘बच्चे की दुआ सन 1902 की है और कई स्कूलों में इसे प्रार्थना के तौर पर गाया जाता है। गुलज़ार ने इन पंक्तियों को भी गाने में शामिल किया है। इसी गाने के लिए अरिजीत सिंह को सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला है।
एक और दिलचस्प तथ्य आपके सामने रख दिया जाए। गुलज़ार ने बतौर गीतकार भले ही 12 फिल्मफेयर पुरस्कार जीते हैं पर मजेदार बात ये है कि उन्हें कुल 36 बार नॉमिनेट किया जा चुका है। यानी तकरीबन हर बरस उनका कोई ना कोई गाना नामांकित ज़रूर होता है।
बहरहाल.. सवाल ये है कि वो क्या है जो गुलज़ार को इतना बड़ा गीतकार बनाता है। बहुत सारे लोग, बल्कि ये कहें कि गुलज़ार के आलोचक उन्हें सजावटी गीतकार मानते हैं, शब्दों का बाज़ीगर कहते हैं। मुझे लगता है कि इस तरह हम उनके काम को रिड्यूस नहीं कर सकते। गुलज़ार अपनी गीतकारी से अहसास ये उस धरातल तक जाते हैं—जहां बहुत ही विरले गीतकार जा सके हैं। उनके बहुत सारे गानों को भले ही मजरूह जैसी क्लासिक गीतकारी के दर्जे में नहीं खड़ा किया जा सकता, पर वे अनमोल गीत हैं। उनमें शब्दों और संवेदना की बेहतरीन कारीगरी देखने को मिलती है। मजरूह कहते थे कि गाना फिल्म की कहानी और उसके किरदारों में बड़ी गहराई से धंसा होना चाहिए। इसलिए वो कभी ‘गे गे गेली ज़रा टिम्बकटू’ तो कभी ‘अंग्रेजी में कहते हैं कि आय लव यू’ जैसे गाने लिखते हुए देखे तो कभी ‘हम हैं मता-ए-कूचओ बाज़ार की तरह भी लिखते दिखे’।
बहरहाल... गुलज़ार का पहला गीत सन 1963 में फिल्म ‘बंदिनी’ में आया था—‘मोरा गोरा अंग लै ले’।
बीते 56 सालों में गीतकारी का पूरा व्याकरण ही बदल गया है पर फिर भी गुलज़ार के गानों के कुछ प्रयोगों की बानगी देखिए—
‘नीली नीली इक नदिया/ अंखियों के दो बजरे/
घाट से फिरी नदिया/ बिखर गये गजरे/
डूबे डूबे मितवा बीत मंझधारे/
भिड़े रे भिड़े नैना/ नैना बंजारे’।
‘अल्ला जाने मेरी छत पे
क्यों इतना कम सिग्नल है
पैदल है या ऊँट पे निकला
या माइकल की साइकिल है
आज दिल दौड़े सौ मीटर
कहके हैलो हैलो हैलो’।
‘फसलें जो काटीं उगती नहीं हैं
बेटियां जो ब्याही जायें मुडती नहीं हैं
ऐसी बिदाई हो तो, लंबी जुदाई हो तो
दहलीज़ दर्द की पार करा दे’।
‘निद्रा में किसने याद कियो रे
जगाए सारी रैना रे
पिया जगावै, जिया जगावै, दिया जगावै रे
आवै रे हिचकी
संदेसा आयो ना, चिठिया भी जाई
सावण में सूखे नैना रे
तलैया सूखी, कीकर सूखा, भीतर सूखा रे
आवै रे हिचकी...’।
चलिए गुलज़ार के आपके पसंदीदा गानों और उनके तत्वों की बात करें। और जिन लोगों को गुलज़ार पसंद नहीं—वो भी अपनी बात कहें।
3 comments:
कभी कभी कुछ लोगों के बारे में जब आपके पास लफ्ज़ न हों तो उन्ही से उधार ले लेना चाहिए और मैं वही कर रहा हूँ गुलजार साहब का ही एक शे'र है
" अल्फाज़ परखता रहता है
आवाज हमारी तोल कभी"
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन फ़ारुख़ शेख़ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
त्योहारों के आने से जैसे अपना विरसा याद हो आता है उसी तरह से रेडियोवाणी पर आपकी पोस्ट ब्लॉग की संसार की भीनी भीनी ख़ुशबू जगा देती है। बहुत सामयिक पोस्ट।
गुलज़ार को गीतकार के रूप में इरादतन ख़ारिज किया गया है जो ठेठ से क्रिएटिविटी को नकारने की हमारी भारतीय मनस्थिति का परिचायक है।
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