संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Sunday, September 30, 2007

फिल्‍म 'दो आंखें बारह हाथ' पर मेरी पोस्‍ट और उसके बाद हुई संदर्भों की सैर

आपको याद होगा-मैंने फिल्‍म 'दो आंखें बारह हाथ' के पचास वर्ष पूरे होने पर एक पोस्‍ट लिखी थी । जिसमें बताया था कि इस फिल्‍म की कहानी वी शांताराम के दोस्‍त जी डी माडगुळकर का जिक्र किया था । चूंकि मराठी भाषा और साहित्‍य से बहुत मामूली सा परिचय है इसलिए ना तो मैं माडगुळकर जी को जानता था और ना ही उनके नाम का सही उच्‍चारण जानता था । इसलिए ब्‍लॉग और रेडियो के ज़रिए मित्र बने भाई विकास शुक्‍ला ने मुझे तुरंत ज्ञान बिड़ी पिलाई ( नये लोग कृपया ज्ञान बिड़ी का संदर्भ समझ लें, जब भी कोई गंभीरता से ज्ञानवर्धन करे तो हम उसे टॉर्च दिखाने वाला या ज्ञान बिड़ी पिलाने वाला कहते हैं,रोज़ इलाहाबाद से ज्ञानदत्‍त जी हमें ज्ञानबिड़ी पिलाते हैं । टॉर्च दिखाने का संदर्भ परसाई जी की कहानी 'टॉर्च बेचने वाला' से हमारी जिंदगी में आया है )और ये टिप्‍पणी की ।

युनूस भाई,
आप बडे ही रोचक और दिलचस्प विषय निकाल लाते है.
ये फिल्म हमारे ही थिएटर में लगी थी और खूब चली थी. मै तब छोटा था मगर इसे रोज देखता था. इस फिल्म के सारे गीत मुझे याद हो गये थे जो अब तक याद है.इस फिल्म के कहानीकार का नाम आपने थोडा-सा गलत लिखा है. आपको मराठी साहित्य के बारे में ज्‍यादा जानकारी होना वैसे भी असंभव है. उनका नाम था " ग. दि. माडगूळकर".उन्हे मराठी का वाल्मिकी कहा जाता था. उनकी लिखी और सुधीर फडके द्वारा संगीत देकर गायी गयी "गीतरामायण " ये रामायण पर आधारित गीतों की शृंखला महाराष्ट्र मे गजब की लोकप्रिय थी और गीतरामायण के रिकार्ड का सेट अपने घरमे रखना एक प्रतिष्ठा की वस्तू मानी जाती थी.मराठी फिल्मों के इतिहास में ग.दी. माडगूळकर, राजा परांजपे और सुधीर फडके इन तीनों ने मिलके बडी लंबी इनिंग खेली है और बडी यादगार फिल्मे दी है.

इसे पढ़ते ही दिल में घंटी बजी । खासकर 'हमारे ही थियेटर में लगी थी' वाले वाक्‍य से । मैंने तुरंत विकास शुक्‍ल को संदेस भेजा । इस मामले पर प्रकाश डालें और माडगुळकर जी के बारे में ज्ञान दें । विकास भाई ने हमारा निवेदन स्‍वीकार किया और जो कुछ लिखा उसे वैसा का वैसा आपके सामने पेश कर रहा हूं । दिलचस्‍प बात ये है कि कई बार जीवन में संदर्भों की कडि़यां कहानी को कहां से कहां ले जाती हैं । मैं आज इस पोस्‍ट के साथ फिल्‍म 'दो आंखें बारह हाथ' के शेष गीत देना चाह रहा था । लेकिन विकास ने कुछ ऐसे गीतों का जिक्र किया है, जिन्‍हें मैंने जन्‍म-जिंदगी मे कभी नहीं सुना । लेकिन फिर खोजा तो मिल गये ।


युनूस भाई,
आपकी प्रतिक्रिया के बारे में धन्यवाद. चालीसगांव नाम का छोटा सा शहर है जो महाराष्ट्र के जलगांव जिले में हैं. मैं वहीं पर जन्मा, पढ़ा लिखा, बड़ा हुआ और आज भी वहीं पर रहता हूं. १९५२ में मेरे पिताजी ने,जो कि पेशे से वकील थे, यहां पर सिनेमा थिएटर शुरू किया. पहली फिल्म लगी थी 'गुळाचा गणपती'. यह फिल्म मराठी के बेजोड लेखक कै. पु.ल.देशपांडे द्वारा बनाई गई थी. लेखन, दिग्दर्शन, संगीत और अभिनय सब कुछ पु.ल. का था. वे मराठी के पी.जी.वुडहाउस माने जाने थे और बेहद लोकप्रिय रहे. आज तक वैसी लोकप्रियता कोई हासिल नही कर सका है. इस फिल्म का एक गीत ग.दि.माडगुळकरजी ने लिखा था और पं.भीमसेन जोशी जी ने गाया था जो आज तक कमाल का लोकप्रिय है. शायद आपने भी सुना हो.'इंद्रायणी काठी, देवाची आळंदी, लागली समाधी, ज्ञानेशाची.'

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मेरा जन्म १९५८ मे हुआ । उसके पहले अनारकली, नागिन आदि हिट फिल्मे हमारे ही थिएटर में प्रदर्शित हुई और री-रन होती गयी. मेरी मां जब उनकी यादें सुनाती थी तब हम बच्चे सुनते रह जाते थे. नागिन के 'मन डोले मेरा तन डोले' गीत में जब बीन बजती थी तब लोग पागल हो जाते थे और परदे पर पैसे बरसाते थे. किसी मनोरुग्ण दर्शक के शरीर में नागदेवता पधारते थे और वो नाग-सांप की तरह जमीन पर लोटने लगता था.हमारा बचपन तो बस फिल्में देखते देखते ही गुजरा. कोई भी फिल्म कम से कम ३-४ हफ्ते तो चलती ही थी. हमारे थिएटर के अलावा और २ थिएटर्स थे । हमारी वाली देखकर बोर हो गये तो वहां चले गये.

१९८६ मे अंतरधर्म विवाह के बाद मै परिवार से अलग हो गया और थिएटर से संबंध नही रहा. १९९९ मे पिताजी और छोटे भाई की मृत्यू के बाद फिर थिएटर की जिंम्मेदारी मुझ पर आ गयी. लेकिन तब तक सिंगल स्क्रीन थिएटर्स मृत्यूशैया पर पहुंच चुके थे. स्टेट बैंक की मेरी नौकरी छोडकर मैंने थिएटर का बिजनेस चलाने की कोशिश की. मगर बिजनेस डूबती नैय्या बन चुका था. सो गत वर्ष उसे हमेशा के लिये बंद कर दिया.

ग.दि.माडगुळकर जी के बारे में जी करता है आपको सामने बिठाऊं और उनकी मराठी कविताओं का रसपान करवाऊं ।
वे इन्स्टंट शायर थे. चुटकी बजाते ही गीत हाजिर कर देते थे. और वो भी कमाल की रचना. आज उनकी बस एक ही बात कहुंगा. सी. रामचंद्र जी ने एक मराठी फिल्म बनाई थी. घरकुल. जो मैन-वुमन एण्ड चाइल्ड पे आधारित थी. शेखर कपूर की मासूम भी उसी पर आधारित है. उसका संगीत भी उन्हीं ने दिया था. इस फिल्म में माडगुळकरजी की एक कविता का इस्तमाल किया गया था. कविता का नाम था 'जोगिया' (ये हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक राग है) तवायफ की महफिल खत्म हो जाने के बाद जो माहौल बचता है उसका वर्णन किया गया है इस कविता में. प्रारंभ के बोल है 'कोन्यात झोपली सतार, सरला रंग...पसरली पैंजणे सैल टाकुनी अंग ॥ दुमडला गालिचा तक्के झुकले खाली...तबकात राहिले देठ, लवंगा, साली ॥ ये गीत फैय्याज जी ने गाया है. फैय्याज उप-शास्त्रीय संगीत गाती है और नाट्य कलाकार है.) शब्दों का मतलब और कविता का भाव शायद आपकी समझ मे आ रहा होगा. ये गीत या ये पूरी कविता अगर मुझे मिली तो मै आपको जरूर सुनाऊंगा और हिंदी में मतलब समझाऊंगा. कमाल का गाना है.
सी.रामचंद्रजी ने कमाल का संगीत दिया है.


इस टिप्‍पणी को पढ़ने के बाद मुझे मडगुळकर की कविता तो मिल गयी । ये रहा अता-पता
http://gadima.com/jogia/index.php
जहां जाकर आप रीयल प्‍लेयर पर इसे सुन सकते हैं ।
लेकिन ये फैयाज़ वाला संस्‍करण नहीं है । और हां अगर आप मडगुळकर के बारे में ज्‍यादा जानना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें । या फिर यहां जायें--http://gadima.com/ ये ग डि माडगुळकर पर केंद्रित वेबसाईट है । खेद है कि हिंदी में ऐसा काम ज्‍यादा क्‍यों नहीं हो रहा है ।

दो आंखें बारह हाथ का संदर्भ जारी है । जल्‍दी ही इस फिल्‍म के बचे हुए गीत लेकर हाजिर होता हूं ।

कहानी कहां से चली और कहां पहुंच गयी । संदर्भों की सैर आपको कैसी लगी ।


इस संदर्भ की पहली पोस्‍ट--वी शांताराम की फिल्‍म दो आंखें बारह हाथ को हुए पचास साल

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Friday, September 28, 2007

लता दीदी के जन्मदिन पर उनके कंसर्ट के कुछ वीडियोज़


आज सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का जन्‍मदिन है ।
हर्ष की बात ये है कि रेडियो सखी ममता सिंह की लता जी से आधे घंटे तक फोन पर बात हुई है और उसमें लता जी ने बड़े स्‍नेह से अपने बारे में कई बातें बताई हैं । संभवत: इस बातचीत का प्रसारण तीन अक्‍तूबर को दिन में ढाई बजे किया जायेगा । बहरहाल मेरी भी कुछ महीने पहले लता जी से मुलाक़ात हुई थी और उनसे संक्षिप्‍त बातें करने का मौक़ा भी मिला था । लेकिन उस बातचीत का दूसरा भाग अब तक मुमकिन नहीं हो पाया है । देखें ये अभियान कब पूरा हो पाता है ।

बहरहाल आज लता मंगेशकर के जन्‍मदिन पर मैं आपके लिए वो वीडियोज़ लाया हूं जो उनके पहले और अन्‍य कंसर्टस के हैं ।

आपको बता दें कि लता जी का पहला विदेशी कंसर्ट 1974 में लंदन के रॉयल एल्‍बर्ट हॉल में हुआ था । जिसमें दिलीप कुमार ने लता मंगेशकर का परिचय दिया था । मुमकिन हुआ तो जल्‍दी ही मैं इस भाषण को आपके लिए खोजकर लाऊंगा । इस कंसर्ट में लगभग अठारह हज़ार दर्शक मौजूद थे । नेहरू मेमोरियल ट्रस्‍ट के इस कामयाब आयोजन के लिए लता जी ने अपने गानों की फेहरिस्‍त बड़ी सावधानी से तैयार की थी । कंसर्ट के आग़ाज़ में जैसे ही लता जी ने अपनी तान छेड़ी--आ आ । बस तालियों की गड़गड़ाहट गूंजने लगी । फिर लता जी ने गीता का एक श्‍लोक गाया । जो वो हमेशा गाती हैं । इसके बाद फिल्‍मी गीतों का सिलसिला शुरू हुआ ।

मैं अपनी एक अनमोल याद आपसे बांटना चाहूंगा । सन 1998 की बात है शायद । बरसों बाद लता जी का कंसर्ट भारत में हो रहा था और वो भी मुंबई में । टिकिटों की क़ीमतें बड़ी ज्‍यादा थीं । मैं मुंबई में तब नया ही था । साल दो साल हुए थे । पैसे भी कम ही मिलते थे । लेकिन सोच लिया था कि लता जी का कंसर्ट तो छोड़ना नहीं है । दफ्तर से लौटते हुए एक टिकिट खरीद लिया । बड़ा सुंदर सा टिकिट था । आकार में भी बड़ा । कीमत में भी । तब सुनील मेरा रूप पार्टनर था । सुनील से मेरी गहरी छनती थी लेकिन उसे लग रहा था कि लता जी के कंसर्ट के लिए इतने पैसे क्‍यों खर्च किये जायें । इसलिए उसने ज्‍यादा रूचि नहीं दिखाई । मैंने टिकिट संभालकर अपनी फाईल में रख दिया और इंतज़ार करने लगा कि कब वो दिन आयेगा जब मैं कंसर्ट में जाऊंगा । इसके बाद बड़ा मज़ा आया । रोज़ मैं टिकिट निकालकर देखता और सुनील को छेड़ता । याद नहीं पर शायद उस दिन सुनील मेरे बाद लौटा और फिर उसने एक बड़ा सा टिकिट मेरे सामने रख दिया । मैंने कहा-क्‍यों, क्‍या हुआ । तुम तो नहीं जाने वाले थे । सुनील बोला, अरे यार पता नहीं ऐसा सौभाग्‍य जिंदगी में फिर कब मिले । फिर
तू भी तो रोज़ छेड़ता था, मैंने सोचा अभी इतना परेशान कर रहा है कंसर्ट के बाद क्‍या होगा । सोचा चलो साथ साथ इस कंसर्ट का लुत्‍फ उठायेंगे । और हम मुंबई के स्‍पोर्टस कॉम्‍पलेक्‍स में गये । वहां लोग इतनी दूर दूर से कंसर्ट देखने आये थे कि विश्‍वास ही नहीं हुआ । एक बुजुर्ग जोड़ा शायद लातूर से आया था । जब लता जी ने कोई पुराना प्रेमगीत गाया तो इस जोड़े की आंखें छलक आईं । ये उनके ज़माने का गाना था और बरसों बरस रिकॉर्ड या रेडियो पर सुनने के बाद आज वो लता जी को अपने सामने गाते हुए देख रहे थे । ग़ज़ब का माहौल था ।

बहरहाल चलिये लता जी के कंसर्ट के कुछ वीडियो देखे जाएं ।

ये है महल फिल्‍म का गीत--आयेगा आने वाला, लता जी का पहला हिट गीत । संभवत: ये उनके दूसरे कंसर्ट का वीडियो है जो 1976 में हुआ था



अब देखिए--कहीं दीप जले कहीं दिल । फिल्‍म बीस साल बाद । इस कंसर्ट में लता जी ने मोटा सा चश्‍मा पहन रखा था ।
ये पहले कंसर्ट का वीडियो है ।



लता जी अपने कंसर्ट में मधु‍मति का गीत-आजा रे परदेसी जरूर गाती हैं । अगर मेरी याददाश्‍त धोखा नहीं दे रही है तो लता जी को पहला फिल्‍म फेयर इसी गीत के लिए मिला था ।



कभी कभी मेरे दिल में ख्‍याल आता है । पता नहीं ये किस कंसर्ट का वीडियो है । ना ही इसमें पुरूष गायक पहचान पा रहा हूं । ये मुकेश तो नहीं हैं ।



इन वीडियोज़ को देखना अपने आप में एक दिव्‍य अनुभव है । रेडियोवाणी के ज़रिए हम लता जी को जन्‍मदिन की असंख्‍य शुभकामनाएं दे रहे हैं ।


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Thursday, September 27, 2007

शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ ने पूरे किये पचास साल । रेडियोवाणी पर इस फिल्‍म की बातें और गाने ।


शांताराम वणकुद्रे यानी व्‍ही शांताराम की फिल्‍म 'दो आंखें बारह हाथ' सन 1957 में रिलीज़ हुई थी । यानी इस वर्ष इस फिल्‍म की रिलीज़ को पचास साल पूरे हो रहे हैं । थोड़ा-सा विषयांतर करते हुए ये भी बता दूं कि विविध भारती की स्‍थापना भी इसी वर्ष हुई थी,यानी ये इस फिल्‍म और विविध भारती दोनों के पचास वर्ष पूरे होने का मौक़ा है । बहरहाल 'दो आंखें बारह हाथ' कई मायनों में एक कल्‍ट फिल्‍म है । एक कालजयी फिल्‍म है ।

क्‍या आपने ये फिल्‍म देखी है । अगर नहीं तो तुरंत सी.डी.या डी.वी.डी.जुगाडि़ए और फुरसत निकालकर आज ही देख डालिए ।
कहानी एक युवा प्रगतिशील और सुधारवादी विचारों वाले जेलर आदिनाथ की है, जो क़त्‍ल की सज़ा भुगत रहे पांच खूंखार कै़दियों को एक पुराने जर्जर फार्म-हाउस में ले जाकर सुधारने की अनुमति ले लेता है । और तब शुरू होता है उन्‍हें सुधारने की कोशिशों का आशा-निराशा भरा दौर ।

इतने सरल और सादे से कथानक पर बिना किसी लटके झटके के साथ एक कालजयी फिल्‍म बनाई शांताराम ने । इस फिल्‍म में युवा जेलर आदिनाथ का किरदार खुद शांताराम ने निभाया । और उनकी नायिका बनीं संध्‍या । इसके अलावा कोई ज्‍यादा मशहूर कलाकार इस फिल्‍म में नहीं था । भरत व्‍यास ने फिल्‍म के गीत लिखे और संगीत वसंत देसाई ने दिया ।

यहां आपको ये भी बता देना ज़रूरी है कि वी शांताराम ने इस फिल्‍म से पहले सन 1955 में अपनी नृत्‍य और संगीत प्रधान फिल्‍म 'झनक झनक पायल बाजे' बनाई थी और इस फिल्‍म के बाद 1959 में बनाई गीत-संगीत प्रधान अपनी एक और महत्‍त्‍वपूर्ण फिल्‍म 'नवरंग' । इस लिहाज से देखें तो भी शांताराम की सिने यात्रा काफी दिलचस्‍प लगती है । वो विषयों के मामले में काफी प्रयोग कर रहे थे । शांताराम ने वैसे भी ज्‍वलंत सामाजिक मुद्दों को अपनी फिल्‍मों का विषय बनाया । जैसे उनकी फिल्‍म दुनिया ना माने बेमेल विवाह पर केंद्रित थी । फिल्‍म आदमी के केंद्र में थी वेश्‍यावृत्ति । पड़ोसी सांप्रदायिक सदभाव पर केंद्रित थी और फिल्‍म दहेज का विषय तो इसके शीर्षक से ही समझा जा सकता है ।

मैंने सुना है कि जिस वक्‍त उन्‍होंने 'दो आंखें बारह हाथ' बनाई, तब उनकी उम्र सत्‍तावन साल थी और वो बहुत ही चुस्‍त-दुरूस्‍त हुआ करते थे । फिल्‍म में रोचकता और रस का समावेश करने के लिए संध्‍या को एक खिलौने बेचने वाली का किरदार दिया गया, जो जब भी खेत वाले बाड़े से गुजरती है तो उसे इंप्रेस करने की होड़ लग जाती है कडि़यल और खूंखार क़ैदियों में ।

फिल्‍म 'दो आंखें बारह हाथ'साबित करती है कि चाहे क़ैदी हो या जल्‍लाद- हैं तो सब इंसान ही । तमाम बातों के बावजूद हम सबके भीतर एक कोमल-हृदय है । हमारे भीतर जज्‍़बात की नर्मी है । हमारे भीतर आंसू हैं, मुस्‍कानें हैं । हमारे भीतर अपराध बोध है । प्‍यार की चाहत है ।

इस फिल्‍म का सबसे बड़ा संदेश है नैतिकता का संदेश । भारतीय मानस में नैतिकता की गहरी पैठ है । वही हमारे बर्ताव पर 'वॉचफुल आई' रखती है । हमें भटकने से बचाती है । अगर हमसे कोई ग़लत क़दम उठ जाता है तो हम अपराध-बोध के तले दब जाते हैं । इस फिल्‍म में जेलर आदिनाथ अपने क़ैदियों को इसी ताक़त के सहारे सुधारता है, उनके भीतर की नैतिकता को जगाता है । यही नैतिकता उन्‍हें फरार नहीं होने देती । इसी नैतिक बल के सहारे वो कड़ी मेहनत करके शानदार फसल हासिल करते हैं । इस तरह ये फिल्‍म कहीं ना कहीं गांधीवादी विचारधारा का प्रातिनिधित्‍व करती है । मशहूर पुलिस अधिकारी किरण बेदी ने 'दो आंखें बारह हाथ' से ही प्रेरित होकर दिल्‍ली की तिहाड़ जेल में क़ैदियों के रिफॉर्म का कार्यक्रम शुरू किया था और सफलता हासिल की थी । आपको बता दूं‍ कि शांताराम की फिल्‍म्‍ दो आंखें बारह हाथ को 1957 में बर्लिन फिल्‍म समारोह में सिल्‍वर बेयर मिला था । इसी साल इस फिल्‍म ने राष्‍ट्रपति का स्‍वर्ण पदक जीता और 1958 में चार्ली चैपलिन के नेतृत्‍व वाली जूरी ने इसे 'बेस्‍ट फिल्‍म आफ द ईयर' का खिताब दिया था । मुंबई में ये फिल्‍म लगातार पैंसठ हफ्ते चली थी । कई शहरों में इसने गोल्‍डन जुबली मनाई थी ।

दरअसल इस फिल्‍म की कहानी लिखी थी जी डी मदगुलेकर ने । जो शांताराम के मित्र थे । जब मदगुलेकर ये कहानी लेकर शांताराम के पास पहुंचे तो शांताराम ने कहानी को रिजेक्‍ट कर दिया था । हालांकि कहानी का भावनात्‍मक पक्ष उन्‍हें पसंद आया था । इसलिए उन्‍होंने इस कहानी को दोबारा लिखा और फिर इस पर फिल्‍म बनाई ।

दो आंखें बारह हाथ का संगीत शांताराम की अन्‍य फिल्‍मों की तरह उत्‍कृष्‍ट था । और आज भी रेडियो स्‍टेशनों पर इसकी खूब फरमाईश की जाती है ।

तो आईये इस फिल्‍म के गीत सुन लिये जायें ।


लता मंगेशकर की गाई प्रार्थना 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम' । बेहतरीन कंपोजीशन । इसके रिदम साईड पर ध्‍यान दीजिए । और कोरस पर । वसंत देसाई का अनमोल संगीत ।

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उमड़ घुमड़ के छाई रे घटा । एक बार फिर शानदार रिदम । तेज़ लय का बेहतरीन गीत । इस गीत की गीतकारी के तो कहने ही क्‍या । एक संपूर्ण गीत । बीच में सारंगी की तान सुनिए । जो फिल्‍म में संध्‍या के आने की सिगनेचर ट्यून बन गयी थी ।

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इस फिल्‍म का सबसे शरारती गीत । सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला ।
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इस फिल्‍म में कुछ और गीत भी हैं । जिनका जिक्र अगली कड़ी में किया जायेगा ।
तब तक आप इन तीनों गीतों को बार बार सुनिए और लुत्‍फ उठाईये ।

अरे कहां चले आप । अरे इन गानों के वीडियो नहीं देखेंगे क्‍या ।

ऐ मालिक तेरे बंदे हम


सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला



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Tuesday, September 25, 2007

हम तो ऐसे हैं भैया--आईये सुनें फिल्‍म 'लागा चुनरी में दाग़' का ये शानदार गीत




आमतौर पर रेडियोवाणी पर हम नये गाने कम ही सुनते हैं । लेकिन आज सोचा कि कोई नया गीत सुनवाया जाये ।
इन दिनों मैं प्रदीप सरकार की आगामी फिल्‍म 'लागा चुनरी में दाग़' फिल्‍म के गीत सुन रहा हूं । इस फिल्‍म का एक गीत मुझे पसंद आया है । तो चलिए इसे सुना जाए ।

जहां तक मेरी जानकारी है ये गीत लिखा है स्‍वानंद किरकिरे ने । और इसे स्‍वरबद्ध किया है शांतनु मोईत्रा ने ।
आवाज़ें हैं सुनिधि चौहान और श्रेया घोषाल की । अरे हां याद आया आपको ये भी बता दूं कि सब कुछ ठीक रहा तो कल सुनिधि विविध भारती आ रही हैं, उनसे बातचीत की जिम्‍मेदारी मुझे ही सौंपी गयी है ।

बहरहाल ये गीत छोटी शहर की स्पिरिट का गीत है । बिल्‍कुल वैसा ही जैसा कुछ साल पहले 'बंटी और बबली' फिल्‍म में आया था--धड़क धड़क सीटी बजाये रेल । ज़रा इसके बोलों पर ध्‍यान दीजिए--

जेब में हमारी दुई रूपैया
दुनिया को रखें ठेंगे पे भैया
इक इक को खूंटी पे टांगे
और पाप पुण्‍य चोटी से बांधे
नाचे हैं ताता थैया
हम तो ऐसे हैं भैया
ये अपना पैशन/टश्‍न है भैया ।।

एक गली बम बम भोले
दूजी गली में अल्‍ला-मियां
एक गली में गूंजें अज़ानें
दूजी गली में बंसी रे भैया ।।

सबकी रगों में लहू बहे है
अपनी रगों में गंगा मैया
सूरज और चंदा भी ढलता
अपने इशारों पे चलता
दुनिया का गोल गोल पहिया ।। हम तो ऐसे हैं भैया ।।

आजा बनारस में रस चख ले आ
गंगा में जाके तू डुबकी लगा
रबड़ी के संग तू चबा ले उंगली
माथे पे भांग का रंग चढ़ा
चूना लगई ले,पनवा चबई ले
उसपे तू ज़र्दे का तड़का लगई ले
पटना से अईबे, टैरेस पे अईबे
गंगा की नहर कोई नंगा नहइबे
जीते जी तो कोई काशी ना आए
चार चार कांधों पे वो चढ़के आए ।।

हम तो ऐसे हैं भईया
ये अपनी नगरी है भईया ।।
दीदी अगर तुझको होती जो मूंछ
मैं तुझको भईया बुलाती तू सोच
अरे छुटकी अगर तुझको होती जो पूंछ
मैं तुझको गैया बुलाती तू सोच
दीदी ने ना जाने क्‍यों छोड़ी पढ़ाई
घर बैठे अम्‍मां संग करती है लड़ाई
अम्‍मां बेचारी बीच में है आई
रात दिन सुख दुख की चलती सलाई
घर बैठे बैठे बाप जी हमारे
लॉटरी में ढूंढते हैं किस्‍मत के तारे
मंझधार में हमरी नैया
फिर भी देखो मस्‍त हैं हम भैया ।।
हम तो ऐसे हैं भैया ।।

दिल में आता है यहां से
पंछी बनके उड़ जाऊं
शाम ढले फिर दाना लेकर
लौटके अपने घर आऊं ।।
हम तो ऐसे हैं भैया ।।
हम तो ऐसे हैं भैया ।।

मेरा मानना है कि ऐसा ठेठ मध्‍यवर्गीय गीत आज के ज़माने में आना वाक़ई कमाल की बात है । इसके लिए हमें स्‍वानंद किरकिरे और शांतनु मोईत्रा की टीम को बधाई देनी चाहिये । इस गाने को सुनने के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं । म्‍यूजिक मज़ा के इस पेज में फिल्‍म लागा चुनरी में दाग के सारे गीत हैं ।
हम जिस गीत की बात कर रहे हैं वो आखिरी नंबर पर है । वहां क्लिक करके आप ये गीत सुन सकते हैं ।

मुझे तो ये गीत बहुत पसंद है । बताईये आपको पसंद आया क्‍या ।


तस्‍वीर यशराज फिल्‍म्‍स की वेबसाईट से साभार

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Sunday, September 23, 2007

daughters day और हमारे घरों की बेटियों के नाम दो नग्‍मे




आज है डॉटर्स डे । बेटी दिवस ।
हमारे देश में बेटियों के साथ जैसा बर्ताव किया जाता रहा है उसके परिप्रेक्ष्‍य में 'बेटी दिवस' महत्‍त्‍वपूर्ण हो जाता है । महत्‍त्‍वपूर्ण इस संदर्भ में कि कम से कम माता पिता को अहसास तो हो कि वो बेटी के साथ भेदभाव कर रहे हैं । हम आधुनिकता का चाहे जितना डंका पीट लें, अर्थव्‍यवस्‍था की तरक्‍की के परचम लहरा लें लेकिन इतना तो तय है कि
जब बेटी की उच्‍च शिक्षा की बात आती है तो आज भी मध्‍यवर्गीय परिवारों में बेटे की कीमत पर बेटी को बड़े शहर में होस्‍टल में रहकर पढ़ने नहीं भेजा जाता । आज भी विदेश पढ़ने जाने के लिए बेटे का नंबर तो आ सकता है पर बेटी.... नहीं नहीं । ऐसा कैसे हो सकता है । आज भी बेटा अपनी मर्जी से शादी कर ले तो थोड़ी नाराज़गी के बाद उसे माफ किया जा सकता है । लेकिन बेटी को कभी माफ नहीं किया जाता । ये माना जाता है कि उसने हमारी नाक कटा दी ।

हम दोहरी मानसिकता के किस क़दर शिकार हैं ।
डॉटर्स डे भले ग्रीटिंग कार्ड कंपनियों या उपभोक्‍तावादी समाज रचने वाले बाज़ार का शोशा हो पर किसी ना किसी तरह ये अहसास दिला रहा है कि घर में बेटी भी है । उसकी अपनी खुशियां और ग़म हैं । उसका एक नाज़ुक सा मन है । उसके अपने सपने हैं । उसकी अपनी उड़ान है । वो लोकगीतों वाली पिंजरे की मैना नहीं है । आज जरूरत पड़े तो बेटी पहले मां बाप के काम आती है । उस समय बेटे अपनी पेशेवर मजबूरियों का बहाना बनाकर कन्‍नी काट लेते हैं ।

रेडियोवाणी पर उसी बेटी के नाम दो प्‍यारे से नग्‍मे ।
हालांकि नग्‍मे क्रांति नहीं लाते । लेकिन शायद नग्‍मे अपराधबोध का अहसास करा सकते हैं । इन गानों के ज़रिये मैं अपनी छोटी बहन को भी याद कर रहा हूं ।
हालांकि मुझे खुशी है कि हमारे परिवार ने उसकी सपनों और उसकी उम्‍मीदों को कुचला नहीं । पर ये उन तमाम बहनों के नाम जिन्‍हें पिंजरे वाली मैना समझा गया और समझा जा रहा है ।

ये गीत फिल्‍म सीमा का है । जो सन 1955 में आई थी । बोल हसरत जयपुरी के संगीत शंकर जयकिशन का ।

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और ये सन 1964 में आई फिल्‍म दोस्‍ती का गीत है । लक्ष्‍मी प्‍यारे की जोड़ी की ये पहली रिलीज़ फिल्‍म थी । इस फिल्‍म से ही उन्‍होंने अपने आप को संभावनाशील संगीतकार साबित कर दिया था । अफसोस कि मैं इन गीतों के संगीत का विश्‍लेषण व्‍यस्‍तताओं के रहते नहीं कर पा रहा हूं । ये गीत मजरूह का है ।


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Saturday, September 22, 2007

बाग़ों में बहार आई और मैं ढूंढ रहा था सपनों में--आनंद बख्‍शी के 'गाये' दो गीत




लंबे अरसे से मैं आनंद बख्‍शी के गीत रेडियोवाणी पर प्रस्‍तुत करना चाहता था ।
लेकिन मुमकिन नहीं हो पा रहा था । पर दो एक दिन पहले कुछ 'ऐसा' पढ़ लिया कि लगा अब बख्‍शी साहब की बातें रेडियोवाणी पर करनी ही होंगी ।

आनंद बख्‍शी मुंबईया फिल्‍म-जगत में आने से पहले फौज में थे । दो बार उन्‍होंने गीतकारी के लिए जद्दोजेहद की और हारकर वापस लौट गये । लेकिन तीसरी बार आखि़रकार बख्‍शी साहब को मौक़ा मिल ही गया और मुंबईया फिल्‍म-जगत को एक बाक़यादा गीतकार मिला ।

बाक़ायदा गीतकार से मेरा आशय है फुलटाईम गीतकार से ।
मुंबईया फिल्‍म-जगत में ज्‍यादातर शायर और कवियों से गाने लिखवाये जाते रहे हैं ।
मजरूह सुल्‍तानपुरी से लेकर साहिर लुधियानवी और नीरज से लेकर इंदीवर तक ज्‍यादातर गीतकार पहले शायर या कवि थे और बाद में बने गीतकार । लेकिन आनंद बख्शी गीतकारी की दुनिया में फुलफ्लेज आये थे । लिखने का शौक़ था, उससे भी ज्‍यादा था गाने का शौक़ । आनंद बख्‍शी ने ज्‍यादातर गानों की धुनें तक संगीतकारों ने दीं और संगीतकारों ने उन धुनों को स्‍वीकार भी किया ।

आनंद बख्‍शी का सबसे बड़ा योगदान ये रहा है कि उन्‍होंने जनता की भाषा को कविता की शक्‍ल दी । बख्‍शी साहब पर केंद्रित इस अनियमित-श्रृंखला में हम उनके कुछ गानों का विश्‍लेषण करते हुए पता लगायेंगे कि वो क्‍या चीज़ थी जो बख्‍शी को दूसरे गीतकारों से अलग और ख़ास बनाती थी । बख्‍शी ने गीतकारी की दुनिया को क्‍या दिया । उनका गीतकारी में क्‍या योगदान है ।

मुझे लगता है कि बख्‍शी ने युगल-गीतों का बेहतरीन ग्रामर दिया है फिल्‍म-उद्योग को । उनके ज्‍यादातर युगल-गीतों में कमाल का संयोजन है । सवाल-जवाब वाली लोक-परंपरा को उन्‍होंने फिल्‍मों की गीतकारी में शामिल किया । 'अच्‍छा तो हम चलते हैं, 'सावन का महीना,पवन करे शोर,'कोरा काग़ज़ था ये मन मेरा','बाग़ों में बहार है, कल सोमवार है' जैसे अनगिनत युगल-गीत हैं उनके । जो एक नज़र में तो सादा लगते हैं, लेकिन इनका शिल्‍प कमाल का है । बहरहाल इन मुद्दों पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे ।

गीतकार आनंद बख्‍शी के गीतों पर केंद्रित इस अनियमित श्रृंखला की पहली कड़ी में आपको उनके लिखे और उन्‍हीं के गाये दो अनमोल गीत सुनवाये जा रहे हैं । फिल्‍म है -मोम की गुडि़या । 1972 में आई इस फिल्‍म निर्माता निर्देशक थे मोहन कुमार ।
इस फिल्‍म की नायिका तनूजा थीं और नायक कोई रतन चोपड़ा थे । फिल्‍म की गुमनामी से समझा जा सकता है कि इसका हश्र क्‍या हुआ होगा । लेकिन इसके गीत काफी चले । इस फिल्‍म में लक्ष्‍मी-प्‍यारे ने संगीत दिया था ।

बख्‍शी साहब ने 'मोम की गुडि़या' में दो गीत गाए थे । एक था-बाग़ों में बहार आई । और दूसरा-मैं ढूंढ रहा था सपनों में ।
मुझे दूसरा गीत ज्‍यादा पसंद है । इसलिए पहले हम इसकी चर्चा करेंगे ।

'मैं ढूंढ रहा था सपनों में'काफी नाटकीय ढंग से बहुत ऊंचे सुर वाले ग्रुप वाय‍लिन से शुरू होता है । वायलिन की ये वैसी तान है जैसी मुगलिया सल्‍तनत की कहानियां दिखाने वाली फिल्‍मों में होती थी । लेकिन इसके बाद संगीत मद्धम होता है । फिर रबाब की तान आती है और फिर बख्‍शी साहब की आवाज़ । इस आवाज़ में मुझे एक अलग सी खनक सुनाई देती है ।

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मैं ढूंढ रहा था सपनों में
तुमको अनजाने अपनों में
रस्‍ते में मुझे फूल मिला तो
मैंने कहा मैंने कहा
ऐ फूल तू कितना सुंदर है
लेकिन तू राख है मौज नहीं
जा मुझको तेरी खोज नहीं ।। मैं ढूंढ रहा था ।।

इस गाने के इंटरल्‍यूड में रबाब का शानदार उपयोग है । वैसे तो कल्‍याण जी आनंद जी ने रबाब का उपयोग अपने संगीत में कई बार किया है । पर इस गाने में लक्ष्‍मी प्‍यारे ने रबाब से बेहतरीन इंटरल्‍यूड सजाया है । साथ में गिटार का बेहद सुंदर इस्‍तेमाल । लक्ष्‍मी-प्‍यारे के ऑरकेस्‍ट्रा में झांककर देखो तो अकसर चौंकाने वाले प्रयोग मिलते हैं । इस सपनीले और फंतासी गाने में रबाब ने जो समां बांधा है वो शायद किसी और प्रयोग से नहीं बंध सकता था । ऊपर से आनंद बख्‍शी की अनयूजुअल आवाज़ । दिल अश अश करने लगता है ।


मैं दीवाना अनजाने में
जा पहुंचा फिर मैखाने में
रस्‍ते में मुझे एक जाम मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
ऐ जाम तू कितना दिलकश है
लेकिन तू हार है जीत नहीं
जा तेरी मेरी प्रीत नहीं ।। मैं ढूंढ रहा था ।।


इसके बाद जो अंतरे आते हैं, वो हम जैसे आनंद बख्‍शी के दीवानों को मोहित करने के लिए काफी है । इस कविता में कोई चमत्‍कार नहीं है । इस गीत में कोई कलाबाज़ी नहीं है । कोई बौद्धिकता नहीं है ।
कोई नारेबाज़ी नहीं है । लेकिन इसमें सच्‍चाई है । सादगी है । एक दर्शन है ।

मैं बढ़कर अपनी हस्‍ती से
गुज़रा तारों की बस्‍ती से
रस्‍ते में मुझे फिर चांद मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
ऐ चांद तू कितना रोशन है
पर दिलबर तेरा नाम नहीं
जा तेरे बस का काम नहीं
दीपक की तरह जलते जलते
जीवन पथ पर चलते चलते
रस्‍ते में मुझे संसार मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
संसार तू कितना अच्‍छा है
लेकिन ज़ंजीर है डोर नहीं
जा तू मेरा चितचोर नहीं ।। मैं ढूंढ रहा था ।।

कुछ और चला मैं बंजारा
तो देखा मंदिर का
मंदिर में मुझे भगवान मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
भगवान तेरा घर सब कुछ है
लेकिन साजन का द्वार नहीं
पूजा पूजा है प्‍यार नहीं
जी था बेचैन अकेले में
पहुंचा सावन के मेले में
मेले में तुम्‍हें जब देख लिया
तो मैंने कहा मैंने कहा
तुम्‍हीं तो हो तुम्‍हीं तो हो
चितचोर मेरे मनमीत मेरे
तुम बिन प्‍यासे थे गीत मेरे ।। मैं ढूंढ रहा था ।।

यहां आकर गीत अपने अंजाम तक पहुंचता है और बख्‍शी साहब अपनी प्‍यारी हमिंग करते हैं । और दिल पर एक खलिश सी तारी हो जाती है । मैंने पहले भी कहा कि इस गाने में कितनी सादगी से बख्‍शी साहब ने प्रेम का दर्शन उतार दिया है । ज़रा इन पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए--

रस्‍ते में मुझे संसार मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
संसार तू कितना अच्‍छा है
लेकिन ज़ंजीर है डोर नहीं
जा तू मेरा चितचोर नहीं ।।

मंदिर में मुझे भगवान मिला
तो मैंने कहा मैंने कहा
भगवान तेरा घर सब कुछ है
लेकिन साजन का द्वार नहीं
पूजा पूजा है प्‍यार नहीं

मेले में तुम्‍हें जब देख लिया
तो मैंने कहा मैंने कहा
तुम्‍हीं तो हो तुम्‍हीं तो हो
चितचोर मेरे मनमीत मेरे
तुम बिन प्‍यासे थे गीत मेरे ।।

ये तीनों जुमले या कह लीजिये कि अंतरे के तीनो टुकड़े कमाल के हैं । जिस बात को कबीर ने कहा, मीरा ने कहा, सूफियों ने कहा--कि प्रेम दुनिया की हर चीज़ से बढ़कर है, भगवान से बढ़कर है उसे आनंद बख्‍शी ने भी कहा । लेकिन एक फिल्‍मी गीत में गुंजाईश निकालकर कहा । और इसीलिए वो दूसरों से अलग खड़े नज़र आते हैं ।

दूसरा गीत है 'बाग़ों में बहार आई' । इस गाने को मैं बहुत ही संक्रामक गीत मानता हूं । इंफैक्‍शस सॉन्‍ग । इसे सुनकर बिना गुनगुनाए आप रह ही नहीं सकते । गाने की शुरूआत लताजी और आनंद बख्‍शी के आलाप से होती है । साथ में है बांसुरी और रिदम का कुशल संयोजन । जो इस गाने की पहचान बन गया है । इस गाने में लंबी लंबी पंक्तियां हैं और लक्ष्‍मी-प्‍यारे ने बड़ी अदा के साथ इनकी धुन तैयार की है ।

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बाग़ों में बहार आई, होठों पे पुकार आई
आजा आजा आजा मेरी रानी
रूत बेक़रार आई,डोली में सवार आई
आजा आजा आजा मेरे राजा ।।

फूलों की गली में आईं भंवरों की टोलियां
दिये से पतंगा खेले आंखमिचौलियां
बोले ऐसे बोलियां के प्‍यार जागा जग सो गया ।।
रूत बेक़रार आई डोली में सवार आई
आजा आजा आजा मेरे राजा ।।

सपना तो सपनों की बात है प्‍यार में
नींद नहीं आती सैंयां तेरे इंतज़ार में
होके बेक़रार तुझे ढूंढूं मैं तू कहां खो गया ।।
बाग़ों में बहार आई, होठों पे पुकार आई
आजा आजा आजा मेरी रानी ।।

लंबी लंबी बातें छेड़ें, छोटी सी रात में
सारी बातें कैसे होंगी, इक मुलाकात में
एक ही बात में लो देख लो सबेरा हो गया ।।
बाग़ों में बहार आई, होठों पे पुकार आई
आजा आजा आजा मेरी रानी ।।


आनंद बख्‍शी की आवाज़ नेज़ल है, वो कुछ कुछ नाक से गाते हैं । लेकिन कुछ नया और आकर्षक तो है ही उनकी आवाज़
में । मैं आपको ये भी बताना चाहूंगा कि फिल्‍म-संसार को आनंद बख्‍शी के गाये ज्‍यादा गीत क्‍यों नहीं मिले । मोम की गुडि़या और चरस जैसी फिल्मों में आनंद बख्‍शी के गाने गाने के बाद पता नहीं कैसे फिल्‍म संसार में ये बात फैल गयी कि बख्‍शी साहब जिस फिल्‍म में गीत गाएं वो फ्लॉप हो जाती है । यही वजह थी कि आगे चलकर रमेश सिप्‍पी ने शोले में जो क़व्‍वाली किशोर कुमार, मन्‍नाडे और भूपेन्‍द्र की आवाज़ में रिकॉर्ड की थी उसे फिल्‍म से निकाल दिया गया । ये क़व्‍वाली फिल्‍म के रिकॉर्ड पर तो है लेकिन परदे पर कभी नहीं आ सकी । फिल्‍मी दुनिया में कैसे कैसे अंधविश्‍वास प्रचलित हो जाते हैं । अगर ये बात ना फैली होती तो हमें बख्‍शी साहब के गाये कई और गीत मिल सकते थे । पर अब बख्‍शी साहब नहीं हैं, और हमें इन्‍हीं गानों से तसल्‍ली करनी होगी ।

आनंद बख्‍शी के अनमोल गीतों पर केंद्रित ये अनियमित श्रृंखला जारी रहेगी ।
रेडियोवाणी पर बाईं ओर फरमाईशों और संदेसों का नया विजेट लगाया गया है । इसे आज़माकर देखिएगा ।

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Thursday, September 20, 2007

आईये सुनें उत्‍तरप्रदेश का लोकगीत--जुलम करे मुखड़े पे तिल काला काला



रेडियोवाणी पर लोकगीतों की एक अनियमित श्रृंखला चल रही है ।
पिछले रविवार को आपको सुनवाया था नियामत अली का गाया लोकगीत--पहने कुरता पे पतलून ।
और पता चला कि कई कई लोगों ने इसे सालों बाद सुना । यही तो त्रासदी है लोकगीत अचानक ग़ायब होते चले जा रहे हैं ।
मेरी कोशिश रहेगी कि हर इलाक़े के लोकगीत रेडियोवाणी पर शामिल किये जायें । अगर आप किसी लोकगीत की सिफारिश करना चाहते हैं तो कृपया
अता पता, फाईल वाईल भेजें । ताकि उसे भी रेडियोवाणी पर चढ़ाया जा सके । मैं बड़ी विकलता से कुछ बुंदेली लोकगीतों की तलाश में हूं । लेकिन
चूंकि बुंदेलखंड की ओर जाना हो नहीं रहा है और कोई ऐसा व्‍यक्ति नहीं है जो मुझे ये लोकगीत उपलब्‍ध करा सके । इसलिए यहां निवेदन करना पड़ रहा है ।
क्‍या कोई मुझे बुंदेली लोकगीत उपलब्‍ध करवाएगा । समीर भाई सुन रहे हो बड्डे । कछु करो आर, ऐंसई ने चलहे ।

बहरहाल आज मैं आपके लिए लेकर आया हूं एक और उत्‍तरप्रदेशी लोकगीत । शायद ये भी नियामत अली की आवाज़ है ।
आपकी सुविधा के लिए इसकी भी इबारत लिख दी गयी है ।

इबारत लिखने का सबसे बड़ा कारण है गुनगुनाने में मदद करना ।
मेरी पत्‍नी को भी इस इबारत से सुविधा हो जाती है, और वे इलाहाबाद के दिनों को याद करके ऐसे लोकगीत खूब गुनगुनाती हैं । आप भी गुनगुनाईये । और बताईये कैसा लगा ।






जुलम करे मुखड़े पे तिल काला
ना देखे अंधेरा ना देखे उजाला ।।
जब से देखी सूरतिया प्‍यारी
जियरा पे चलत है मोरे चलत है आरी
हाथ ना आवे मोरे गोरी
लाख जतन कर डाला ।। जुलम करे ।।
गली गली ये शोर मचा है
धरती पर एक चांद उगा है
जिसको देखा उसी को पाया
है तेरा ही मतवाला ।। जुलम करे ।।
सधवों ने छोड़ी सधुवाई
ठकुरन ने छोड़ी ठकुराई
तुमरी जुल्‍मी सूरतिया के कारण
छैलन मां चले तीर भाला ।। जुलम करे ।।
दांव पे लागी है महल अटारी
कहीं के भाग में हो तुम प्‍यारी
अबही से तोरी चाह मां गोरी
कितनों का निकला दीवारा ।। जुलम करे ।।










रेडियोवाणी पर लोकगीतों का अनियमित सिलसिला जारी रहेगा । और हां रेडियोवाणी पर एक विजेट बांयी ओर लगा है । जो संदेसों और फरमाईशों के लिए है, आप इसका उपयोग कर सकते हैं ।


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इस श्रृंखला के अन्‍य लेख--
1. पहने कुरता पे पतलून आधा फागुन आधा जून

2.अंजन की सीटी में म्‍हारो मन डोले

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Wednesday, September 19, 2007

नानी की नाव चली--दादामुनि अशोक कुमार का ये गीत सुनिए । साथ में सुनिए उनके गाये कुछ और अनमोल गीत ।




दादा मुनि अशोक कुमार से मेरी मुलाक़ात उनकी मृत्‍यु से संभवत:साल भर पहले हुई थी । विविध भारती के एक कार्यक्रम के लिए हम उनसे बातें करने गये थे । दादामुनि चेम्‍बूर में यूनियन पार्क में रहते थे । यूनियन पार्क वाले इस बंगले में बाहर भीमकाय दरवाज़ा था, जिसके पार शायद किसी को कुछ नहीं दिखता होगा । भीतर दादा मुनि का साम्राज्‍य था । दादामुनि की कहानी एक छोटे से शहर से बड़े बड़े सपनों को लेकर आए एक व्‍यक्ति की कहानी है जो अपने सपनों को पूरा करते हुए शिखर पर पहुंचता है, लेकिन वहां पहुंचने के बाद उसे पता चलता है कि शिखर पर कितना अकेलापन होता है । सब कुछ हासिल कर लेने के बाद भी जिंदगी में कितना खालीपन होता है । हम दिन भर दादामुनि के घर में थे । उनकी पुरानी तस्‍वीरें, ट्रॉफियां और यादें । कितना कुछ देखा हमने ।

अशोक कुमार ने बताया कि वे कई बरसों से अपने घर की पहली मंजिल से नीचे नहीं उतरे हैं । व्‍हील चेयर पर हैं । यहीं अच्‍छा लगता है । कहने लगे कि सामने जो गोल्‍फ का मैदान दिख रहा है, बस उसे देखकर समय कट जाता है । कभी मैं भी वहां पर गोल्‍फ़ खेलता था । दादमुनि ने अपने छोटे भाई किशोर कुमार को भी भीगी आंखों से याद किया । उनकी शरारतों के बारे में बताया । अपने बचपन के बारे में बताया । अपनी शादी के बारे में बताया । ये भी बताया कि एक ज़माने में इसी घर में परिवार के क़हक़हे गूंजते थे । आज यहां कोई नहीं ।

बहरहाल,जब भी दादमुनि की याद आये तो वो दिन आंखों में तैर जाता है । आज मैं आपको दादामुनि के कुछ गीत सुनावाऊंगा । और शुरूआत उस गीत से करूंगा जो मुझे बेहद पसंद है और मैं इसे बच्‍चों के लिए लिखा गया बेहतरीन गीत मानता हूं । गुलज़ार ने इसे ऋषि दा की फिल्‍म आर्शीवाद के लिए लिखा था । अगर आपने अब तक आर्शीवाद फिल्‍म नहीं देखी तो फौरन इसे खोजकर देखिए । इस गीत की याद भी मुझे कैसे आई बताता हूं ।



परसों मैं चर्चगेट में उपहारों के एक डिपार्टमेन्‍टल स्‍टोर में टहल रहा था । म्‍यूजिक सेक्‍शन में गया तो पाया कि कुछ फिल्‍में रखी हुई हैं । वहां मुझे आर्शीवाद की डी वी डी भी दिखी और अचानक याद आया, अरे इस फिल्‍म को तो मैं भूल ही गया था । बाद में दादामुनि के गीतों को खोजा और अब आपके लिए इन्‍हें रेडियोवाणी की इस पोस्‍ट में पेश किया जा रहा है । दादामुनि को बच्‍चों से बहुत प्रेम था । और आर्शीवाद के इन गानों में वो प्रेम छलक छलक पड़ा है । आपने ज्‍यादातर 'रेलगाड़ी' वाला गीत सुना होगा । पर ये उससे बेहतर गीत है । सुनिए । बड़ी मुश्किल से इसकी इबारत भी पेश कर रहा हूं । जब गाना सुनेंगे तो आपको अहसास होगा कि इसकी इबारत लिखनी कितनी कठिन है ।



नाव चली
नानी की नाव चली
नीना की नानी की नाव चली
लम्बे सफ़र पे ।

सामान घर से निकाले गये
नानी के घर से निकाले गये
इधर से उधर से निकाले गये
और नानी की नाव में डाले गये
(क्या क्या डाले गये)
एक छड़ी एक घड़ी
एक झाडु एक लाडू
एक संदूक एक बंदूक
एक तलवार एक सलवार
एक घोड़े की जीन
एक रोले की जीन
एक घोड़े की नाल
एक धीवर का जाल
एक लहसुन एक आलु
एक तोता एक भालू
एक डोरा एक डोरी
एक गोरा एक गोरी

एक डंडा एक झंडा
एक हंडा एक अंडा ।
एक केला एक आम एक पक्का एक कच्चा
और ...
टोकरी में एक बिल्ली का बच्चा
(म्याऊँ म्याऊँ)

फिर एक मगर ने पीछा किया
नानी की नाव का पीछा किया
नीना के नानी की नाव का पीछा किया
(फिर क्या हुआ)
चुपके से पीछे से
उपर से नीचे से
एक एक सामान खींच लिया
एक बिल्ली का बच्चा
एक केला एक आम
एक पक्का एक कच्चा
एक अंडा एक डंडा
एक बोरी एक बोरा
एक डोरी एक डोरा
एक तोता एक भालू
एक लह्सुन एक आलु
एक धीवर का जाल
एक घोड़े की नाल
एक ढोलक एक बीन
एक घोड़े की जीन
एक अंडा एक डंडा
एक तलवार एक सलवार
एक बंदूक एक संदूक
एक लाडू एक झाडू
एक छड़ी एक घड़ी

(मगर नानी क्या कर रही थी)
नानी थी बिचारी बुड्ढी बहरी
नानी की नींद थी इतनी गहरी
इतनी गहरी (कित्ती गहरी)
नदिया से गहरी
दिन दोपहरी
रात की रानी
ठंडा पानी
गरम मसाला
पेट में डाला
साड़े सोला

पंद्रह एकम पंद्रह दूना तीस तिया पैंतालीस
चौके साठ पन्‍ना पचहत्‍तर छक्‍के नब्‍बे
साती पचौकड़ आठी तीसड़ नमा पतीसड़
गले में रस्सा आ आ ..


ये रहा फिल्‍म झूला का गीत, जिसे ई स्निप्‍स पर हैदराबाद के भाई सागरचंद नाहर ने चढ़ाया है ।

और दादामुनि के गाये गीतों में से एक अनमोल गाना ये भी है । फिल्‍म शौकीन का ये गीत बड़ा मज़ेदार और मीठा है ।


ये है अशोक कुमार का गाया आर्शीवाद फिल्‍म का मशहूर रेलगाड़ी गीत



इसके अलावा अशोक कुमार ने अन्‍य कई फिल्‍मों में गाया है । जिनकी चर्चा हम फिर कभी करेंगे ।



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Sunday, September 16, 2007

पहने कुरता पर पतलून, आधा फागुन आधा जून—आईये सुना जाए उत्तरप्रदेश का ये लोकगीत


बहुत दिनों से बहुत सारे लोकगीत सुनवाने की तमन्ना दिल में हिलोरें ले रही थी । और लग रहा था कि अपने ख़ज़ाने के उन अनमोल लोकगीतों को आप तक पहुंचवाया जाये, जो हैं तो कमाल के, लेकिन आजकल कहीं मिलते नहीं । कोशिश है कि आगे भी ये सिलसिला जारी रहे । पर आज मैं आपको उत्तरप्रदेश का वो लोकगीत सुनवा रहा हूं जो काफी लोकप्रिय रहा है । इसकी पंक्तियां जुमले के तौर पर इस्तेमाल की जाती रही हैं । जहां तक मुझे याद आता है ये नियामत अली की आवाज़ है । लेकिन पक्की तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है । अगर आप इस गायक को पहचानते हैं तो कृपया बताएं । तो सुनिए उत्तरप्रदेश का लोकगीत--




पहने कुरता पर पतलून आधा फागुन आधा जून
लुंगी आई अपने देस, कितनऊ धरे फकीरी भेस
धोती पहुंच गई रंगून, आधा फागुन आधा जून ।।
बाहर फैशन खूब बनावें, हरदम फिल्मी राग सुनावें
मन में बजे गिरामोफून, आधा फागुन आधा जून ।।
घर में चादर है ना लोई, बाबा ना देखे हरदोई
बेटवा चले हैं देहरादून, आधा फागुन आधा जून ।।
बाबा सूखी रोटी खावें, बेटवा अंडा खूब उड़ायें
अम्मां खायें आलू भून,आधा फागुन आधा जून ।।
पहने कुरता पर पतलून आधा फागुन आधा जून ।।



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इस श्रृंखला के अन्‍य लेख--
अंजन की सीटी में म्‍हारे मन डोले

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Wednesday, September 12, 2007

सचिन देव बर्मन की पत्नी मीरा देव बर्मन की दुर्दशा

रेडियो के एक प्रेमी हैं सुजॉय । बड़ी मशक्‍कत से याहू के विविध-भारती नामक गुप्‍स पर रेडियो के कुछ कार्यक्रमों को ट्रान्‍सक्रिप्‍ट करते हैं । इसके अलावा सुजॉय रेडियो और संगीत से जुड़े विमर्श के लिए भी तत्‍पर हैं । तकनीकी-दुनिया में व्‍यस्‍त होने के बावजूद सुजॉय की तत्‍परता कमाल की है । एक दो दिन पहले सुजॉय का ये संदेस मेल मुझे ऑरकुट पर मिला --

Her lineage belies the secluded life she is leading now.
Octogenarian Meera Deb Burman, the wife of legendary Bollywood music
maestro Sachin Deb Burman, is passing unhappy days at an old-age home
in Mumbai.

Once an accomplished singer and dancer herself, Meera was shifted by
S D Burman's daughter-in-law Asha Bhosle to 'Sharan', an old-age home
for the rehabilitation of paraplegics in Mumbai's Vashi area, about
seven months ago, knowledgeable sources say.

"I shall die in the old-age home. I will not go anywhere, although I
am not happy here," Meera, 84, was quoted as saying by her relative
Shukla Dasgupta who recently visited her.

पढ़कर मन खिन्‍न हो गया । फिर आज मुंबई के नवभारत टाईम्‍स में मीरा जैन की ये रिपोर्ट छपी दिखी ।

सुरों के जादूगर और संगीत के कुशल चितेरे एस डी बर्मन की भूली-बिसरी पत्‍नी मीरा देव बर्मन को आज सम्‍मान तलाश रहा है । वह भी ऐसे समय जब वो नवी मुंबई के एक वृद्धाश्रम में अपनी पुरानी यादों के सहारे दिन बिताने को मजबूर हैं । त्रिपुरा सरकार के प्रतिनिधि इसी सप्‍ताह उनका सम्‍मान करने और उन्‍हें एक लाख रूपये का चेक भेंट करने के लिए खासतौर पर मुंबई पहुंच रहे हैं ।

सफल संगीतकार राहुलदेव बर्मन की मां मीरा देव बर्मन को भी संगीत में महारत हासलि थी, ये बात बहुत कम लोग जानते हैं । 1970 तक आते आते बर्मन दा की सेहत जवाब दे गयी थी और वे बिस्‍तर से ही संगीत निर्देशन देते थे । इस समय बेटे को मां की प्रतिभा याद आई और पंचम ने ही अपनी मां को एस डी बर्मन की मुख्‍य सहायक संगीत निर्देशक बनाया ।

1971 से 1975 तक हिंदी फिल्‍मों को मीरा देव बर्मन के संगीत की जानकारी का लाभ मिला । 1971 में 'तेरे मेरे सपने' से शुरू हुआ मीरा देव बर्मन का संगीत सफर अभिमान,मिली,चुपके चुपके तक लोकप्रियता के पायदान चढ़ता गया । अभिमान के कर्णप्रिय संगीत और सार्थक शब्‍दों से सजे गीतों ने जनता को मोह लिया । मीत ना मिला रे मन का,नदिया किनारे हिराय आई कंगना,तेरे मेरे मिलन की ये बेला जैसे गीत उस समय बेहद कामयाब रहे थे । दूसरी तरफ मिली का गीत 'बड़ी सूनी सूनी है ये जिंदगी' ने भी अपना असर कायम किया । गायक संगीतकार और नर्तकी मीरा के साथ सचिन दादा का विवाह 1938 में हुआ था । इसके एक साल बाद ही राहुल देव बर्मन यानी पंचम का जन्‍म हुआ । मात्र नौ साल की उम्र में राहुल ने इस बात का अहसास सचिन दा को करा दिया था कि वे उनके सही उत्‍तराधिकारी हैं । उन्‍हत्‍तर साल की उम्र में पंचम दुनिया को छोड़ गये और उनकी मां मीरा का सूनापन गहरा कर गए ।

कुछ दिनों पहले मीरा की बहू और जानी मानी गायिका आशा भोसले ने नवी मुंबई के एक वृद्धाश्रम 'शरण' को उनका बसेरा बना दिया । जीवन की इस सूनी शाम में उनके गृह-प्रदेश त्रिपुरा की सरकार ने ना केवल 95 वर्षीय इस वृद्धा की सुध ली बल्कि उनका सम्‍मान करने का भी फैसला किया है । इसी इरादे के से त्रिपुरा के सांस्‍कृतिक और पर्यटन मंत्री अनिल सरकार और विभागीय निदेशक सुभाष दास चौदह तारीख को मुंबई पहुंचेगे ।


फिल्‍म-संसार की जानी-मानी हस्तियों का बुढ़ापा किस क़दर त्रासद हो जाता है । इसकी एक बानगी ये खबर पेश करती है ।
कुछ दिनों पहले मैंने रेडियोवाणी पर संगीतकार रामलाल और संगीतकार इक़बाल कुरैशी के बारे में आपको बताया था
कि कैसे वो मुफलिसी के दौर से गुजरते हुए इस दुनिया से चले गये । मुबारक बेगम और शमशाद बेगम जैसी गायिकाएं आज गुमनाम जिंदगी बिता रही हैं ।

क्‍या संगीत के प्रशंसकों का फ़र्ज़ नहीं बनता कि संगीत की दुनिया की इन नामी हस्तियों के बुढ़ापे को सुधारने के लिए कुछ किया जाये । बस इस छोटे से लेकिन अहम सवाल को आप तक पहुंचाना था ।

और अंत में एस डी बर्मन का वो गीत जो कई महीनों पहले इसी ब्‍लॉग पर चढ़ाया गया था ।
एक बार फिर--जीवन दर्शन देखिए इस गीत का ।

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जिंदगी ऐ जिंदगी तेरे हैं दो रूप

बीती हुई रातों की बातों की तू छाया

छाया वो जो बनेगी धूप ।। जिंदगी ऐ जिंदगी तेरे हैं दो रूप ।।

कभी तेरी किरणें थीं ठंडी ठंडी हाय रे

अब तू ही मेरे जी में आग लगाये

चांदनी ऐ चांदनी तेरे हैं दो रूप ।। जिंदगी ऐ जिंदगी तेरे हैं दो रूप ।।

आते जाते पल क्‍या हैं समय के ये झूले हैं

बिछड़े साथी कभी याद आये कभी भूले हैं

आदमी ऐ आदमी तेरे हैं दो रूप ।।

कोई भूली हुई बात मुझे याद आई है

खुशी भी तू लाई थी और आंसू भी तू लाई है

दिल्‍लगी ऐ दिल्‍लगी तेरे हैं दो रूप

कैसे कैसे वादों की तू यादों की तू छाया

छाया वो जो बनेगी धूप ।। जिंदगी ऐ जिंदगी तेरे हैं दो रूप ।।


ये गीत आनंद बख्‍शी ने लिखा है । सन 1972 में आई फिल्‍म जिंदगी जिंदगी के लिए ।

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Sunday, September 9, 2007

आज जगजीत कौर को दो सुनहरे नग्मे—काहे को ब्याही बिदेस और तुम अपना रंजोगम

इन दिनों मैं आपको संगीतकार ख़ैयाम की जीवनसंगिनी जगजीत कौर के सुनहरे नग्‍मे सुनवा रहा हूं ।
जगजीत जी ने ज्‍यादा गीत नहीं गाये लेकिन उनकी आवाज़ में मिट्टी की महक है । उनकी आवाज़ में
एक सादगी है और है एक नमी ।

उनके ये मुट्ठी भर गीत संगीत के क़द्रदानों के लिए अनमोल दौलत की तरह हैं ।

आज मैं आपको उनके दो गीत सुनवा रहा हूं । एक फिल्‍म शगुन का गीत है और दूसरा फिल्‍म उमराव जान का है ।

फिल्‍म शगुन का गीत साहिर लुधियानवी ने लिखा है और उमराव जान की रचना पारंपरिक है ।

शगुन फिल्‍म का गीत लोग आज भी अपने पास संजोकर रखते हैं । इसमें ग़म बांटने की बात कही गयी है ।
बस इतना ही कहना है कि इस गाने के पियानो पर ध्‍यान दीजियेगा ।
पियानो की इतनी शानदार तान कम ही गानों में मिलती है ।

दूसरा गीत बिदाई का गाना है । और इसमें इतनी मार्मिकता है कि आंसू आ जायें ।

आज की इस संक्षिप्‍त पोस्‍ट में गीत सुनिए और बताईये कि कैसे लगे ।



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तुम अपना रंजोग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो
तुम्‍हें ग़म की क़सम इस दिल की वीरानी मुझे दे दो ।।

ये माना मैं किसी क़ाबिल नहीं हूं इन निगाहों में
बुरा क्‍या है अगर ये दुख ये हैराीन मुझे दे दो ।।

मैं देखूं तो सही दुनिया तुम्‍हें कैसे सताती है
कोई दिन के लिए अपनी निगेहबानी मुझे दे दो ।।

वो दिल जो मैंने मांगा था मगर ग़ैरों ने पाया था
बड़ी शय है अगर उसकी पशेमानी मुझे दे दो ।।




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काहे को ब्‍याहे बिदेस अरे लखिया बाबुल मोहे

हम तो बाबुल तोरी बेले की कलियां
अरे घर घर मांगी जाये,

हम तो बाबुल तोरे पिंजरे की चिडि़या
अरे कुहुक कुहुक रटी जायें,

महलां गली सी डोला जो निकला
अरे बीरन ने खाई पछाड़,

भैया को दियो बाबुल महला दुमहला
हमको दियो परदेस,

काहे को ब्‍याहे बिदेस ।।


ललित कुमार जी ने बताया है कि कविता कोश में यहां इस रचना को पूरा पढ़ा जा सकता है ।


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Saturday, September 8, 2007

सुनिए आशा भोसले और गुलाम अली को एक साथ--आशा भोसले के जन्‍मदिन पर विशेष



आज आशा भोसले का चौहत्‍तरवां जन्‍मदिन है ।

आशा भोसले होने का मतलब है लंबा संघर्ष ।

जब बड़ी बहन के रूप में लता मंगेशकर जैसी शख्सियत फिल्‍म-संगीत-संसार में त‍हलका मच रही हों,

जब करियर के हर मोड़ पर आपकी तुलना अपनी बड़ी बहन से की जाए,

जब लता मंगेशकर की सादगी और कलात्‍मकता को श्रेष्‍ठ बताया जाये और आशा की प्रयोगधर्मिता को कम करके आंका जाये,

जब आशा को केवल कैबेरे या दोयम दर्जे के गाने के लिए ही उपयुक्‍त माना जाये,

जब निजी जिंदगी में बहुत कम उम्र में शोषण झेलना पड़े, मां बनना पड़े और बच्‍चों की जिम्‍मेदारी खुद अपने कंधों पर उठानी पड़े
जब आप चौहत्‍तर साल की जिंदगी में अपनी बड़ी दीदी की छाया से निकलकर अपनी एक अलग और ठोस पहचान कायम करें

तो वाक़ई साबित हो जाता है कि आशा भोसले संघर्ष का दूसरा नाम हैं ।

आशा भोसले ने हर तरह के गीत गाकर अपने आप को साबित किया है । और आज इस पोस्‍ट में मैं आपको आशा भोसले की दो बेमिसाल रचनाएं सुनवा रहा हूं । ये इसलिए बेमिसाल हैं कि इन्‍हें आशा भोसले ने गुलाम अली के साथ गाया है । जी हां संगीत के क़द्रदानों को वो अलबम याद होगा जिसमें आशा भोसले ने कुछ रचनाएं गुलाम अली के साथ गाईं थीं और कुछ दोनों कलाकारों के एकल गीत थे । मुझे इस अलबम की सबसे अनोखी बात ये लगती है कि इसके ज़रिए हम दो कालजयी कलाकारों को एक साथ सुन पाते हैं । और वो भी पूरी हार्मनी में । ना तो कोई आक्रामकता, ना कोई मुक़ाबला, ना कोई होड़,
आशा भोसले ने ग़ज़लें कम गायीं हैं । और जिस तरह के सेन्‍सुअस गीत ज्‍यादातर वो गाती रही हैं, वहां से बाहर निकलकर ग़ज़लों या ग़ैरफिल्‍मी गीतों की ख़ामोश कलात्‍मक दुनिया में आना उनके लिए भी काफी चुनौतीपूर्ण और संतोषजनक रहा होगा । ये दोनों रचनाएं पढ़ने में भले सामान्‍य या औसत लगें लेकिन इनको सुनना एक दिव्‍य अनुभव है ।

तो आईये आशा भोसले की विराट प्रतिभा को सलाम करें और उन्‍हें दें जन्‍मदिन की बधाई ।

ये है पहला गीत--नैना तोसे लागे ।

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नैना तोसे लागे,सारी रैना जागे ।
तूने चुराई मोरी निंदिया, तू ही चैन चुराए ।।

मेरी सांसों में लहराए अंग में खुशबू घोले
मीठा मीठा दर्द जगाए नस नस में तू डोले
सांझ सबेरे होंठों पर भी नाम तेरा ही आए ।। नैना तोसे ।।

सावन मास की धूप सा गोरी तेरा रूप सलोना
एक झलक में कर गया रोशन मन का कोना कोना
रंग हज़ारों तूने मेरे जीवन में बिखराए ।। नैना तोसे ।।

मस्‍त हवाएं,शाम सुहानी,भीगी रूत के मेले
सबको तेरी आस हो जैसे सब हैं आज अकेले
आंगन मेरी तन्‍हाई का तुझ बिन कौन सजाए ।। नैना तोसे ।।

तोड़के रस्‍मों की ज़ंजीरें आ दोनों मिल जाएं
सपने महकें, आशाओं के फूल सभी खिल जाएं
जो दोनों के बीच हैं, पल में वो दूरी मिट जाए ।। नैना तोसे



ये नासिर फराज़ की ग़ज़ल है । सुनिए और पढि़ये ।
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गये दिनों का सुराग लेकर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान गया वो ।।

बस एक मोती सी छब दिखाकर
बस एक मीठी सी धुन सुनाकर
सितारा-ए-शाम बनकर आया
बरंगे-ख्‍वाब-सेहर गया वो ।। गये दिनों का ।।

ना अब वो यादों का चढ़ता दरिया
ना फुरसतों की उदास बरखा
यूं ही जरा सी कसक है दिल में
जो ज़ख्‍़म गहरा था, भर गया वो ।। गये दिनों का ।।

वो हिज्र की रात का सितारा
वो हमनफ़स-हमसुख़न हमारा
सदा रहे उसका नाम प्‍यारा
सुना है कल रात मर गया वो ।। गये दिनों का ।।

वो रात का बेनवां मुसाफिर
वो तेरा शायर वो तेरा नासिर
तेरी गली तक तो हमने देखा था
फिर ना जाने किधर गया वो ।। गये दिनों का ।।


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Friday, September 7, 2007

अफलातून जी की पोस्‍ट से हुआ है रेडियोनामा का आग़ाज़

प्रिय मित्रो
रेडियोनामा पर औपचारिक रूप से आज आरंभ कर दिया गया है ।
अफलातून जी ने इस पर अपनी एक पोस्‍ट डाली है जिसका शीर्षक है--रेडियो आशिक़ भगवान काका ।

रेडियोनामा रेडियो की बातों और यादों का ब्‍लॉग है । यानी रेडियो विमर्श का ब्‍लॉग
इस ब्‍लॉग के बारे में मैंने अपने इसी ब्‍लॉग पर एक पोस्‍ट लिखी थी । जिसमें रेडियोनामा की योजनाओं के बारे
में विस्‍तार से बताया गया है । ।
इसे आप यहां पढ़ सकते हैं ।

रेडियोनामा एक सामूहिक ब्‍लॉग है । इसे आप सभी के सहयोग की जरूरत है ।
आप भी इससे जुड़ सकते हैं ।
बहुत स्‍वागत ।

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जगजीत कौर के सुनहरे नग्‍मे---देख लो आज हमको जी भरके--फिल्‍म बाज़ार का गीत



रेडियोवाणी पर मैंने पहले भी गायिका जगजीत कौर का जिक्र किया है । जगजीत कौर ने बहुत गाने नहीं गाए, लेकिन उनके ये मुट्ठी भर गीत फिल्‍म-संगीत के क़द्रदानों के लिए उनके गाने अनमोल दौलत की तरह हैं । जहां तक मुझे याद आ रहा है, हाल ही में महफिल वाले भाई सागर चंद नाहर ने जगजीत कौर का एक गीत अपने ब्‍लॉग पर चढ़ाया था । आज मैं आपके लिए जगजीत कौर का बेमिसाल गीत लेकर आया हूं ।

इस तस्‍वीर हैं संगीतकार खैयाम, उनकी पत्‍नी और गायिका जगजीत कौर और गीतकार साहिर लुधियानवी ।



सन 1982 में सागर सरहदी ने एक फिल्‍म बनाई 'बाज़ार' । फारूख़ शेख़, नसीरउद्दीन शाह, स्मिता पाटील और सुप्रिया पाठक जैसे कलाकारों के अभिनय से सजी थी ये फिल्‍म । इस फिल्‍म के संवाद भी कमाल के थे । अगर आप इस फिल्‍म का कैसेट या सी.डी. ख़रीदते हैं तो पायेंगे कि गानों से पहले कुछ संवाद भी सुनाई देते हैं । मैं कोशिश करूंगा कि आगे चलकर आपको 'बाज़ार' के कुछ सीन दिखाऊं । फिल्‍हाल तो इस गाने की बातें ।

ये मशहूर शायर मिर्ज़ा शौक़ ने लिखा है । दरअसल ये उनकी एक मशहूर रचना है । मेरी जानकारी के मुताबिक़ मिरज़ा शौक़ का ताल्‍लुक़ लखनऊ के किसी नवाबी ख़ानदान से था । बहरहाल, उनकी इस रचना का इस्‍तेमाल किया सागर सरहदी ने फिल्‍म 'बाज़ार' में ।

फिल्‍म 'बाज़ार' का संगीत ख़ैयाम का था । ये ख़ैयाम के सर्वश्रेष्‍ठ काम में से एक है । और आगे चलकर मैं इस फिल्‍म के सभी गीत एक-एक करके आपको सुनवाऊंगा । ख़ैयाम ने इस गाने के लिए अपनी शरीके-हयात जगजीत कौर का इंतख़ाब किया । और जगजीत कौर ने इसका हक़ भी बड़ी खूबसूरती से अदा किया । हिंदी फिल्‍म संगीत संसार का एक अदभुत गीत । कुल जमा चार मिनिट में ये गीत आप पर ऐसा जादू कर देगा कि इसे आप बार बार सुनना चाहेंगे ।


सुनिये और पढि़ये ये गीत--






देख लो आज हमको जी भरके
कोई आता नहीं है फिर मरके ।।

हो गये तुम अगरचे सौदाई
दूर पहुंचेगी मेरी रूसवाई ।। देख लो

आओ अच्‍छी तरह से कर लो प्‍यार
के निकल जाए कुछ दिल का बुख़ार ।। देख लो

फिर हम उठने लगे बिठालो तुम
फिर बिगड़ जायें हम मनालो तुम ।। देख लो

याद इतनी तुम्‍हें दिलाते जायें
आग कल के लिये लगाते जायें ।। देख लो



यहां देखिए--



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बाजार ,
जगजीत कौर ,
खैयाम

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