|| शशि कपूर के जाने का मतलब ||
शशि कपूर का जाना हिंदी के एक बड़े हीरो का जाना ही नहीं है।
असल में शायद हम समझ नहीं रहे हैं कि दृश्य से उनके अनुपस्थित हो जाने का क्या मतलब है। शशि केवल शरीर से मौजूद थे। मन से वो कब के अपने भीतर विलुप्त हो चुके थे।
उनके जाने के मायने हैं रंगमंच के एक बड़े स्तंभ का जाना।
पृथ्वी थियेटर मुंबई में रंगमंच का गढ़ है। पृथ्वी अब सांस्कृतिक अड्डा है। पृथ्वी में अपनी प्रस्तुति देना तमाम कलाकारों का सपना होता है। उनकी ललक होती है बार बार पृथ्वी के मंच पर अपनी पेशकश देने की। पृथ्वी को सजाया संवारा शशि ने है।
पृथ्वी थियेटर मुंबई में रंगमंच का गढ़ है। पृथ्वी अब सांस्कृतिक अड्डा है। पृथ्वी में अपनी प्रस्तुति देना तमाम कलाकारों का सपना होता है। उनकी ललक होती है बार बार पृथ्वी के मंच पर अपनी पेशकश देने की। पृथ्वी को सजाया संवारा शशि ने है।
शशि के बारे में आप तमाम बातें तो जानते पढ़ते ही रहे हैं। अभी उनके निधन के बाद और भी सब पढ़ने को मिला ही होगा। आपको शशि होने का मतलब समझाया जाए।
सन 1975 में चलिए। शशि की मशहूर फिल्में आयी हैं—‘प्रेम कहानी’, ‘चोरी मेरा काम’ और ‘कभी कभी’। इसके बाद ‘फकीरा’, ‘ईमान-धरम’, ‘मुक्ति’, ‘दूसरा आदमी’ और ‘सत्यम शिवम सुंदरम’। यानी सन 75 से 77 के बीच शशि ठेठ फिल्मी काम कर रहे हैं। वो पेड़ के इर्द गिर्द हीरोइन के साथ गाना गा रहे हैं। वो सौंदर्य के पुजारी नज़र आ रहे हैं। लेकिन परदे के पीछे क्या चल रहा है इसे भी देखा जाए।
1978 में रिलीज़ होती है ‘जुनून’ जो रस्किन बॉन्ड की रचना ‘फ्लाइट ऑफ अ पिजन’ पर आधारित है। जुनून श्याम बेनेगल की सातवीं फिल्म है। वो समांतर सिनेमा के एक बड़े स्तंभ बन चुके हैं। अंकुर, चरणदास चोर,निशांत, मंथन, भूमिका और कोंडुरा जैसी फिल्में उन्हें दिग्गजों की कतार में ले जाती हैं। और पेशेवर सिनेमा का एक खिलंदड़ हीरो उनकी अगली फिल्म को प्रोड्यूस करता है। जुनून को तीन नेशनल अवॉर्ड मिलते हैं। और एक फिल्म फेयर भी।
इसके बाद श्याम बेनेगल की अगली फिल्म ‘कलयुग’ का निर्माण भी शशि ही करते हैं। कलयुग आधुनिक महाभारत है। ये फिल्म 24 जुलाई 1981 को रिलीज़ होती है। ज़रा देखिए कि तकरीबन इन्हीं दिनों में शशि परदे पर क्रांति, शान, सिलसिला जैसी फिल्मों में दिखते हैं। और ‘कलयुग’ फिल्म फेयर पुरस्कार जीतती है।
शशि यहां रूकते नहीं हैं। अभिनेत्री अपर्णा सेन को वो निर्देशिका बना देते हैं। और इस तरह 1981 में आती है‘छत्तीस चौरंगी लेन’। जिसकी बातें करते लोग आज भी नहीं थकते। बल्कि लोग अलग अलग दृश्यों और उनसे जुड़े अहसासों, स्मृतियों की बात करते हैं। इस फिल्म में शशि की जीवन संगिनी जेनिफर अपनी पूरी गरिमा के साथ हैं।
जिन दिनों में शशि ‘नमक हलाल’ में ‘रात बाक़ी….’जैसे गाने पर प्याले छलका रहे हैं—उन्हीं दिनों में फिल्म् उत्सवों और गंभीर सिनेमा के हलकों में कमाल कर रही है गोविंद निहलानी की फिल्म ‘विजेता’। वो ‘जुनून’ के लिए सिनेमेटोग्राफर के रूप में नेशनल अवॉर्ड जीत चुके हैं। ‘आक्रोश’ बना चुके हैं और अगले बरस वो फिल्म लेकर आने वाले हैं जो उनकी पहचान बन जायेगी। अर्धसत्य 1983 में आती है। विजेता के बाद। विजेता के लिए गोविंद बतौर सिनेमेटोग्राफर फिर अवॉर्ड जीतते हैं।
शशि चुपके चुपके अपना काम कर रहे है। ये वो दिन हैं जब पृथ्वी भी युवा अभिनेताओं का अड्डा बन चुका है। 1978 में जुहू में पृथ्वी की शुरूआत हुई थी। पहली बार जो नाटक हुआ था उसमें नसीर, ओमपुरी और बेंजामिन गिलानी ने अभिनय किया था। पु. ल. देशपांडे का‘उध्वस्त धर्मशाळा’। जा़हिर है कि शशि का काम कई स्तरों पर चल रहा था। एक तरफ पृथ्वी थियेटर चुपके चुपके एक क्रांति को रच रहा था। दूसरी तरफ अपनी तरह का सिनेमा वो प्रोड्यूस कर रहे थे।
अब आया 1984 जब शशि कपूर ने एक और बेमिसाल फिल्म का निर्माण किया। शूद्रक के नाटक‘मृच्छकटिकम’ पर आधारित फिल्म ‘उत्सव’। इसका निर्देशन किया गिरीश कार्नाड ने। इस फिल्म को एक राष्ट्रीय और दो फिल्म फेयर पुरस्कार मिले। जाहिर है कि शशि को फिल्म में घाटा ही सहना पड़ा। ऊपर जिन फिल्मों की चर्चा हुई है, उन तमाम फिल्मों में शशि ने पैसे लगाए। और शायद ही वो पैसे वापस आए। फिर वो क्या जुनून था कि मसाला फिल्मों से कमाया पैसा शशि यहां फूंकते जा रहे थे। इसके अलावा कौन था उनका समकालीन जो ये काम कर रहा था। हालांकि इसके बाद शशि ने एक बड़ी ग़लती की, अमिताभ बच्चन को लेकर फिल्म ‘अजूबा’ बनाने की। और फिर उन्होंने किसी फिल्म का निर्माण नहीं किया। पर शशि ने जो पाँच फिल्में बनायीं—उन्होंने कई कलाकारों, लेखकों और निर्देशकों को नाम दिया। सबको नाम दिया।
शशि में बेहतर सिनेमा का जो जुननू था उसी ने उनसे‘मुहाफिज’ या ‘इन कस्टडी’, ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’, ‘सिद्धार्थ’, ‘बॉम्बे टॉकी’, ‘शेक्सपीयरवाला’ और ‘हाउस होल्डर’ जैसी फिल्में करवायीं। शशि के जाने का मतलब है अच्छे सिनेमा के एक बड़े पैरोकार का जाना। एक जुनून का तिरोहित हो जाना। विनम्र नमन।
--यूनुस खान।✍🏻 *यूनुस खान*
शशि कपूर का जाना हिंदी के एक बड़े हीरो का जाना ही नहीं है।
असल में शायद हम समझ नहीं रहे हैं कि दृश्य से उनके अनुपस्थित हो जाने का क्या मतलब है। शशि केवल शरीर से मौजूद थे। मन से वो कब के अपने भीतर विलुप्त हो चुके थे।
असल में शायद हम समझ नहीं रहे हैं कि दृश्य से उनके अनुपस्थित हो जाने का क्या मतलब है। शशि केवल शरीर से मौजूद थे। मन से वो कब के अपने भीतर विलुप्त हो चुके थे।
उनके जाने के मायने हैं रंगमंच के एक बड़े स्तंभ का जाना।
पृथ्वी थियेटर मुंबई में रंगमंच का गढ़ है। पृथ्वी अब सांस्कृतिक अड्डा है। पृथ्वी में अपनी प्रस्तुति देना तमाम कलाकारों का सपना होता है। उनकी ललक होती है बार बार पृथ्वी के मंच पर अपनी पेशकश देने की। पृथ्वी को सजाया संवारा शशि ने है।
पृथ्वी थियेटर मुंबई में रंगमंच का गढ़ है। पृथ्वी अब सांस्कृतिक अड्डा है। पृथ्वी में अपनी प्रस्तुति देना तमाम कलाकारों का सपना होता है। उनकी ललक होती है बार बार पृथ्वी के मंच पर अपनी पेशकश देने की। पृथ्वी को सजाया संवारा शशि ने है।
शशि के बारे में आप तमाम बातें तो जानते पढ़ते ही रहे हैं। अभी उनके निधन के बाद और भी सब पढ़ने को मिला ही होगा। आपको शशि होने का मतलब समझाया जाए।
सन 1975 में चलिए। शशि की मशहूर फिल्में आयी हैं—‘प्रेम कहानी’, ‘चोरी मेरा काम’ और ‘कभी कभी’। इसके बाद ‘फकीरा’, ‘ईमान-धरम’, ‘मुक्ति’, ‘दूसरा आदमी’ और ‘सत्यम शिवम सुंदरम’। यानी सन 75 से 77 के बीच शशि ठेठ फिल्मी काम कर रहे हैं। वो पेड़ के इर्द गिर्द हीरोइन के साथ गाना गा रहे हैं। वो सौंदर्य के पुजारी नज़र आ रहे हैं। लेकिन परदे के पीछे क्या चल रहा है इसे भी देखा जाए।
1978 में रिलीज़ होती है ‘जुनून’ जो रस्किन बॉन्ड की रचना ‘फ्लाइट ऑफ अ पिजन’ पर आधारित है। जुनून श्याम बेनेगल की सातवीं फिल्म है। वो समांतर सिनेमा के एक बड़े स्तंभ बन चुके हैं। अंकुर, चरणदास चोर,निशांत, मंथन, भूमिका और कोंडुरा जैसी फिल्में उन्हें दिग्गजों की कतार में ले जाती हैं। और पेशेवर सिनेमा का एक खिलंदड़ हीरो उनकी अगली फिल्म को प्रोड्यूस करता है। जुनून को तीन नेशनल अवॉर्ड मिलते हैं। और एक फिल्म फेयर भी।
इसके बाद श्याम बेनेगल की अगली फिल्म ‘कलयुग’ का निर्माण भी शशि ही करते हैं। कलयुग आधुनिक महाभारत है। ये फिल्म 24 जुलाई 1981 को रिलीज़ होती है। ज़रा देखिए कि तकरीबन इन्हीं दिनों में शशि परदे पर क्रांति, शान, सिलसिला जैसी फिल्मों में दिखते हैं। और ‘कलयुग’ फिल्म फेयर पुरस्कार जीतती है।
शशि यहां रूकते नहीं हैं। अभिनेत्री अपर्णा सेन को वो निर्देशिका बना देते हैं। और इस तरह 1981 में आती है‘छत्तीस चौरंगी लेन’। जिसकी बातें करते लोग आज भी नहीं थकते। बल्कि लोग अलग अलग दृश्यों और उनसे जुड़े अहसासों, स्मृतियों की बात करते हैं। इस फिल्म में शशि की जीवन संगिनी जेनिफर अपनी पूरी गरिमा के साथ हैं।
जिन दिनों में शशि ‘नमक हलाल’ में ‘रात बाक़ी….’जैसे गाने पर प्याले छलका रहे हैं—उन्हीं दिनों में फिल्म् उत्सवों और गंभीर सिनेमा के हलकों में कमाल कर रही है गोविंद निहलानी की फिल्म ‘विजेता’। वो ‘जुनून’ के लिए सिनेमेटोग्राफर के रूप में नेशनल अवॉर्ड जीत चुके हैं। ‘आक्रोश’ बना चुके हैं और अगले बरस वो फिल्म लेकर आने वाले हैं जो उनकी पहचान बन जायेगी। अर्धसत्य 1983 में आती है। विजेता के बाद। विजेता के लिए गोविंद बतौर सिनेमेटोग्राफर फिर अवॉर्ड जीतते हैं।
शशि चुपके चुपके अपना काम कर रहे है। ये वो दिन हैं जब पृथ्वी भी युवा अभिनेताओं का अड्डा बन चुका है। 1978 में जुहू में पृथ्वी की शुरूआत हुई थी। पहली बार जो नाटक हुआ था उसमें नसीर, ओमपुरी और बेंजामिन गिलानी ने अभिनय किया था। पु. ल. देशपांडे का‘उध्वस्त धर्मशाळा’। जा़हिर है कि शशि का काम कई स्तरों पर चल रहा था। एक तरफ पृथ्वी थियेटर चुपके चुपके एक क्रांति को रच रहा था। दूसरी तरफ अपनी तरह का सिनेमा वो प्रोड्यूस कर रहे थे।
अब आया 1984 जब शशि कपूर ने एक और बेमिसाल फिल्म का निर्माण किया। शूद्रक के नाटक‘मृच्छकटिकम’ पर आधारित फिल्म ‘उत्सव’। इसका निर्देशन किया गिरीश कार्नाड ने। इस फिल्म को एक राष्ट्रीय और दो फिल्म फेयर पुरस्कार मिले। जाहिर है कि शशि को फिल्म में घाटा ही सहना पड़ा। ऊपर जिन फिल्मों की चर्चा हुई है, उन तमाम फिल्मों में शशि ने पैसे लगाए। और शायद ही वो पैसे वापस आए। फिर वो क्या जुनून था कि मसाला फिल्मों से कमाया पैसा शशि यहां फूंकते जा रहे थे। इसके अलावा कौन था उनका समकालीन जो ये काम कर रहा था। हालांकि इसके बाद शशि ने एक बड़ी ग़लती की, अमिताभ बच्चन को लेकर फिल्म ‘अजूबा’ बनाने की। और फिर उन्होंने किसी फिल्म का निर्माण नहीं किया। पर शशि ने जो पाँच फिल्में बनायीं—उन्होंने कई कलाकारों, लेखकों और निर्देशकों को नाम दिया। सबको नाम दिया।
शशि में बेहतर सिनेमा का जो जुननू था उसी ने उनसे‘मुहाफिज’ या ‘इन कस्टडी’, ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’, ‘सिद्धार्थ’, ‘बॉम्बे टॉकी’, ‘शेक्सपीयरवाला’ और ‘हाउस होल्डर’ जैसी फिल्में करवायीं। शशि के जाने का मतलब है अच्छे सिनेमा के एक बड़े पैरोकार का जाना। एक जुनून का तिरोहित हो जाना। विनम्र नमन।
--यूनुस खान।
मुहाफिज़ का एक दृृृृश्य ।।
--यूनुस खान।
मुहाफिज़ का एक दृृृृश्य ।।
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