संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Thursday, October 2, 2008

ईद-विशेष--ये मस्जिद है वो बुतख़ाना चाहे ये मानो चाहे वो मानो, साहिर का नग़मा

आज ईद है । ईदुल फित्र । महीने भर तक रोज़े रखने के बाद आता है आज का दिन । शीर-ख़ुरमे और सिंवईं खाने का दिन । गले मिलने और गिले-शिकवे मिटाने का दिन । वो दिन जब दुनिया भर के लिए दुआएं की जाती हैं । मैंने अकसर देखा है कि ईद के दिन जब ईदगाह में शहर-क़ाज़ी दुआ मांगते हैं तो लोग फूट-फूटकर रोते हैं । इस साल बम-धमाकों से बेवक्‍त मौत की गोद में चले गए लोगों के लिए और उनके परिवार वालों के लिए दुआएं मांगी जा रही हैं । देश में अमन-चैन कायम रखने के लिए दुआएं मांगी जा रही हैं ।
  

ईद और नवरात्र की जुगलबंदी जारी है आज के दिन देश भर में । सूरत के एक मित्र ने बताया कि गुजरात के कई इलाक़ों में ऐसे मुसलमान भाई हैं जो रमज़ान में दिन भर रोज़े रखते रहे और शाम ढलने पर डांडिया-रास में गाते और बजाते नज़र आए । चूंकि साजिंदे और गायक हैं तो ये उनका पेशा भी है

जब महेंद्र कपूर नात-शरीफ़ गाते हैं या रवींद्र जैन और हरिहरन अल्‍लाह को बेक़रारी से पुकारते हैं तो हमें गायक, गीतकार या संगीतकार का धर्म नहीं याद आता
और फ़र्ज़ भी । संगीत की दुनिया में कभी धर्म और जाति का भेदभाव नहीं होता, बाक़ी सारी जगहों पर भले ही दिमाग़ तंग हो जाएं लेकिन संगीत-जगत हमेशा इससे अछूता ही रहा है । जब शकील बदायूंनी बैजू-बावरा के लिए 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' लिखते हैं, नौशाद इसे स्‍वरबद्ध करते हैं और मोहम्‍मद रफ़ी इसे गाते हैं तो सुनने वाले एक नई आध्‍यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचते हैं । उनके मन में ये ख्‍याल ही नहीं आता कि जिन लोगों ने इस रचना को तैयार किया है--उनकी अकीदत बुत-परस्‍ती में नहीं है । इसी तरह जब महेंद्र कपूर नात-शरीफ़ गाते हैं या रवींद्र जैन और हरिहरन अल्‍लाह को बेक़रारी से पुकारते हैं तो हमें गायक, गीतकार या संगीतकार का धर्म नहीं याद आता, शायद संगीत की दुनिया के इसी सेकुलरिज्‍म के लिए मजरूह सुल्‍तानपुरी ने लिखा था-
रोक सकता हमें ज़िन्‍दाने बला क्‍या मजरूह ।
हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं ।।


रेडियोवाणी संगीत का ऐसा ही मंच है ।
हम संगीत के हर पहलू से प्‍यार करते हैं । हमारे लिए संगीत एक इबादत
है । संगीत एक ज़रूरी चीज़ है जिंदगी की । हमारे लिए रोटी, कपड़ा, मकान और संगीत जिंदगी की अहम जरूरतें हैं । आज गांधी जयंती, नवरात्र और ईद के मिले-जुले अवसर पर हम एक ऐसी रचना लेकर आए हैं जिसे फिल्‍म-संगीत की एक दिव्‍य ऊंचाई माना जाना चाहिए ।


सन 1961 में फिल्‍म 'धर्मपुत्र' के लिए साहिर लुधियानवी ने ये क़व्‍वाली लिखी थी । इसे महेंद्र कपूर, बलबीर और साथियों ने गाया है और संगीतकार हैं एन दत्‍ता । फिल्‍म 'धर्मपुत्र' यश चोपड़ा की, निर्देशन की दुनिया में पहली कोशिश थी । उनका सिनेमा 'धर्मपुत्र' और 'धूल का फूल' जैसी फिल्‍मों से होते हुए कभी-कभी, चांदनी और वीर-ज़ारा तक आया है । ये गीत मैं समर्पित कर रहा हूं बैंगलोर में रहने वाले अपने मित्र शिरीष कोयल को । शिरीष के बारे में रेडियोवाणी पर पहले भी चर्चा की गयी है । पर फिर से आपको बता दें कि शिरीष साहिर लुधियानवी के जबर्दस्‍त फैन हैं। मुझे लगता है कि 'फैन' शब्‍द उनके जुनून के लिए छोटा है । साहिर के सभी गीत उनके पास हैं । कुछ गिने-चुने गाने नहीं हैं, जिनके लिए वो धरती-आकाश एक किए हुए हैं । अगर आप भी साहिर के दीवाने हैं तो शिरीष से ज़रूर संपर्क
कीजिएगा ।


डाउनलोड लिंक

काबे में रहो या काशी में निस्‍बत तो उसी की ज़ात से है
तुम राम कहो या रहीम कहो मतलब तो उसी की ज़ात से है ।।
ये मस्जिद है वो बुतख़ाना, चाहे ये मानो चाहे वो मानो
भई मक़सद तो है दिल को समझाना चाहे ये मानो चाहे वो मानो ।।



 ये शेख़-ओ-बरहमन के झगड़े सब नासमझीं की बातें हैं
हमने तो है बस इतना जाना चाहे ये मानो चाहे वो मानो ।।
गर जज्बा-ए-मोहब्‍बत स‍ादिक़ हो हर दर से मुरादें मिलती हैं
मंदिर से मुरादें मिलती हैं, मस्जिद से मुरादें मिलती हैं
काबे से मुरादें मिलती हैं काशी से मुरादें मिलती हैं
हर घर है उसी का काशाना, चाहे ये मानो चाहे वो मानो ।।

कठिन शब्‍दों के अर्थ--
शेखो-बहरमन--धर्मोपदेशक
काशाना--घर
सादिक़--पक्‍का


22 comments:

अमिताभ मीत October 2, 2008 at 10:43 AM  

ईद मुबारक़ युनुस भाई ... आप को भी और इस देश को ...

ravindra vyas October 2, 2008 at 10:53 AM  

ईद की बधाई।

संजय पटेल October 2, 2008 at 11:49 AM  

यूनुस भाई ईद मुबारक !
संगीत ने हमेशा संगसाथ के सुरीले मशवरे दिये हैं.देखिये न जब अजमेर शरीफ़ जाकर मोईनुद्दीन चिश्ती के आस्ताने पर जाकर शंकर-शभू नातिया क़लाम सुनते थे तो कहाँ ख़याल रहता था कि कोई हिन्दू गा रहा है या जब अहमद हुसैन-अहमद हुसैन मेरे शहर के ख्यात शनि मंदिर में जय जय जगजननी देवी गाते हैं तब कहाँ याद रहता है कि कोई मुसलमान देवी वंदना गा रहा है.

संगीत हमें विकटताओं को भुलाने और मुहब्बते बढ़ाने का आसरा देता है. मेरे वालिद गाँव से जब शहर आए तो सारंगीनवाज़ उस्ताद मुनीर ख़ा साहब के मकान में किरायेदार रहे और उस्ताद का परिवार आज भी हमारी सारी ख़ुशियों में शरीक होता है और मेरा परिवार भी उनके यहाँ हर शादी-ब्याह,त्योहार में शिरक़त करता है.

आपको जानकर हैरत होगी कि उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब इन्दौर के श्री गोवर्धननार्थ मंदिर के मुलाज़िम थे और बाक़यदा मंदिर की आरती में सारंगी बजाते थे.


गंगा-जमनी तहज़ीब के ये कलेवर इंसानी वजूद को मुकम्मिल बनाते हैं.सारे त्योहार ...नवरात्र हो या रमज़ान ...द्शहरा हो या ईद हमेशा एकता,अमन,ख़ुलूस और समन्वय का पैग़ाम देते आए हैं...आपके द्वारा सुनाए गए गीत में भी तो यही संदेश पोशीदा है.

अफ़लातून October 2, 2008 at 12:05 PM  

आपको और ममता जी को ईद मुबारक ।

परमजीत सिहँ बाली October 2, 2008 at 12:09 PM  

आप सभी को गाँधी जी शास्त्री जी व ईद की बहुत बहुत बधाई।

दिनेशराय द्विवेदी October 2, 2008 at 12:38 PM  

युनुस जी, ईद मुबारक़। बहुत सुंदर कव्वाली सुनाई।

रवि रतलामी October 2, 2008 at 1:50 PM  

ईद की हार्दिक बधाईयाँ.

"...जब शकील बदायूंनी बैजू-बावरा के लिए 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' लिखते हैं, नौशाद इसे स्‍वरबद्ध करते हैं और मोहम्‍मद रफ़ी इसे गाते हैं तो सुनने वाले एक नई आध्‍यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचते हैं । ...."

आपका सही कहना है. चंद फिरकापरस्त लोगों के कारण मनुष्यता को जरा भी, बाल-बराबर भी आंच नहीं आएगी. यकीनन.

Manish Kumar October 2, 2008 at 7:17 PM  

बेहद प्यारी पोस्ट ! संगीत से जुड़े लोगों ने जो समन्वित संस्कृति को फलने फूलने में जिस तरह का योगदान दिया है उसका कोई सानी नहीं है।

आनंद आ गया आज के दिन इस क्व्वाली को सुनकर। ईद के ऍसे ही एक मुबारक दिन हमारे सुपुत्र इस दुनिया में पधारे थे इसलिए ये मौका हमारे घर में भी विशेष होता है। आप सबको ईद मुबारक।

रविकान्त October 2, 2008 at 7:38 PM  

बहुत ख़ूब युनुस भाई। मज़ा आया। ईद मुबारक!

रविकान्‍त

PIYUSH MEHTA-SURAT October 2, 2008 at 7:58 PM  

युन्ऊसजी,
ईद मुबारक ।

पियुष महेता ।

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी October 3, 2008 at 12:03 AM  

एक बात का ज़िक्र करना भूल गई, शिरीष कोयल मेरे भैया जैसे हैं। हम एक ही जगह पले बड़े हैं, एक ही स्कूल में भी। और उनसे मुझे बेहतरीन गानों का संग्रह मिला है। आपका कहना सही है कि उनसे बड़ा साहिर का फ़ैन नहीं। मोहम्मद रफ़ी के भी नायाब, rare गाने भी उनके पास मौजूद हैं।

Udan Tashtari October 3, 2008 at 5:51 AM  

ईद मुबारक़ !!!!!!!!!!!!!

annapurna October 3, 2008 at 9:27 AM  

ईद मुबारक !

Gyan Dutt Pandey October 3, 2008 at 10:51 AM  

देर से ही सही, ईद की बधाई यूनुस।
अस्वस्थ था; सो ईद कि सिवैंयों का भी स्वाद न ले पाया।

सागर नाहर October 3, 2008 at 5:50 PM  

सबसे पहले ईद की मुबारकबाद।
बहुत सुन्दर रचना, दिल को छू जाने वाली। कैसे धन्यवाद दें आपको।

Dr Prabhat Tandon October 4, 2008 at 4:35 AM  

ईद की बहुत-२ मुबारकबाद ! संगीत कभी भी सरहद और मजहब नही देखता , वह तो दिल मे निशचल प्रेम की तरह बसता है और हर पल एक खूशूबू का एहसास कराता रहता है ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` October 5, 2008 at 6:58 AM  

Eid Mubarak ho aapko aur Mamta ji ko Yunus bhai ....
Quwallii sun ker jhoomne lage sabhee yehan per :)
Sorry Angrezi mei comment likh rahee hoon.
Brian ki B day hai 5 th Octo. ko aur damaad aur bitiya ke ghar aayee hoon.
Humaree Sivvaiyaan pahuncha dijiyega ...intezaar rahega ...
bahut sneh ke sath,
aapki ,
- Lavanyadi

एस. बी. सिंह October 5, 2008 at 11:20 PM  

काबे में रहो या काशी में निस्‍बत तो उसी की ज़ात से है

दुआ है की यह बात सब की समझ में आ जाए ।

नितिन | Nitin Vyas October 6, 2008 at 12:27 AM  

ईद की मुबारकबाद।

नितिन | Nitin Vyas October 6, 2008 at 12:27 AM  

ईद की मुबारकबाद।

दिलीप कवठेकर October 7, 2008 at 12:57 AM  

गंगा- जमनी तहज़ीब का इस कव्वाली से अच्छा और संपूर्ण बयां और कहीं भी नही मिलता. ये मजबूरी नही मगर अत्यावश्यक है आज की इस पीडा़भरी परिस्थिती में.

मुझे वह गीत भी याद आया , जहां ऐसी ही हृदयस्पर्शी बात कही गयी है.:

मंदिरों में शंख बाजे, मस्ज़िदों में हो अजान,
शेख का धर्म और दीने बरहमन आज़ाद है,
अब कोई गुलशन ना उजड़े,
अब वतन आज़ाद है...

कितने आज़ाद है हम ...............?

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