फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' पर मेरी पोस्ट और उसके बाद हुई संदर्भों की सैर
आपको याद होगा-मैंने फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' के पचास वर्ष पूरे होने पर एक पोस्ट लिखी थी । जिसमें बताया था कि इस फिल्म की कहानी वी शांताराम के दोस्त जी डी माडगुळकर का जिक्र किया था । चूंकि मराठी भाषा और साहित्य से बहुत मामूली सा परिचय है इसलिए ना तो मैं माडगुळकर जी को जानता था और ना ही उनके नाम का सही उच्चारण जानता था । इसलिए ब्लॉग और रेडियो के ज़रिए मित्र बने भाई विकास शुक्ला ने मुझे तुरंत ज्ञान बिड़ी पिलाई ( नये लोग कृपया ज्ञान बिड़ी का संदर्भ समझ लें, जब भी कोई गंभीरता से ज्ञानवर्धन करे तो हम उसे टॉर्च दिखाने वाला या ज्ञान बिड़ी पिलाने वाला कहते हैं,रोज़ इलाहाबाद से ज्ञानदत्त जी हमें ज्ञानबिड़ी पिलाते हैं । टॉर्च दिखाने का संदर्भ परसाई जी की कहानी 'टॉर्च बेचने वाला' से हमारी जिंदगी में आया है )और ये टिप्पणी की ।
युनूस भाई,
आप बडे ही रोचक और दिलचस्प विषय निकाल लाते है.
ये फिल्म हमारे ही थिएटर में लगी थी और खूब चली थी. मै तब छोटा था मगर इसे रोज देखता था. इस फिल्म के सारे गीत मुझे याद हो गये थे जो अब तक याद है.इस फिल्म के कहानीकार का नाम आपने थोडा-सा गलत लिखा है. आपको मराठी साहित्य के बारे में ज्यादा जानकारी होना वैसे भी असंभव है. उनका नाम था " ग. दि. माडगूळकर".उन्हे मराठी का वाल्मिकी कहा जाता था. उनकी लिखी और सुधीर फडके द्वारा संगीत देकर गायी गयी "गीतरामायण " ये रामायण पर आधारित गीतों की शृंखला महाराष्ट्र मे गजब की लोकप्रिय थी और गीतरामायण के रिकार्ड का सेट अपने घरमे रखना एक प्रतिष्ठा की वस्तू मानी जाती थी.मराठी फिल्मों के इतिहास में ग.दी. माडगूळकर, राजा परांजपे और सुधीर फडके इन तीनों ने मिलके बडी लंबी इनिंग खेली है और बडी यादगार फिल्मे दी है.
इसे पढ़ते ही दिल में घंटी बजी । खासकर 'हमारे ही थियेटर में लगी थी' वाले वाक्य से । मैंने तुरंत विकास शुक्ल को संदेस भेजा । इस मामले पर प्रकाश डालें और माडगुळकर जी के बारे में ज्ञान दें । विकास भाई ने हमारा निवेदन स्वीकार किया और जो कुछ लिखा उसे वैसा का वैसा आपके सामने पेश कर रहा हूं । दिलचस्प बात ये है कि कई बार जीवन में संदर्भों की कडि़यां कहानी को कहां से कहां ले जाती हैं । मैं आज इस पोस्ट के साथ फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' के शेष गीत देना चाह रहा था । लेकिन विकास ने कुछ ऐसे गीतों का जिक्र किया है, जिन्हें मैंने जन्म-जिंदगी मे कभी नहीं सुना । लेकिन फिर खोजा तो मिल गये ।
युनूस भाई,
आपकी प्रतिक्रिया के बारे में धन्यवाद. चालीसगांव नाम का छोटा सा शहर है जो महाराष्ट्र के जलगांव जिले में हैं. मैं वहीं पर जन्मा, पढ़ा लिखा, बड़ा हुआ और आज भी वहीं पर रहता हूं. १९५२ में मेरे पिताजी ने,जो कि पेशे से वकील थे, यहां पर सिनेमा थिएटर शुरू किया. पहली फिल्म लगी थी 'गुळाचा गणपती'. यह फिल्म मराठी के बेजोड लेखक कै. पु.ल.देशपांडे द्वारा बनाई गई थी. लेखन, दिग्दर्शन, संगीत और अभिनय सब कुछ पु.ल. का था. वे मराठी के पी.जी.वुडहाउस माने जाने थे और बेहद लोकप्रिय रहे. आज तक वैसी लोकप्रियता कोई हासिल नही कर सका है. इस फिल्म का एक गीत ग.दि.माडगुळकरजी ने लिखा था और पं.भीमसेन जोशी जी ने गाया था जो आज तक कमाल का लोकप्रिय है. शायद आपने भी सुना हो.'इंद्रायणी काठी, देवाची आळंदी, लागली समाधी, ज्ञानेशाची.' Get this widget | Track details | eSnips Social DNA
मेरा जन्म १९५८ मे हुआ । उसके पहले अनारकली, नागिन आदि हिट फिल्मे हमारे ही थिएटर में प्रदर्शित हुई और री-रन होती गयी. मेरी मां जब उनकी यादें सुनाती थी तब हम बच्चे सुनते रह जाते थे. नागिन के 'मन डोले मेरा तन डोले' गीत में जब बीन बजती थी तब लोग पागल हो जाते थे और परदे पर पैसे बरसाते थे. किसी मनोरुग्ण दर्शक के शरीर में नागदेवता पधारते थे और वो नाग-सांप की तरह जमीन पर लोटने लगता था.हमारा बचपन तो बस फिल्में देखते देखते ही गुजरा. कोई भी फिल्म कम से कम ३-४ हफ्ते तो चलती ही थी. हमारे थिएटर के अलावा और २ थिएटर्स थे । हमारी वाली देखकर बोर हो गये तो वहां चले गये.
१९८६ मे अंतरधर्म विवाह के बाद मै परिवार से अलग हो गया और थिएटर से संबंध नही रहा. १९९९ मे पिताजी और छोटे भाई की मृत्यू के बाद फिर थिएटर की जिंम्मेदारी मुझ पर आ गयी. लेकिन तब तक सिंगल स्क्रीन थिएटर्स मृत्यूशैया पर पहुंच चुके थे. स्टेट बैंक की मेरी नौकरी छोडकर मैंने थिएटर का बिजनेस चलाने की कोशिश की. मगर बिजनेस डूबती नैय्या बन चुका था. सो गत वर्ष उसे हमेशा के लिये बंद कर दिया.
ग.दि.माडगुळकर जी के बारे में जी करता है आपको सामने बिठाऊं और उनकी मराठी कविताओं का रसपान करवाऊं ।
वे इन्स्टंट शायर थे. चुटकी बजाते ही गीत हाजिर कर देते थे. और वो भी कमाल की रचना. आज उनकी बस एक ही बात कहुंगा. सी. रामचंद्र जी ने एक मराठी फिल्म बनाई थी. घरकुल. जो मैन-वुमन एण्ड चाइल्ड पे आधारित थी. शेखर कपूर की मासूम भी उसी पर आधारित है. उसका संगीत भी उन्हीं ने दिया था. इस फिल्म में माडगुळकरजी की एक कविता का इस्तमाल किया गया था. कविता का नाम था 'जोगिया' (ये हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक राग है) तवायफ की महफिल खत्म हो जाने के बाद जो माहौल बचता है उसका वर्णन किया गया है इस कविता में. प्रारंभ के बोल है 'कोन्यात झोपली सतार, सरला रंग...पसरली पैंजणे सैल टाकुनी अंग ॥ दुमडला गालिचा तक्के झुकले खाली...तबकात राहिले देठ, लवंगा, साली ॥ ये गीत फैय्याज जी ने गाया है. फैय्याज उप-शास्त्रीय संगीत गाती है और नाट्य कलाकार है.) शब्दों का मतलब और कविता का भाव शायद आपकी समझ मे आ रहा होगा. ये गीत या ये पूरी कविता अगर मुझे मिली तो मै आपको जरूर सुनाऊंगा और हिंदी में मतलब समझाऊंगा. कमाल का गाना है.
सी.रामचंद्रजी ने कमाल का संगीत दिया है.
इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद मुझे मडगुळकर की कविता तो मिल गयी । ये रहा अता-पता
http://gadima.com/jogia/index.php
जहां जाकर आप रीयल प्लेयर पर इसे सुन सकते हैं ।
लेकिन ये फैयाज़ वाला संस्करण नहीं है । और हां अगर आप मडगुळकर के बारे में ज्यादा जानना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें । या फिर यहां जायें--http://gadima.com/ ये ग डि माडगुळकर पर केंद्रित वेबसाईट है । खेद है कि हिंदी में ऐसा काम ज्यादा क्यों नहीं हो रहा है ।
दो आंखें बारह हाथ का संदर्भ जारी है । जल्दी ही इस फिल्म के बचे हुए गीत लेकर हाजिर होता हूं ।
कहानी कहां से चली और कहां पहुंच गयी । संदर्भों की सैर आपको कैसी लगी ।
इस संदर्भ की पहली पोस्ट--वी शांताराम की फिल्म दो आंखें बारह हाथ को हुए पचास साल
