संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Saturday, August 11, 2007

ज्ञान जी की छुट्टी और जयशंकर प्रसाद का गीत आशा भोसले की आवाज़ में


आज बड़ी माथापच्‍ची की । दरअसल मेरी इस पोस्‍ट का शीर्षक होना चाहिये था—ज्ञान जी की छुट्टी और शंकर हुसैन फिल्‍म के बाकी गाने । क्‍योंकि आज सबेरे पता चला कि रेलगाड़ी वाले ज्ञान जी छुट्टी मना रहे हैं तो सोचा शंकर हुसैन फिल्‍म के गानों की अपनी श्रृंखला को पूरा कर दिया जाए । एक गाना तो कहीं से प्राप्‍त हो गया लेकिन दूसरा कमबख्‍त चल नहीं रहा, म्‍यूजिक इंडिया ऑन लाइन पर आज कोई गड़बड़ है । ये गाना वहीं उपलब्‍ध है । इसलिये ये पोस्‍ट तो हुई मुल्‍तवी ।


बहरहाल—इस बीच मुझे आशा भोसले की आवाज़ में एक अद्भुत रचना मिल गयी ।
शायद कभी विकास ने इसकी चर्चा की थी । संगीतकार जयदेव ने आशा भोसले का एक अलबम तैयार किया था । इसमें महादेवी वर्मा का एक गीत था, एक जयशंकर प्रसाद का गीत और शायद बाकी मीरा के भजन थे । ये रिकॉर्ड विविध भारती में तो है । लेकिन इंटरनेट पर मुझे केवल जयशंकर प्रसाद की रचना ही मिल सकी ।

सुनिए- आशा जी ने‍ कितना अद्भुत गाया है । थोड़े दिन पहले मैं ने पाब्‍लो नेरूदा वाली पोस्‍ट पर कहा था कि क्‍या हमारे यहां साहित्यिक रचनाओं का मशहूर लोग वाचन नहीं कर सकते । फिर ये तो गायन है । लेकिन इसके बाद ऐसा हुआ क्‍यों नहीं ये विचारणीय है ।

जब आप इसे सुनेंगे तो पायेंगे कि आशा जी ने ‘कलह’ को कलय गाया है । शायद धुन की मजबूरी रही होगी । पर इस रचना को सुनना एक अविस्‍मरणीय अनुभव है ।

ज्ञान जी सुन रहे हैं ना ।

इस गीत को सुनने के लिए यहां क्लिक करें

तुमुल-कोलाहल-कलह में मैं हृदय की बात रे मन
विकल होकर नित्‍य-चंचल, खोजती जब नींद के पल
चेतना थक-सी रही तब मैं मलय की वात रे मन
तुमुल-कोलाहल-कलह में मैं हृदय की बात रे मन ।।

चिर-विषाद-विलीन मन की इस व्‍यथा के तिमिर-वन की
मैं उषा सी ज्‍योति-रेखा, कुसुम विकसित प्रात रे मन
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाटियों की, मैं सरस बरसात रे मन ।
पवन की प्राचीर में रूक, जला जीवन जी रहा झुक
इस झुलसते विश्‍व-दिन की, मैं कुसुम-ऋतु रात रे मन
चिर निराशा नीरधर से, प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर-मरंद-मुकुलित, मैं सजल जलजात रे



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6 comments:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` August 11, 2007 at 8:21 PM  

युनूस भाई,
शुध्ध हिन्दी कविता को लयकारी मेँ बाँध कर गाना कई बार मुश्किल हो जाता है -
आशा जी का प्रयास सराहनीय है --
हाँ , "कलय " बोलकर, " कलह " न बोलना एक भूल है !
जिसे शायद किसीने सुधारा नहीँ - खैर !
दूसरी कई सारी सुँदर हिन्दी कवितायेँ स्वर बध्ध हो जाये
तो उनकी लोकप्रियता भी बढती जायेगी - आप उस दिशा मेँ काम करिये ये मेरा नम्र सुझाव है --
- इसे प्रेषित करने का आभार -
स -स्नेह, -लावण्या

Manish Kumar August 11, 2007 at 9:39 PM  

मन खुश कर दिया आपने इसे सुनाकर ! शुक्रिया !

Gyan Dutt Pandey August 12, 2007 at 7:39 AM  

जयशंकर प्रसाद जी को पढ़ा और गाया. पर गायन सुनना तो अलौकिक अनुभव था.
आज तो प्रसाद जी की जो पुस्तकें पास में हैं - उन्हे जरूर पुन: खोलूंगा!

Anonymous,  August 13, 2007 at 7:36 PM  

मैं तो आशा जी की आवाज़ में इतना खो गया -- इतना मुग्ध हो गया -- था कि उस गलती की तरफ़ ध्यान ही नहीं गया जिसकी ओर लावण्या जी ने सही इंगित किया है .

Pratyaksha August 17, 2007 at 11:45 PM  

बहुत दिनों बाद सुना ये गीत । पुराने दिन याद आ गये ।
मधुरानी की कोई गज़ल कभी मिले तो सुनवायें ।

मीनाक्षी September 17, 2007 at 8:04 PM  

सलाम वालेकुम युसूफ़ जी
रमादान करीम
आपके चिट्ठों में जाकर लगता है जैसे मैं अपने ही देश में बैठी हूँ।

बहुत बढ़िया ।

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