संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Friday, November 16, 2007

छुपाकर मेरी आंखों को और छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा -आज सुनिए रेडियोसखी ममता सिंह के दो पसंदीदा गीत



रेडियोवाणी संगीत का मंच है ।

हम गीत-संगीत के शैदाई हैं । इसीलिए जब रेडियोवाणी पर कोई बेक़रारी से किसी गीत की फ़रमाईश करता है तो हम खुद को रोक नहीं पाते और खोज बीन कर वो गीत सुनवाने की कोशिश करते हैं । कुछ लोगों की फरमाईशें अभी तक समय के अभाव के कारण या गीतों की उपलब्‍धता की वजह से पूरी नहीं हो सकी हैं । बहरहाल आज हम रेडियोवाणी के एक ख़ास पाठक बल्कि कहें कि पाठिका की फ़रमाईश पूरी कर रहे हैं । उनकी जो दूसरों की फ़रमाईशें रेडियो पर सुनवाती हैं । फ़रमाईश सुनवाने वाला अगर कोई फ़रमाईश करे तो वो ख़ास बन जाती है । फिर आप ये भी समझ सकते हैं कि अगर पत्‍नी फ़रमाईश करे तो उसे पूरा कर देने में ही भलाई है । ज्‍यादा बातें ना बनाते हुए सीधे ही बता दें कि आज आपको रेडियो-सखी ममता सिंह की पसंद के दो गीत सुनवाए जा रहे हैं ।

सन 1957 में एक फिल्‍म आई थी जिसका नाम था भाभी । ये मद्रास के AVM प्रोडक्‍शन की पेशक़श थी । निर्देशक थे कृष्‍ण पंजू और कलाकार थे-अनवर, बलराज साहनी, दुर्गा खोटे, जगदीप, नंदा, श्‍यामा वग़ैरह । राजेंद्र कृष्‍ण ने इसके गीत लिखे थे और इन्‍हें संगीत से संवारा था चित्रगुप्‍त ने । सच मानिए ये सामाजिक फिल्‍म अपने संगीत की वजह से ही आज तक याद की जाती है । चित्रगुप्‍त ने इस फिल्‍म के संगीत में वाक़ई कमाल कर दिया था । ये रही इस फिल्‍म के गीतों की सूची ।

चल उड़ जा रे पंछी- मो. रफी
चली चली रे पतंग मेरी चली रे-लता रफ़ी
छुपाकर मेरी आंखों को-लता रफ़ी
जवान हो या बुढि़या-रफी
कारे कारे बादरा-लता
टाई लगा के माना बन गये नवाब-शायद लता

बहरहाल, इन्‍हीं गीतों में से एक है रेडियोसखी ममता का पसंदीदा गीत और वो है--छुपाकर मेरी आंखों को वो पूछें कौन हैं जी हम । राजेंद्रकृष्‍ण ने इस गीत में जीवन की जिस छोटी सी भावना को पकड़ा है, उसे कविताओं में भले ही पिरोया गया हो पर कहीं भी फिल्‍मी गीतों में नहीं पिरोया जा सका । ये गाना अपने बोलों और अपने भव्‍य संगीत की वजह से ख़ास है । अब आप सोच रहे होंगे कि इस गीत में ऐसी क्‍या भव्‍यता है । ज़रा इसे सुनिए और इसके ऑरकेस्‍ट्रेशन पर ध्‍यान दीजिए , ठेठ भारतीय शैली है, ऐसा नहीं है कि वेस्‍टर्न साज़ नहीं हैं । पर जिस तरह का संयोजन है, ढोलक की जैसी चाल है । वाक़ई मन वाह वाह करने लगता है । लता मंगेशकर और मो. रफ़ी ने इस गीत को बड़ी ही सहजता से गाया है । इसे भी मैं बेहद संक्रामक गीतों में शामिल करूंगा । एक बार सुन लीजिए, दिन भर इसे गुनगुनाते रहेंगे और आपको समझ ही नहीं आयेगा कि आखिर क्‍या बात है कि ये गीत दिलोदिमाग़ पर तारी हो गया है । आपको ये भी बताना चाहूंगा कि ये गीत बरसों बरस से मेरे मोबाइल की रिंग टोन के रूप में बज रहा है । लेकिन इसे कुछ इस तरह संयोजित किया गया है कि केवल ममता जी के फोन करने पर ही बजे । ये रहे बोल और ये रहा गीत ।

छुपाकर मेरी आंखों को वो पूछें कौन हैं जी हम
मैं कैसे नाम लूं उनका जो दिल में रहते हैं हरदम ।।

ना जब तक देख लें वो दिल तो कैसे एतबार आए
तुम्‍हारी इस अदा पर भी हमारे दिल को प्‍यार आए
तुम्‍हारी ये शिकायत भी मुहब्‍बत से नहीं है कम
छुपाकर मेरी आंखों को ।।

नहीं हम यूं ना मानेंगे, तो कैसे तुमको समझाएं
दिखा दो दिल हमें अपना, कहां से दिल को हम लाएं
के दे रखा है वो तुमको दिखा सकते हैं कैसे हम
छुपाकर मेरी आंखों को ।।

दिया था किसलिए बोलो, अमानत ही तुम्‍हारी थी
ये जब तक पास था अपने, अजब सी बेक़रारी थी
चलो छोड़ो गिले शिकवे, हुआ है चांद भी मद्धम
छुपाकर मेरी आंखों को ।।



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और अब रेडियोसखी की पसंद का दूसरा गीत ।

ये फिल्‍म ममता से है । जो सन 1966 में आई थी । बांगला निर्देशक असित सेन ने इसे बनाया था । अभिनेता असित सेन समझने की भूल ना कीजिएगा । इस फिल्‍म के सितारे थे अशोक कुमार और सुचित्रा सेन । इस फिल्‍म के गीत हमारे प्रिय शायर मजरूह सुल्‍तानपुरी ने लिखे थे और संगीतकार थे रोशन । ये फिल्‍म ना केवल अपने गीतों बल्कि अपनी कहानी की वजह से हिंदी सिनेमा की एक कालजयी फिल्‍म मानी जाती है । इसके भी सारे गाने कमाल के हैं । जैसे- इन बहारों में अकेले ना फिरो, रहें ना रहें हम या फिर छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा ।

आज मैं आपको सुनवा रहा हूं तीसरा गीत--छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा ।
ये सचमुच एक दिव्‍य गीत है । एक तो हेमंत कुमार की संत सरीखी आवाज़ । उस पर लता जी का नाज़ुक सा साथ । संगीत तो जैसे है भी और नहीं भी । अगर ऐसा होता है तो बहुत अच्‍छा होता है । लगे कि संगीत है भी और नहीं भी ।
इस गाने को पिछले चालीस सालों में इतने बार सुना और खोजा गया है कि पूछिये मत । बहुत कम विरले लोग ऐसे होंगे जिन्‍हें ये पसंद ना आए । चलिए इसे सुना जाये ।

छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा
के जैसे मंदिर में लौ दिए की ।।
तुम अपने चरणों में रख लो मुझको
तुम्‍हारे चरणों का फूल हूं मैं
मैं सर झुकाए खड़ी हूं प्रीतम
के जैसे मंदिर में लौ दिये की ।।

ये सच है जीना था पाप तुम बिन
ये पाप मैंने किया है अब तक
मगर है मन में छबि तुम्‍हारी
के जैसे मंदिर में लौ दिए की ।।

के आग बिरहा की मत लगाना
के जलके मैं राख हो चुकी हूं
ये राख माथे पे मैंने रख ली
के जैसे मंदिर में लौ दिए की ।।

छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा ।।




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तो ये थे रेडियोसखी ममता के दो पसंदीदा गीत । बताईये क्‍या ये गीत आपको भी पसंद आए । चलते चलते बता दूं कि ऊपर की तस्‍वीर में हैं रेडियोसखी ममता सिंह और गायिका सुनिधि चौहान ।


चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: रेडियोसखी, ममता, फिल्‍म-ममता, फिल्‍म-भाभी, रफी, लता, रोशन, चित्रगुप्‍त, राजेंद्र-कृष्‍ण, मजरूह,

17 comments:

Gyan Dutt Pandey November 16, 2007 at 2:58 PM  

यह - 'छुपा लो यूं दिल में प्‍यार मेरा' मुझे भी बहुत मधुर गीत लगता है। बहुत सरल शब्द हैं और बहुत सुन्दर भाव।

Sagar Chand Nahar November 16, 2007 at 4:36 PM  

दोनों ही गाने बहुत मधुर हैं, संगीत भी बहुत कमाल का है। सचमुच ये दोनो ही गाने बहुत संक्रामक हैं...
दोनों ही क्यों भाभी फिल्म के तो लगभग सारे गाने इस तरह के हैं, एक बा सुनने के बाद हम अन्जाने में गाने गुनगुनात रहते हैं और हमें पता भी नहीं होता।
आज आपको नहीं ममता जी को धन्यवाद कहेंगे कि उनकी फरमाईश चलते हमें भी मधुर गीत सुनने को मिले।

arachana November 16, 2007 at 4:47 PM  

very nice, such men dono hee geet bahut achche hai aur maze ki baat ye hai ki mere mobile men bhi ye dono hi song feed hai aur din men kam se kam ek baar to sune hi jaten hai par computer par inhen sunvane ke hiye aapka bahut-bahut dhanyvad

Voice Artist Vikas Shukla विकासवाणी यूट्यूब चॅनल November 16, 2007 at 6:28 PM  

युनूसभाई,
रेडिओवाणी पे ममताजी का हार्दिक स्वागत है. उम्मीद करते है दो चार पोस्ट वो भी लिखे तो और मजा आ जाये.
गाने तो वाकईमें बडे ही सुमधुर है. मुझे दूसरेसे पहला जादा पसंद है. ममता फिल्म का गीत पसंद ना होनेकी वजह पर्सनल है. हुवा यूं की हमारी थिएटरमें ये पिक्चर चार या पांच बार लगी थी. जैसा ही ये गीत शुरू हुवा के लोग उठकर बाहर निकल आते थे. इसीलिये ये गीत चाहे कितना भी मीठा और खूब हो, उसके साथ जुडी हुवी यादोंकी वजहसे हम उसका पूरा पूरा मजा नही ले पाते.

पारुल "पुखराज" November 16, 2007 at 7:41 PM  

dono hi geet apni apni jagah khuubsurat hain,magar MAMTAA picture ka ye geet jab kabhi sunti huun to na jaaney kyu kahin AARTI honey sa ehsaas hota hai.....sundar geeton ke liye bahut shukriya yunus ji

Anonymous,  November 16, 2007 at 8:01 PM  

’हाफ़ टिकट’,’भाभी’ और फिर ’ ममता ’ !

ताज़्ज़ुब हो रहा है !!.......

....इस बात पर कि कहीं आप चोरी छुपे मेरे घर में सेंध तो नहीं लगा रहे ?

बात यह है कि इन सभी फ़िल्मों की वी०सी०डी० मेरे निजी संग्रह में मौज़ूद हैं और फ़िल्में देखने के अलावा ’ पी०बी०सी० मोड ’ की बदौलत जब चाहे इन फ़िल्मों के केवल मन चाहे गीतों का आनन्द भी लेता रहता हूं ।

भला आप / ममता जी की पसन्द मेरी पसन्द जैसी कैसे ?

-वही

Manish Kumar November 16, 2007 at 9:31 PM  

भाई ये मामला एकतरफा है. ये नहीं कि पहले गीत की शान में आपने जो लिखा वो गलत है पर हेमंत कुमार और लता का ये गीत अद्भुत है, मन को दूसरे धरातल पर ले जाता है जहाँ प्रेम सर्वोपरि है बाकी सब कुछ गौण।

mamta November 17, 2007 at 11:05 AM  

गीत तो दोनो ही मधुर और प्यार की भावना से ओत -प्रोत है। और हाँ रेडियोसखी ममता कब अपना ब्लॉग शुरू कर रही है।

annapurna November 17, 2007 at 11:58 AM  

दोनों गीत अच्छे है।

वैसे भाभी और ममता दोनों ही फ़िल्मों के सभी गीत अच्छे है

SahityaShilpi November 17, 2007 at 1:38 PM  

यूनुस भाई!
भूपिन्दर जी की आवाज के हैंग-ओवर के बाद (काश कि ये ‘हैंग’ कभी ‘ओवर’ न हो) इन दोनों गीतों को सुनना बहुत अच्छा लगा. इसके लिये आपके साथ-साथ ममता जी का भी बहुत-बहुत आभार!
यूँ तो दोनों ही गीत बहुत सुंदर और आपके ही शब्दों में संक्रामक हैं पर मुझे दूसरा गीत ज़्यादा पसंद है.
पुनश्च: आभार!

- अजय यादव
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://merekavimitra.blogspot.com/

Yusuf November 17, 2007 at 7:41 PM  

Bhai,

This is a question that someone should have asked.Kisi ko to poochhna chahiye tha na ye sawal. I think people writing comments have missed a very important/valid point.

Radio Vani has been there for last 4-5 months or so then, Why you wrote about Radio Sakhi's 2 favourite songs yesterday only. Why it was not written in last months or even last week.

Was it something special yesterday ???

It is for all the guys writing comments on the above post, Can you guess why it was written yesterday only.

Hint - Writing the answer would make the blog writer blush.

Can you guess it now.

Yusuf


Yusuf

आलोक November 18, 2007 at 8:53 AM  

युनुस जी क्या आप अपनी पुरानी प्रविष्टियों की जानकारी भी बगल पट्टी में लगा सकते हैं? नहीं तो एक एक कर के ही पीछे जाना पड़ता है।

Anonymous,  November 18, 2007 at 9:57 AM  

य़ुसुफ़ भाई,

यह सवाल पता नहीं कैसे एक बार मेरे ज़ेहन में कहीं कौंधा तो था, पर फिर शायद दब गया या दबा दिया गया।

अब आपकी पोस्ट के बाद मुझे लगता है कि या तो इस दिन आपके भैया-भाभी में से किसी एक ने दूसरे को इस दिन ’ प्रपोज़ ’ किया रहा होगा या फिर शायद १६ नवम्बर को उनकी शादी की सालगिरह पड़ती हो ।

[ गु़स्ताख़ी माफ़ हो, तो अब("ब्लश" हिन्ट पर ) तो कयास यह भी है कि कहीं इनमें से किसी गीत का ताल्लुक उनकी ज़िन्दगी के उस खासम-खा़स लम्हे से भी न हो ]

जो भी हो ,मेरी तरफ़ से ( विलम्बित ) हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ !

वैसे काफ़ी पहले एक शेर मैं उन दोनों को पहले ही नज़र कर चुका हूँ।
आज आप भी ’शेयर ’ कीजिये :

कौन कहता है हुआ शौक इधर से पहले
किसने देखा था किसी तिरछी नज़र से पहले

-वही

Yunus Khan November 18, 2007 at 5:33 PM  

यूसुफ बिल्‍कुल सही सवाल उठाया है और 'वही जी' आपने बहुत ही सही कयास लगाया है पर अफसोस आपके सारे अंदाज़े ग़लत हैं । यट आय एम ब्‍लशिंग । आलोक भाई, बात तो सही है पर कृपया मेल पर सूचित करें कि क्‍या सभी पोस्‍टों के लिंक लगाये जायें या‍ फिर आपका आयडिया क्‍या है इस बारे में । वैसे मैं मानता हूं कि लेबल के ज़रिए भी आप पुरानी पोस्‍टों तक पहुंच सकते हैं ।

Anonymous,  November 19, 2007 at 10:42 PM  

चलिये, एक ’अटेम्प्ट ’ और सही !

मामला चूँकि इस खा़स दिन ममता जी की फ़रमाइश पूरा करने का है,लिहाज़ा यह भी मुमकिन है कि १६ नवम्बर को उनका जन्मदिन पड़ता हो ।

इसके बाद ’ नो अटेम्प्ट ’ !!

लग गया तो तीर , नहीं तो तुक्का !!!

-वही

Anonymous,  July 31, 2009 at 6:02 AM  

दो बरस होने को आये और आपने अभी तक जवाब नहीं दिया हमारे "लास्ट अटेम्प्ट" का !

हम पहले ही जानते थे-हमारा ये वाला जवाब एकदम सही है ! :-)

- वही

sanjay patel July 15, 2011 at 8:11 PM  

छुपा लो...ये गीत मुझे इसलिये भी कुछ ज़्यादा ही अच्छा लगता है कि इसकी कम्पोज़िशन और गायकी मुझे उस भद्र समाज की याद दिलाती है जो कभी भारत में बड़ी तादात में बसता था...फ़िल्म संगीत भी तो दर-असल समाज का ही आईना होते थे और उसी को संबोधित भी...बहुत सुरीली याद दिला दी आपने...

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