लुग़दी और भोंपू देशभक्ति गीतों के बीच तलाश एक ईमानदार तराने की ।
कुछ चीज़ों से हमें खास तरह की एलर्जी है । जैसे कि ज़रूरत से ज्यादा 'मेलोड्रामा' से । चाहे वो जीवन में हो या फिर छोटे-बड़े परदे पर । चूंकि पंद्रह अगस्त के दिन देशभक्ति की 'खु़राक' ज़ोरों पर होती है तो आपको बता दें कि यहां भी हमें एक चीज़ से ख़ासी 'एलर्जी' है, देशभक्ति के नाम पर मुफ्त के काग़ज़ी भाषण पिलाने वालों से का.का.ओं से ( का.का. हमारे कॉलेज के ज़माने का संक्षिप्तिकरण है, का.का. यानी का़ग़ज़ी कॉमरेड ) इसी तरह से ख़ासी एलर्जी उन तथाकथित देशभक्ति गीतों से है, जो इत्ते बजे इत्ते बजे, ज़बर्दस्ती इत्ते सुनवाए गए कि अपना अर्थ, अपनी संवेदनशीलता, अपना मक़सद सब खो चुके हैं ।
इसलिए पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन अपन अपने कान अकसर बंद कर लेते हैं । वरना होता जे है कि किसी कोने से हवाओं पर सवार होकर महिंदर कपूर 'मेरे देश की धरती ई ई ई' करते हुए ज़ेहन में समा रहे होते हैं तो कहीं से 'वतन की राह पर वतन के नौजवां शहीद हो' की पुकार कानों में ठेली जा रही होती है । ये एलर्जी वैसी ही है, जैसी दीपावली पर पटाख़ों की आवाज़ से होती है और मन करता है कि किसी निविड़ वन में जाकर शांति से दिन बिताएं ।
पता नहीं क्यों मेहबूबा से मुहब्बत से लेकर देश से मुहब्बत तक के वो तमाम गाने हमें फालतू लगते हैं, जो गुलशन नंदाई सेन्टीमेन्ट्स से लिथड़े पड़े हैं । सच्ची दोस्तो, संगीत के शौक़ ने हमें बिगाड़ डाला । इसीलिए तो 'तू औरों की क्यों हो गयी' टाइप मुहब्बती-गानों से सख़्त एलर्जी हो गयी है हमें । यक़ीन मानिए इस देश को ईमानदार मुहब्बत के सच्चे गानों की सख़्त ज़रूरत है । चाहे वो मेहबूबा से मुहब्बत के गानों हों या देश से मुहब्बत के गाने । वो तो अच्छा है कि जावेद अख़्तर ने ' ये जो देश है तेरा स्वदेश है तेरा तुझे है पुकारा' जैसा मॉडर्न देशभक्ति गीत दे दिया, तो थोड़ी शांति मिली । वरना भोंपू गानों ने तो देश के प्रति सम्मान और समर्पण के इस महान दिन का सत्यानास कर रखा है ।
बहरहाल सुबह से विकल थे । भूपिंदर सिंह की आवाज़ में एक गाना है, सन 77 में आई फिल्म 'आंदोलन' का जिसे जयदेव ने स्वरबद्ध किया था और ये रामप्रसाद 'बिस्मिल' की रचना है । 'दरो-दीवार पे हसरत से नज़र रखते हैं' । सब जगह खोज रहे हैं कहीं मिलता ही नहीं । आज हमारे मित्र 'डाकसाब' ने इस गाने की फ़रमाईश करके हमारी दुखती रख पे हाथ रख दिया और हम विकलता से बिलबिला उठे । ( डाकसाब ने सिर्फ इस गाने का जिक्र
ही नहीं किया बल्कि जिस विकलता और जिस जज़्बे से इलाहाबाद की जिला जेल और वहां के फांसीघर का जिक्र किया, मय तस्वीर । उनका ये अदभुत ई-मेल अब हमारे संग्रह का हिस्सा है )
हां तो नरबदा मैया की क़सम...हम इस गाने को कई बरस से खोज रहे हैं । पर अब पूरी ताक़त लगाकर खोज ही डालेंगे । बहुत वक्त नहीं लगेगा, चाहे आकाश पाताल एक करना
पड़े । बहरहाल...तब 'बड़ी दवा' ना मिले तो मरीज़ को 'छोटी-दवा' ही दे देनी चाहिए । थोड़ी तो राहत मिले । सो हमने सोचा है कि आज उस गीत की बजाए इस गीत से ख़ुद को समझाएंगे । श्यामलाल पार्षद जी ने ये 'झंडा-गीत' तीन-चार मार्च 1924 को लिखा था । फुरसतिया अनूप जी ने श्यामलाल जी और इस गाने के बारे में एक बढिया माउस-तोड़ पोस्ट सन 2006 में आज ही के दिन छापी थी । इसे पढ़ लेना आप सबके लिए ज़रूरी है ।
'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' जब तरीक़े से गाया जाए तो रोमांचित कर देता है । विकलता के मारे हम....जब इस गाने के अच्छे संस्करण ढूंढने चले तो वही दूरदर्शनी काग़ज़ी भोंपू संस्करण मिले और जब इस विकट दुख से हम अचेत होने के कगार पर ही थे कि तभी कहीं इस गाने का एक छोटा पर आत्मीय और ईमानदार संस्करण मिला । हमने फौरन इसे अपने संग्रह के हवाले कर लिया । तो आज पंद्रह अगस्त 2009 को अपने जीवन के दो मिनिट इक्कीस सेकेन्ड इस गाने को दीजिए और लुगदी देशभक्ति से छुटकारा पाकर अपने विकल मन को कुछ अच्छा सा अहसास दिलाईये । जय हिंद ।
song-vijayi vishwa tiranga pyara, jhanda geet
lyrics-shyamlal parshad
इसी गाने को एक और प्लेयर पर चिपका दे रहे हैं ताकि सनद रहे ।
इस गाने का पाठ
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।मूल रूप से इस पोस्ट को यहां ख़त्म कर दिया गया था । पर बाद में 'डाकसाब' की मेल पर पढ़ा--
सदा शक्ति बरसाने वाला
वीरों को हरसाने वाला
प्रेम सुधा सरसाने वाला
मातृभूमि का तन मन सारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।१।
लाल रंग बजरंगबली का
हरा अहल इस्लाम अली का
श्वेत सभी धर्मों का टीका
एक हुआ रंग न्यारा-न्यारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।२।
है चरखे का चित्र संवारा
मानो चक्र सुदर्शन प्यारा
हरे रंग का संकट सारा
है यह सच्चा भाव हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।३।
स्वतंत्रता के भीषण रण में
लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में
कांपे शत्रु देखकर मन में
मिट जायें भय संकट सारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।४।
इस झण्डे के नीचे निर्भय
ले स्वराज्य का अविचल निश्चय
बोलो भारत माता की जय
स्वतंत्रता है ध्येय हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।५।
आओ प्यारे वीरों आओ
देश धर्म पर बलि-बलि जाओ
एक साथ सब मिलकर गाओ
प्यारा भारत देश हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा।६।
शान न इसकी जाने पाये
चाहे जान भले ही जाये
विश्व विजय करके दिखलायें
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।७।
हमारा कहना है कि ऐसे ख़ास मौकों पर, ऐसी परिस्थिति में, प्रथा से थोड़ा हटते हुए अगर "रेडियोवाणी " गाना न सुनवाते हुए भी केवल उसके बोलों को ही दर्शाते हुए बाकी सन्दर्भों के साथ शहीदों को श्रद्धांजलि दे-दे, तो कुछ गलत है क्या ?
हमें लगा कि सचमुच अपनी ही 'सल्तनत' रेडियोवाणी पर हम हर बात 'गाने' के ज़रिए ही क्यों कहें । ये हैं उस गाने के बोल जिसने हमें बेक़रार कर रखा है । इस गाने के ज़रिए हम जंग-ए-आज़ादी के उन शहीदों को खड़े होकर सलाम कर रहे हैं, जिन्होंने अपने परिवारों, बच्चों, करियर किसी चीज़ की परवाह नहीं की और हंसते हंसते फांसी पर चढ़ गए । हमारे भीतर तो इतनी संवेदनशीलता ही नहीं कि हम उस कुरबानी को महसूस ही कर लें ।
दरो-दीवार पे हसरत-ए-नज़र रखते हैं ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर हमको भी पाला था मां-बाप ने दुख सहकर वक्त-ए-रूख़सत उन्हें इतना भी ना आए कहकर गोद में आंसू जो टपके कभी रूख़ से बहकर तिफ़्ल उनको ही समझ लेना दिल के बहलाने को अपनी क़िस्मत में अज़ल से ही सितम रक्खा था रंज रक्खा था, मेहन रक्खा था, ग़म रक्खा था किसको परवाह थी और किसमे ये दम रक्खा था हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को दिल फ़िदा करते हैं क़ुरबान जिगर करते हैं पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं खाना वीरान कहां देखिए घर करते हैं ख़ुश रहो अहल-ए-वतन,हम तो सफ़र करते हैं जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को खुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को । नौजवानों यही मौक़ा है उठो खुल खेलो और सर पर जो बला आए ख़ुशी से झेलो क़ौम के नाम पे सदक़े पे जवानी दे दो फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएं ले लो देखें कौन आता है इरशाद बजा लाने को
इस लंबी रचना का मूल पाठ आप यहां पढ़ सकते हैं । यहां मैंने जो पाठ दिया है ये फिल्मी-गीत वाला हिस्सा ही है ।
16 comments:
युनूस जी, बहुत दिनों बाद ये गीत मिला सुनने को, आभार! स्कूल के दिनों में इस गीत के साथ एक और गीत था जो प्रभावित करता था-
ऊंचा सदा रहेगा झंडा ऊंचा सदा रहेगा
केसरिया बल भरनेवाला सादा है सच्चाई
हरा रंग है हरी हमारी धरती की अंगड़ाई
कहता है ये चक्र हमारा कदम कभी न रूकेगा
ऊंचा सदा रहेगा झंडा ऊंचा सदा रहेगा
अगर मिल जाये तो कृपया सुनवायें।
युनुस जी, दोनों प्लेयरों पर सुना है। इतनी मधुरता! बहुत दिनों बाद कानों में गई है। बहुत बहुत आभार!
क्या बात है यूनुस भाई. स्कूल के दिन याद आ गए.
सच पूछिए सुबह से कई गानें सुन लिए पर इसे नही सुन पाऊँगा रात हो गई बेटी सो गई। जग गई तो अपनी ढेरों फरमाईश की झडी लगा देगी। खैर यह गीत सादा और सच्चा सा है। सुबॅह जरुर सुना जाऐगा।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
वैसे मैंने सुबह वंदे मातरम एक बार सुना था रहमान जी वाला। और फिर उसके बाद तो गुलाल फिल्म के दो गाने लगातार सुनता रहा बंद जब किया छोटा भाई कहने लगा कि हम तो आपकी पसंद से तंग आ गए। खैर गुलाल फिल्म के दो गाने बहुत दिल को छूते है । एक " दुनिया" वाला जिसे पीयूष जी ने गाया है और दूसरा "वो रात के मुसाफिर चलना तू सभंल के"। जब से सुना है तब से पता नही क्यों इन दो गानों के दीवाने हो गए। सीडी लेने गए तो कहते अभी तक सीडी नही आई। समझ नही आया फिल्म आकर चली गई और गाने की सीडी अभी तक नही आई। अजीब बात है। वैसे मैं अक्सर इन डांट काम पर सुनता हूँ। वैसे इसके गाने मिल कहाँ से सकते है। वैसे मुझे बचपन से अबतक इस दिन के लिए एक गीत ज्यादा पसंद है नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही बोलो बच्चों मेरे संग़ जय हिंद जय हिंद।
यूनुस भाई, आज तो आपने डूब कर लिखा है. पूरे मन से. वैसे तो हमेशा ही बढिया लिखते हैं आप, लेकिन आज जो लिखा है उसकी बात ही अलग है. सच, हमें चीज़ों को रुटीन बना दालने में महारत हासिल है. ऐसे में आपने पार्षद जी के गीत का जो वर्ज़न सुनवाया है वह इस सड़ी गर्मी में शीतल फुहार-सा लग रहा है. किन शब्दों में आपको धन्यवाद कहूं?
thanks ..for this...patriotic song...beautiful post....
यूनुस भाई,
माफ़ कीजियेगा, मगर अधिकतर देशभक्ति के प्रचलित गीतों को लुगदी (पल्प) और भोंपू श्रेणी में रखने पर मुझे बहुत आपत्ति है.. झंडा ऊँचा रहे हमारा निर्विवादित रूप से एक श्रेष्ठ गीत है, मगर इसकी श्रेष्ठता साबित करने के लिए अन्य गीतकारों की रचनाओं को लुगदी में स्थान देना मुझे सही नहीं लगता.. चाहे वो "मेरे देश की धरती हो" या "वतन की राह में" या "जहाँ डाल डाल पर सोने की" या चाहे "वंदे मातरम" या "ए मेरे प्यारे वतन" या "अपनी आज़ादी को हम" या "सारे जहां से अच्छा" (आप सफ़ाई से सबसे ज्यादा बजने वाले इन गीतों का जिक्र उड़ा गये:).. मेरे देश की धरती गुलशन बावराई ज़रूर है पर गुलशन नंदाई तो बिलकुल नहीं! हाँ सरकारी भोंपू ने इस गीत का दुरुपयोग बहुत किया है.. शायद इसके ओवर-एक्सपोजर ने आपकी ये राय कायम करने में योगदान दिया हो!
पवन आपकी आपत्ति सिर आंखों पर । दरअसल मैं इन गानों के ओवर-एक्सपोज़र की ही बात कर रहा
हूं । इसीलिए मैंने कहा कि इन गानों का इतना भोंपूकरण किया गया है कि ये इनका असर कम हो गया है ।
In New Delhi i have often heard the T-series edition of these songs on RAJPATH. Imagine the place and the unbearable Annu Paudwaal singing ''ae mere vatan ke...'' !
I can hear same old patriotic songs till i die ,but o Lord save me from the torture of 'nakli' versions of these songs. As a music lover u must take up this issue !
गांव के केवला की याद हो आई। कुछ पागल से थे। सन बयालीस के आंदोलन में जेल भी गये थे। गाते थे - झण्डा बूंचा रहे हमारा!
बेचारे केवला को गाना पता ही न था ठीक से।
"यूनुस भाई,माफ़ कीजियेगा, मगर अधिकतर देशभक्ति के प्रचलित गीतों को लुगदी (पल्प) और भोंपू श्रेणी में रखने पर मुझे बहुत आपत्ति है................" - पवन
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पवन जी की बात से शत-प्रतिशत सहमत हैं हम,लेकिन ........
क्राइम मीटिंग में जिस दिन थानेदार को पुलिस कप्तान से डाँट पड़ती है,उस दिन थाने के दारोगा और सिपाहियों की शामत आ जाती है ।
ऑफ़िस में जिस दिन बॉस से झाड़ पड़ती है, उस दिन शाम को घर में यही हाल ( दुनिया में सबसे प्यारे, ख़ुद अपने) बीवी-बच्चों का होता है ।
मतलब यही कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अपनी किसी भी बेचैनी, परेशानी, झल्लाहट या खीझ का ठीकरा हम किसी और के सर पर फोड़ देते हैं । लेकिन देखा जाए तो अगर कुदरत का दिया यह "सेफ़्टी वॉल्व" न हो, तो आदमी का सर ही फट जाय ( कम से कम दिमाग़ की खून की नलियाँ तो फट ही जाती हैं ) ।
य़ुनुस जी ने भी अगर "आन्दोलन" का गाना न मिलने की बेचारगी और खीझ बाकी (अपने ख़ुद के प्यारे***); गीतों पर उतार ली तो (हम सबके लिये) अच्छा ही किया । ;-)
[ *** देखें इसी " महिंदर कपूर के'मेरे देश की धरती ई ई ई' " के बारे में गुलशन बावरा पर उनकी पोस्ट ]
और हाँ उन्हें "यूनुस भाई" न कहा करें । इस सम्बोधन से अन्दर बहुत गहरे तक डर जाते हैं हम । बम्बई के साथ-साथ कराची, दुबई वग़ैरह की याद भी आने लगती है ।
अकेले हमारा ही नहीं, "भाई" शब्द सुनते ही बड़े-बड़े "डाकसाहबों" का यही हाल होता है !
:-)
"और हाँ उन्हें "यूनुस भाई" न कहा करें । इस सम्बोधन से अन्दर बहुत गहरे तक डर जाते हैं हम । बम्बई के साथ-साथ कराची, दुबई वग़ैरह की याद भी आने लगती है ।"
डाकसाब,
लो भई, अब भाई कहना भी गुनाह हो गया!
हमारे शहर के ही एक शायर का एक गीत याद आता है
यूं बेसबब जहां में जिये जा रहे हैं हम,
जैसे कोई गुनाह किये जा रहे हैं हम..
"य़ूनुस जी" कहा करें !
इस बारे में और ज़्यादा जानकारी के लिये पंकज कपूर के "ऑफ़िस-ऑफ़िस" के "पाण्डे जी" से सम्पर्क करे !!
:-))
Reading your blog from Ras Al Khaima this week Yunus,I enjoyed reading your thoughts on patriotic songs. Being a big fan of Bhupinder's voice and Jaidev's music,I will certainly look for this song from Aandolan.
'Jhanda Ooncha...' brought back memories from school days.
युनुस जी, भोंपूकरण के साथ ही एक बात और सताती है कि---अब जो हर चौराहे पर फ़ूलों की रांगोली बनाकर कोई भी झंडा फ़हरा देता है वो मुझ ठीक नही लगता--स्कूलॊ मे बच्चो की उपस्थिति भी बहुत कम रहती है---
सबकी अपनी अपनी पसंद होती है. वैसे मुझे लगता है कि ये गाने क्या उतने super exposed हैं ? देशभक्ति गीतों का तो कोई नामलेवा भी नहीं होता इन तीन चार दिनों के अलावा.
क्या मन्ना डे साहब का गया वो गीत - ऐ मेरे प्यारे वतन....... - को सुनकर किसी की आँखें गीली नहीं होतीं. क्या - वतन की राह में.... या - अपनी आजादी को हम... - को सुनकर किसी युवा की भुजाएं अब नहीं फड़कतीं. अगर ऐसा नहीं है तो शायद हम अपनी संवेदनाओं को खोने लगे हैं.
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