ज्ञान जी की छुट्टी और जयशंकर प्रसाद का गीत आशा भोसले की आवाज़ में
आज बड़ी माथापच्ची की । दरअसल मेरी इस पोस्ट का शीर्षक होना चाहिये था—ज्ञान जी की छुट्टी और शंकर हुसैन फिल्म के बाकी गाने । क्योंकि आज सबेरे पता चला कि रेलगाड़ी वाले ज्ञान जी छुट्टी मना रहे हैं तो सोचा शंकर हुसैन फिल्म के गानों की अपनी श्रृंखला को पूरा कर दिया जाए । एक गाना तो कहीं से प्राप्त हो गया लेकिन दूसरा कमबख्त चल नहीं रहा, म्यूजिक इंडिया ऑन लाइन पर आज कोई गड़बड़ है । ये गाना वहीं उपलब्ध है । इसलिये ये पोस्ट तो हुई मुल्तवी ।
बहरहाल—इस बीच मुझे आशा भोसले की आवाज़ में एक अद्भुत रचना मिल गयी ।
शायद कभी विकास ने इसकी चर्चा की थी । संगीतकार जयदेव ने आशा भोसले का एक अलबम तैयार किया था । इसमें महादेवी वर्मा का एक गीत था, एक जयशंकर प्रसाद का गीत और शायद बाकी मीरा के भजन थे । ये रिकॉर्ड विविध भारती में तो है । लेकिन इंटरनेट पर मुझे केवल जयशंकर प्रसाद की रचना ही मिल सकी ।
सुनिए- आशा जी ने कितना अद्भुत गाया है । थोड़े दिन पहले मैं ने पाब्लो नेरूदा वाली पोस्ट पर कहा था कि क्या हमारे यहां साहित्यिक रचनाओं का मशहूर लोग वाचन नहीं कर सकते । फिर ये तो गायन है । लेकिन इसके बाद ऐसा हुआ क्यों नहीं ये विचारणीय है ।
जब आप इसे सुनेंगे तो पायेंगे कि आशा जी ने ‘कलह’ को कलय गाया है । शायद धुन की मजबूरी रही होगी । पर इस रचना को सुनना एक अविस्मरणीय अनुभव है ।
ज्ञान जी सुन रहे हैं ना ।
इस गीत को सुनने के लिए यहां क्लिक करें
तुमुल-कोलाहल-कलह में मैं हृदय की बात रे मन
विकल होकर नित्य-चंचल, खोजती जब नींद के पल
चेतना थक-सी रही तब मैं मलय की वात रे मन
तुमुल-कोलाहल-कलह में मैं हृदय की बात रे मन ।।
चिर-विषाद-विलीन मन की इस व्यथा के तिमिर-वन की
मैं उषा सी ज्योति-रेखा, कुसुम विकसित प्रात रे मन
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाटियों की, मैं सरस बरसात रे मन ।
पवन की प्राचीर में रूक, जला जीवन जी रहा झुक
इस झुलसते विश्व-दिन की, मैं कुसुम-ऋतु रात रे मन
चिर निराशा नीरधर से, प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर-मरंद-मुकुलित, मैं सजल जलजात रे
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6 comments:
युनूस भाई,
शुध्ध हिन्दी कविता को लयकारी मेँ बाँध कर गाना कई बार मुश्किल हो जाता है -
आशा जी का प्रयास सराहनीय है --
हाँ , "कलय " बोलकर, " कलह " न बोलना एक भूल है !
जिसे शायद किसीने सुधारा नहीँ - खैर !
दूसरी कई सारी सुँदर हिन्दी कवितायेँ स्वर बध्ध हो जाये
तो उनकी लोकप्रियता भी बढती जायेगी - आप उस दिशा मेँ काम करिये ये मेरा नम्र सुझाव है --
- इसे प्रेषित करने का आभार -
स -स्नेह, -लावण्या
मन खुश कर दिया आपने इसे सुनाकर ! शुक्रिया !
जयशंकर प्रसाद जी को पढ़ा और गाया. पर गायन सुनना तो अलौकिक अनुभव था.
आज तो प्रसाद जी की जो पुस्तकें पास में हैं - उन्हे जरूर पुन: खोलूंगा!
मैं तो आशा जी की आवाज़ में इतना खो गया -- इतना मुग्ध हो गया -- था कि उस गलती की तरफ़ ध्यान ही नहीं गया जिसकी ओर लावण्या जी ने सही इंगित किया है .
बहुत दिनों बाद सुना ये गीत । पुराने दिन याद आ गये ।
मधुरानी की कोई गज़ल कभी मिले तो सुनवायें ।
सलाम वालेकुम युसूफ़ जी
रमादान करीम
आपके चिट्ठों में जाकर लगता है जैसे मैं अपने ही देश में बैठी हूँ।
बहुत बढ़िया ।
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