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Thursday, July 19, 2007

वक्‍त ने किया क्‍या हसीं सितम-आईये गीता दत्‍त की पुण्‍यतिथि पर उन्‍हें शिद्दत से याद करें



आज गीता रॉय की पुण्‍यतिथि है । आज ही दिन सन 1972 में उन्‍होंने इस संसार को अलविदा कह दिया था ।

गीता रॉय एक सोंधी, मिट्टी से सनी ख़ालिस आवाज़ । मुझे तो गीता रॉय एकाकी लोगों का स्‍वर लगती हैं । उनकी आवाज़ के दो शिद्दत भरे छोर हैं, एक तरफ उमंग और उत्‍साह की लहरें छलक-छलक आती हैं । दूसरी तरफ उनकी आवाज़ में इतना गहरा दुख झलकता है कि मन डूब-डूब जाता है । गीता रॉय की जिंदगी में भी ये दोनों छोर पूरे उफान के साथ आये थे । और जिन हालात में वो दुनिया से गयीं, वो बहुत बुरे, बहुत अभिशप्‍त थे, वो जानबूझकर दुनिया से गईं, शायद उन्‍हें मंज़ूर नहीं था कि इन हालात में वो संसार में बनी रहें ।



फरीदपुर पूर्वी बंगाल में पैदा हुई गीता रॉय का परिवार जल्‍दी ही मुंबई आ गया, गीता रॉय बहुत छोटी उम्र से गाने लगी थीं । दादर में अपने घर में वो कुछ गा रही थीं तभी संगीतकार हनुमान प्रसाद ने उनकी आवाज़ सुनी और सन 1946 में फिल्‍म भक्‍त प्रहलाद में दो पंक्तियां गाने का मौक़ा दिया । पर सन 1947 में उन्‍होंने जिन गानों से तहलका मचा दिया वो थी ‘दो भाई’ । जहां तक मुझे याद आता है इस फिल्‍म के संगीतकार एस.डी.बर्मन थे । ये है वो गाना जिसको सुनकर आपको शायद यक़ीन भी ना हो कि फिल्‍म-संसार में ये उनका पहला गीत था ।

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सन 1949 में तीन नामी फिल्‍में रिलीज़ हुई थीं—बरसात, अंदाज़ और महल । इन तीनों में नायिकाओं को एक नई गायिका ने आवाज़ दी थी, इस नई गायिका का नाम था लता मंगेशकर । यहां से शुरू होकर लता जी की सफलता इतनी बड़ी हो गयी कि हम सब जानते हैं । पचास के दशक में लता जी की कामयाबी की आंधी में दो ही गायिकाएं टिक सकी थीं—गीता रॉय और शमशाद बेगम । बहरहाल 1951 में गीता रॉय ने पहली बार खुशी की तरंग वाले रंगारंग गाने गाये, सचिन देव बर्मन के निर्देशन में । उनमें से एक है ये—
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बहरहाल गीता रॉय का करियर बेहद तूफानी रहा । कमाल के गीत उन्‍होंने गाये हैं । लेकिन मैं यहां उनके कुछ ऐसे गीतों का जिक्र करना चाहता हूं जिन्‍हें पेशेवर कामयाबी भले उतनी ना मिली हो, पर मेरी नज़र में ये गीता रॉय के प्रतिनिधि गीत हैं । और जब मैं ये बात कहता हूं तो मुझे याद आता है फिल्‍म ‘अनुभव’ का गीत । पता नहीं क्‍यूं ये भी मेरे मन को बहुत बहुत भाता है । शायद अपनी विकलता के लिए, उफ़ क्‍या बोल लिखे हैं गुलज़ार ने । पढिये और सुनिए ।
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इससे पहले मैं ये कहना चाहता हूं कि इस गाने में गीता राय ने जो लहराहट लाई है, वो कमाल की है । आखिरी पंक्ति में जिस तरह गीता राय हल्‍की सी हंसी शामिल की है, वो भी अद्भुत है । फिर गुलज़ार जाने कैसे कैसे गीत लिख लाते हैं, भला हो कनु राय का जो इस गद्य नुमा गीत को उन्‍होंने इतने प्‍यार से धुन में पिरोया---

मेरी जां, मुझे जां ना कहो, मेरी जां
जां ना कहो अनजान मुझे, जान कहां रहती है सदा
अनजाने क्‍या जानें, जान के जाए कौन भला
मेरी जां, मुझे जां ना कहो, मेरी जां ।।

सूखे सावन बरस गये कितनी बार इन आंखों से
दो बूंदें ना बरसें इन भीगी पलकों से
मेरी जां, मुझे जां न कहो, मेरी जां ।।

होंठ झुके जब होठों पर, सांस उलझी हो सांसों में
दो जुड़वां होठों की बात कहो आंखों से
मेरी जां, मुझे जां ना कहो मेरी जां ।।

इसी फिल्‍म का एक और गाना मुझे याद आता है । कपिल कुमार के बोल । कनु राय की तर्ज़ । इस गाने को पढियेगा भी ज़रूर, लेखनी में भी ज़रा अलग ही तरह का गीत है ये ।
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कोई चुपके से आके, सपने सजा के, मुझको जगाके बोले मैं आ रहा हूं
कौन आये ये मैं कैसे जानूं ।

दूर कहीं बोले पपीहा, पिया आ, मौसम सुहाना,
तरसे है कोई यहां, आ भी जा, करके बहाना,
कौन सा बहाना, कैसा बहाना, कितना मुश्किल है ये बताना
देखो फिर भी कोई भा रहा है
कौन भाए ये मैं केसे जानूं ।। कोई चुपके से आके ।।

प्‍यासा है दिल का गगन, प्‍यार की अग्नि जलाए,
पलकों में क़ैद है सावन, होठों तक बात ना आए,
बात आते आते रात हो गई, छांव की बारात छोड़ गयी साथ
बात आते आते हो गयी रात, इतनी रात गये कैसे गाऊं
देखो फिर भी कोई गा रहा है, कौन गाए ये मैं कैसे जानूं,
कोई चुपके से आके ।।

गीता रॉय की गुरूदत्‍त से मुलाकात सन 1951 में फिल्‍म जाल के गाने की रिकॉर्डिंग के दौरान हुई थी । आखिरकार छब्‍बीस मई 1953 को गीत रॉय और गुरूदत्‍त ने ब्‍याह रचा लिया । लेकिन 1957 आते-आते गुरूदत्‍त का नाम वहीदा रहमान से जुड़ने लगा और गीता रॉय का दिल छलनी होता चला गया । दिक्‍कतें इतनी बढ़ीं कि गीता अपने बच्‍चों को लेकर अलग रहने लगीं । इस बीच पारिवारिक जिंदगी की परेशानियों ने उनके गाने पर असर डाला और वो संगीतकारों से मुंह चुराने लगीं । रिहर्सलों में नहीं जाती थीं । फोन नहीं उठाती थीं । सोचिए कि यही वो दौर है जब उन्‍होंने बड़े दर्द भरे गीत गाये हैं । ऊपर के दोनों गीत इसी तरह के हैं । शायद मौक़ा मिले तो आगे चलकर मैं इस दौर के गानों की फेहरिस्‍त तैयार करके आपके सामने रखूंगा ।

आखिरकार सात साल बाद 10 अक्‍टूबर 1964 को गुरूदत्‍त नहीं रहे ( उन्‍होंने अपनी जिंदगी खत्‍म कर दी ) गीता राय का नर्वस ब्रेक डाउन हो गया । आर्थिक मुसीबतें बढ़ गयीं, स्‍टेज शो और गानों के ज़रिए उन्‍होंने खुद को संभालना शुरू किया । शराब की लत बढ़ती चली गयी । और बीस जुलाई 1972 को उन्‍होंने इतनी शराब पी ली कि वो संसार और संगीत के परे चली गयीं । छोड़ गयीं अपने दर्दीले नग्‍मे हम सबके लिए ।
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वक्‍त ने किया क्‍या हंसी सितम, तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम
बेक़रार दिल इस तरह मिले, जिस तरह कभी हम जुदा ना थे
तुम भी खो गये, हम भी खो गये, एक राह पे चल के दो क़दम
वक्‍त ने किया ।।

जायेंगे कहां कुछ पता नहीं, चल पड़े मगर रास्‍ता नहीं
क्‍या तलाश है कुछ पता नहीं, बुन रहे हैं दिल ख्‍वाब दम-ब-दम
वक्‍त ने किया ।।

ये गीत कैफ़ी आज़मी ने लिखा है और सचिन देव बर्मन की तर्ज़ ।
गीता राय और गुरूदत्‍त की जिंदगी पर ये गाना कितना फिट बैठता है ।

गीता राय को हमारी श्रद्धांजली ।
उनके गीत हमारे अकेलेपन का सहारा बने रहेंगे ।


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