मधुमति की समकालीन फिल्में और जंगल में मोर नाचा । मधुमति पर केंद्रित श्रृंखला का दूसरा भाग
रेडियोवाणी पर फिल्म 'मधुमति' पर एक श्रृंखला शुरू की गयी है । दरअसल इस महीने बिमल राय की फिल्म मधुमति पचास साल पूरे कर रही है । मधुमति एक महत्त्वपूर्ण फिल्म है और इसके बारे में तफ़सील से बात करना ज़रूरी है ।
श्रृंखला के पहले भाग में मैंने आपको 'आजा रे परदेसी' सुनवाया था और 'मधुमति' से जुड़ी कुछ बातें बताईं थीं । आईये आज इस फिल्म से जुड़ी हस्तियों की बातें की जाएं । इस फिल्म की कहानी लिखी थी 'अजांत्रिक' और 'मेघे ढाका तारा' जैसी फिल्मों के निर्देशक ऋत्विक घटक ने । फिल्म के संवाद लेखक राजेंद्र सिंह बेदी थे । जिन्होंने फागुन और दस्तक जैसी फिल्में बनाईं । इस फिल्म के गीत शैलेंद्र ने लिखे और संगीत सलिल चौधरी का था । आपको बता दें कि इस फिल्म का संपादन ऋषिकेश मुखर्जी ने किया था । फिल्म का छायांकन दिलीप गुप्ता ने किया था । मुझे ठीक से याद नहीं है पर कुछ साल पहले जब मशहूर लेखक नबेंदु घोष से लंबी बातचीत की थी तो उन्होंने बताया था कि उन्होंने भी मधुमति के एक ड्राफ्ट पर काम किया था ।
मधुमति की कहानी में अंधविश्वास था, भटकती आत्मा की फॉर्मूलेबाज़ कहानी थे ये । और ये बिमल रॉय की आलोचना का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया था । दरअसल इसे समझने के लिए बिमल रॉय की फिल्मोग्राफी से होकर गुज़रना ज़रूरी है । बिमल रॉय प्रतिबद्ध सिनेमा के लिए जाने जाते थे । 1944 में फिल्म 'उदयेर पथे' से सिनेमा पटल पर छा जाने वाले बिमल रॉय ने मधुमति से पहले हमराही, परिणिता, दो बीघा जमीन, नौकरी, बिराज बहू और देवदास जैसी फिल्में बनाई थीं । ज़ाहिर है कि ऐसी फिल्मों के बाद जब बिमल रॉय ने मधुमति जैसी फिल्म बनाई तो प्रबुद्ध दर्शकों और फिल्म-समीक्षकों को इससे शिकायत होनी ही थी । लेकिन इसमें हैरत की बात नहीं है कि बिमल रॉय ने पूरी प्रतिबद्धता के साथ मधुमति का निर्देशन किया और एक बार फिर साबित कर दिया कि जहां तक निर्देशकीय दृष्टि और सूझबूझ का प्रश्न है तो उनका कोई मुक़ाबला नहीं है । मधुमति भारत के लोकप्रिय सिनेमा में मील का पत्थर बन गयी और आज पचास साल पूरे करने पर अगर हम श्रृंखलाबद्ध रूप से इसकी चर्चा कर रहे हैं, तो ज़ाहिर है कि इस फिल्म में कुछ तो ऐसा ज़रूर रहा होगा जो इसे कालजयी बनाता है ।
मधुमति पर केंद्रित श्रृंखला के इस दूसरे भाग में मैं आपको बताना चाहता हूं कि मधुमति की समकालीन फिल्में कौन कौन सी थीं और उनके बीच मधुमति ने किस तरह अपनी पहचान कायम की । आमतौर पर हम इस बात पर ध्यान नहीं देते कि गुज़रे ज़माने की किसी लोकप्रिय फिल्म को टक्कर देने वाली फिल्में कौन सी थीं और उनके परिप्रेक्ष्य में इस फिल्म की सफलता क्या मायने रखती है । चलिए सन 1958 में आई मधुमति की समकालीन फिल्मों पर ध्यान दिया जाए ।
इस साल की सबसे तूफानी फिल्म मानी जानी चाहिए सत्येन बोस निर्देशित फिल्म-'चलती का नाम गाड़ी' । जिसमें किशोर कुमार, अनूप कुमार और अशोक कुमार एक साथ थे । साथ में थीं सजीली मधुबाला--'इक लड़की भीगी भागी सी' । नरगिस और प्रदीप कुमार के अभिनय से सजी फिल्म 'अदालत' भी इसी साल आई । जिसमें मदनमोहन का संगीत था और 'यूं हसरतों के दाग़' और 'ज़मीं से हमें आसमां पर बिठाकर गिरा तो ना दोगे' जैसे मनमोहक गीत थे । इस फिल्म का निर्देशन कालिदास ने किया था । शायद ये कॉमेडी फिल्मों का साल रहा होगा । इसी साल एस डी नारंग के निर्देशन में बनी नूतन और किशोर कुमार के अभिनय वाली फिल्म 'दिल्ली का ठग' भी आई थी । नरगिस और बलराज साहनी के अभिनय वाली फिल्म 'घर-संसार' भी इसी साल आई थी । शक्ति सामंत इसी साल अपनी तूफानी फिल्म 'हावड़ा ब्रिज' लेकर आए थे । जिसका गीत 'मेरा नाम चिन चिन चू' आज भी लोकप्रिय है । जिसके कलाकार थे मधुबाला और अशोक कुमार ।
नवकेतन की फिल्म 'काला पानी' भी इसी साल आई जिसके निर्देशक थे राज खोसला । इस फिल्म में सचिन देव बर्मन का संगीत था और अगर आपको इस फिल्म का 'हम बेखुदी में तुझको पुकारे चले गए' जैसा गीत सुनना हो तो यहां आईये । इस फिल्म के सितारे थे देव आनंद और मधुबाला । सन 1958 की हिट फिल्मों का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता । रमेश सहगल के निर्देशन में आई राजकपूर और माला सिन्हा अभिनीत फिल्म 'फिर सुबह होगी' जो दोस्तोवस्की के उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमेन्ट' पर आधारित थी और इस फिल्म का संगीत ख़ैयाम ने तैयार किया था । यहां क्लिक करके सुनिए इस फिल्म के गीत ।
बी आर चोपड़ा की सुनील दत्त और वैजयंती माला के अभिनय से सजी फिल्म 'साधना' भी सन 1958 की ही फिल्म है । जिसका संगीत एन दत्ता ने दिया था । इस फिल्म का साहिर लुधियानवी का लिखा वो गीत तो आपको याद ही होगा ना--'औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया' । जब मैंने इस बारे में खोजबीन की तो वाक़ई आश्चर्य हुआ कि सन 1958 में कितनी बड़ी और लोकप्रिय फिल्में आई थीं । देवआनंद की फिल्म 'सोलहवां साल' भी इसी साल रिलीज़ हुई । जिसमें वो गीत था- 'है अपना दिल तो आवारा' । इस साल रिलीज़ हुई कुछ और फिल्में हैं- सम्राट चंद्रगुप्त, जिसमें कल्याण जी आनंद जी का संगीत था । प्रमोद चक्रवर्ती की फिल्म 12 ओ क्लॉक । जिसमें ओ पी नैयर का संगीत था । वो गाना याद कीजिए- 'कैसा जादू बलम तूने डाला, खो गया नन्हा सा दिल हमारा' । शाहिद लतीफ के निर्देशन में बनी फिल्म 'सोने की चिडि़या' भी इसी साल आई थी । जिसमें नूतन और बलराज साहनी थे । इसी तरह नौशाद के संगीत से सजी फिल्म 'सोहनी महिवाल' भी इसी साल की फिल्म है । जिसमें महेंद्र कपूर का वो जोशीला गीत था-चांद छुपा और तारे डूबे रात ग़ज़ब की आई । हुस्न चला है इश्क से मिलने, जुल्म की बदली छाई । इसी साल आई महेश कौल की फिल्म 'आख्रिरी दांव' को भला कौन भूल सकता है । इस फिल्म में मदन मोहन का संगीत था- तुझे क्या सुनाऊं मैं दिलरूबा तेरे सामने मेरा क्या हाल है' ।
इन तमाम फिल्मों से मुकाबला करते हुए मधुमति को ढेर सारे फिल्मफेयर अवॉर्ड मिले थे ।
सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार । |
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार बिमल रॉय को । |
सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार वैजयंती माला को । |
सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार सलिल चौधरी को । |
सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार जॉनी वॉकर को । |
सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार सुधेंदु रॉय को । |
सर्वश्रेष्ठ गायिका का पुरस्कार लता मंगेशकर को- 'आजा रे परदेसी' |
सर्वश्रेष्ठ संपादक का फिल्मफेयर पुरस्कार ऋषिकेश मुखर्जी को । |
दिलीप कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार नहीं मिला । |
ऋत्विक घटक को सर्वश्रेष्ठ कहानीकार का पुरस्कार नहीं मिला |
इन फिल्मों के बीच 'मधुमति' एक संपूर्ण फिल्म के तौर पर आई थी । जिसमें नाटकीयता भी थी और गंभीरता भी । वैजयंतीमाला का नृत्य भी था और दिलीप कुमार का शाही अंदाज़ भी । बिमल रॉय ने फिल्म मधुमति को खूब सुंदर बनाया था । और पचास साल बाद भी इस फिल्म की दिव्यता बरक़रार है । अपनी बात ख़त्म करते हुए आपको दिखवा और सुनवा रहा हूं ये गीत: जंगल में मोर नाचा किसी ने ना देखा ।
जॉनी वॉकर का ट्रैक फिल्म की कहानी में कॉमेडी का छौंक लगाने के लिए रखा गया था और जॉनीवॉकर पर अगर गाना ना फिल्माया जाए तो उनके नखरे देखने लायक़ होते थे इसलिए ये गीत फिल्म में आया । जॉनी वॉकर की लोकप्रियता दिलीप कुमार से कम नहीं थी । मज़ेदार बात ये है कि शैलेन्द्र ने ये गीत लिखा है और उनकी लेखनी की जनवादिता इस गाने में भी झलकती है । बोल पढ़ें तो आप भी समझेंगे । तसल्ली से यूट्यूब वीडियो को स्ट्रीम होने दें । पहले प्ले दबाकर पॉज़ दबा दें और स्ट्रीमिंग की पट्टी को लाल होने दें फिर आराम से ये वीडियो देखें । आपको जॉनी वॉकर की अदायगी देखकर अच्छा लगेगा ।
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जंगल में मोर नाचा किसी ने ना देखा हम जो थोड़ी-सी पीके झूमे हाय रे सबने देखा ।। गोरी की गोल गोल अंखियां शराबी कर चुकी हैं कैसे कैसों की ख़राबी इनका ये ज़ोर जुल्म किसी ने ना देखा हम जो थोड़ी सी पी के झूमे ।। किसी को हरे-हरे नोट का नशा है किसी को सूट-बूट कोट का नशा है यारों हमें तो नौटंकी का नशा है ।।
4 comments:
फ़िल्मों के बारे में अच्छी जानकारी है. गीत भी सुंदर.
धन्यवाद यूनुस। यह गीत कई बार सुना, सुनवाया जाता है। और, हमारे जैसे लोग जो फ़िल्में कम देखते रहे हैं उनके लिये आपनें आवश्यक जानकारी प्रदान की है। एक बात और, रफ़ी और जानी वाकर combination के और भी मज़ेदार गानें हैं जैसे’ ले गया ज़ालिम घड़ी समझ के..” इत्यादि।
आभार सहित/ खु़शबू
Dev Anand had got his first Filmfare award for Kaala Paani this year surpassing Dilip Kumar.
मधुमती के सार्थक शोध पर सलाम करता हूँ आपको युनूस भाई...बहुत दिन बाद मेरा ब्रॉडबैंड कनेक्शन यथावत हुआ है . जब मधुमती वाली पोस्ट पढ़ रहा था बस तक़रीबन तब से ही मैं कंप्यूटर से दूर था..आज लौटा हूँ तो सोचा नेक काम करता ही चलूँ आपको मुबारक़बाद देने का.मेरे लिये मधुमती के मानी कुछ ख़ास हैं.हायर सेकेंड्री में पढ़ते वक़्त पिताजी ने बेंजो दिलवा दिया था और जिस उस्ताद से मैंने ये साज़ बजाना सीखा तो पहला नग़मा उन्होनें मुझे सिखाया ...सुहाना सफ़र और ये मौसम हँसी...सोचिये तो इस फ़िल्म की क्या अहमियत होगी मेरे लिय...क्या कुछ और लिखने की ज़रूरत है ?
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