फूल रही सरसों सकल-बन: वसंत-पंचमी पर विशेष: वारसी बंधुओं की आवाज़ ।
आज 'वसंत-पंचमी' है । वाग्देवी-सरस्वती की पूजा का ये पर्व कलाकारों के लिए विशेष महत्त्व रखता है । रेडियोवाणी पर 'कल्ट-क़व्वालियों' की श्रृंखला में ( तीसरी कड़ी के रूप में ) वसंत-पंचमी की विशेष पेशकश में हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वारसी बंधुओं की आवाज़ में हज़रत अमीर ख़ुसरो की रचना । क़व्वाली में किस तरह से सरसों फूल रही है...ये सुनकर आपका मन-मयूर नाच उठेगा । इसलिए बस यही इल्तिजा है कि ख़ूब फुरसत से इस रचना को सुनिएगा ।
लेकिन इससे पहले आपको बताया जाए कि किस तरह से भारत की दरगाहों में वासंती-परंपरा रही है । किसी तरह मुझे किसी ज़माने में 'अमर उजाला' में प्रकाशित एक लेख प्राप्त हुआ है । जिसमें लेखक का नाम नहीं दिया गया है । अमर उजाला से साभार है ये दरगाहों में वासंती परंपरा पर ये लेख ।
और ये रही अमीर ख़ुसरो की वो रचना जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है ।
सकल बन (सघन बन) फूल रही सरसों,
सकल बन (सघन बन) फूल रही....
अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार डार,
और गोरी करत शृंगार,
मलनियां गढवा ले आइं करसों,
सकल बन फूल रही...
तरह तरह के फूल लगाए,
ले गढवा हातन में आए ।
निजामुदीन के दरवाजे पर,
आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों ।
सकल बन फूल रही सरसों ।
इसके आगे गाते समय इस रचना में थोड़ी तब्दीली कर दी गयी है ।
वारसी बंधुओं की आवाज़ में यही रचना ।
अवधि-9:21
अमीर खुसरो की कुछ रचनाएं यहां पढिये ।
कल रेडियोवाणी पर 'क़व्वाली में कबीर' सुनने के लिए तैयार रहिए । वसंत पंचमी की शुभकामनाएं । फूल रही सरसों.....सकल बन......फूल रही सरसों !
लेकिन इससे पहले आपको बताया जाए कि किस तरह से भारत की दरगाहों में वासंती-परंपरा रही है । किसी तरह मुझे किसी ज़माने में 'अमर उजाला' में प्रकाशित एक लेख प्राप्त हुआ है । जिसमें लेखक का नाम नहीं दिया गया है । अमर उजाला से साभार है ये दरगाहों में वासंती परंपरा पर ये लेख ।
वसंतोत्सव केवल हिंदुओं की विचारधारा से जुड़ा उत्सव नहीं है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि वसंतोत्सव मनाने की परंपरा मुस्लिमों से भी उतनी ही गहराई से जुड़ी हुई है जितनी हिंदुओं से। स्त्रोत बताते हैं कि 12वी शताब्दी से ही भारत का मुसलिम समाज वसंतोत्सव मनाता आ रहा है। इसकी शुरूआत करने का श्रेय चिश्ती सूफियों को जाता है। दिल्ली के चिश्ती सूफी संत निजामुद्दीन औलिया के समय में वसंतोत्सव मुसलिम समुदाय से जुड़ गया। बहुत पुरानी बात है, जब अपने युवा भतीजे तैकुद्दीन नूह की मौत से गमजदां निजामुद्दीन औलिया ने अपने आपको सांसारिक गतिविधियों से बिलकुल अलग कर लिया। निजामुद्दीन नूह की मौत से इस कदम दुखी थे कि वे या तो नूह की कब्र के पास बैठे रहते या कमरे में बंद रहते । उनके परम मित्र, शिष्य और अपने जमाने के मशहूर शायर अमीर खुसरो से उनकी ये हालत देखी नहीं गई। वे अपने गुरु के मन में फिर से उत्साह जगाने की जुगत करने लगे । एक दिन खुसरो ने देखा कि कुछ औरतें, बनाव श्रंगार किए, पीले वस्त्र पहने, फूल लेकर गाती हुई जा रही हैं। खुसरो ने उनसे पूछा कि वे इस प्रकार बन संवर कर पीले वस्त्र पहन कहां जा रही हैं तो महिलाओं ने कहा कि आज वसंत पंचमी है और वो अपने देवता को वसंत यानी पुष्प अर्पित करने जा रही हैं। खुसरो को ये बड़ा दिलचस्प लगा। उन्होंने तय कर लिया कि उनके गुरु को भी एक वसंत की जरूरत है। खुसरो ने औरतों की तरह बनाव श्रंगार किया, पीले वस्त्र पहले और पीले-भूरे फूल लेकर नूह की कब्र की तरफ गाते हुए चल दिए, जहां निजामुद्दीन अकेले बैठे हुए थे। संत ने देखा कि कुछ औरतें गाती हुई उनकी तरफ आ रही हैं। लेकिन वे पहचान नहीं पाए कि उनमें खुसरो भी हैं। खैर कुछ देर तो वो चकित से देखते रहे लेकिन जल्द ही उन्हें माजरा समझ में आया और वो हंस पड़े। उनको हंसते देख खुसरो और उनके साथ आए अन्य संतों और सूफियों ने वसंत के गीत गाने आरंभ कर दिए। इनमें एक गीत था सकल बन फूल रही सरसों, अमवा बौराए, टेसू फूले, कोयल बोले डार डार, और गोरी करत सिंगार, मालनिया गढ़वा लाइन करसों, सकल बन फूल रहीं सरसों । ’’ ये वाकया इतना प्रभावी रहा कि निजामुद्दीन औलिया की खानेकाह में हर साल वसंतोत्सव मनाया जाने लगा। धीरे धीरे यह उत्सव अन्य सूफी दरगाहों में भी मनाया जाने लगा और स्थानीय मुसलमान हर साल वसंतोत्सव में अपने सूफी संत की मजारों और दरगाहों पर जाने लगे। मुगल काल में वसंतोत्सव एक बड़े त्योहार की तरह मनाया जाता था जिसमें शासक वर्ग भी जनता के साथ घुलमिलकर वसंत का आनन्द उठाता था। महेश्वर दयाल ने अपनी पुस्तक आलम में इंतिखाब: दिल्ली (1987) में बहादुरशाह जफर के शासनकाल के एक ऐसे ही वसंत का जिक्र किया है-‘‘सरदी अपनी कड़क छोड़ सुस्ता रही है, वसंत आ रही है और दिल्ली वाले वसंत का आगमन करने के लिए तैयार हैं। कोई कदम शरीफ में इत्र चढ़ा रहा है तो कहीं गीत संगीत की महफिलें सजी हैं। ऐसे में जनता के बीच बादशाह के जन्मदिन का पैगाम सुनाया गया तो दिल्ली वाले खुशी से नाच उठे। लो, आज तो वृहस्पतिवार भी है। दिल्ली में यमुना किनारे लाल किले के मैदान में भारी भीड़ उमड़ी है, बादशाह को जन्मदिन की बधाई देने को। यहां तिल रखने की भी जगह नहीं। खूब धूम का मेला लगा है। घरों के परदे, औरतों की चादरें, मर्दो की पगडि़यां, बच्चों के कपड़े सब बसंती रंग में रंगे हुए हैं। शाम होते ही आसमान में भूरे और पीले रंग के गुब्बारे दिखने लगे। इन गुब्बारों से बंधी मोमबत्तियां तो आसमान को जगमगा रही हैं। पूरा आसमान पीला और भूरा हो गया है, मानों आसमान की आंखों से फूलों की बरसात हो रही हो। ’ भारत में सूफियों की परंपरा को हिंदु समाज से ज्यादा अलग करके देखा नहीं जा सकता। सूफियों ने न केवल भारतीय गीत संगीत और संस्कृति को अपनाया बल्कि समय समय पर इसमें उत्साहजनक बदलाव भी करते रहे। |
और ये रही अमीर ख़ुसरो की वो रचना जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है ।
सकल बन (सघन बन) फूल रही सरसों,
सकल बन (सघन बन) फूल रही....
अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार डार,
और गोरी करत शृंगार,
मलनियां गढवा ले आइं करसों,
सकल बन फूल रही...
तरह तरह के फूल लगाए,
ले गढवा हातन में आए ।
निजामुदीन के दरवाजे पर,
आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों ।
सकल बन फूल रही सरसों ।
इसके आगे गाते समय इस रचना में थोड़ी तब्दीली कर दी गयी है ।
वारसी बंधुओं की आवाज़ में यही रचना ।
अवधि-9:21
अमीर खुसरो की कुछ रचनाएं यहां पढिये ।
कल रेडियोवाणी पर 'क़व्वाली में कबीर' सुनने के लिए तैयार रहिए । वसंत पंचमी की शुभकामनाएं । फूल रही सरसों.....सकल बन......फूल रही सरसों !
10 comments:
क्या बात है यूनुस भाई! अभी सुन रहा हूं और आनन्द आ रहा है यह वाला वर्ज़न सुन कर.
अभी कुछ ही दिन पहले मैंने बाबा नुसरत की आवाज़ में यही कम्पोज़ीशन लगाई थी. http://kabaadkhaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_13.html
युनुसभाई,
बहुत आभार इसको सुनवाने के लिये। इस बंदिश को आँख बन्द करके सुनो तो स्कूल के दिन, सर्दी की धूप और स्कूल के आस पास के सरसों के खेत बाईस्कोप की तरह सामने आ जाते हैं।
युनूस भाई बहुत अच्छा ब्लॉग है आपका, आकाशवाणी के उदघोषकों में असीमित प्रतिभा है किंतु व्यवस्था ऐसे लोगों के हाथ है जिनमे मैकाले की आत्मा बसती है। आज ही आया हूँ आपके ब्लॉग पर काफ़ी मेहनत कर रखी है, चलो सुकून तो मिलता है।
प्रिय युनुस भाई
मैं पहले दिन से आपके ब्लॉग का आगंतुक हूँ. बहुत ही ग़ज़ब का ब्लॉग है आपका. बहुत बहुत धम्यावाद. बड़ा सुकून मिलता है यह्याँ आकर. मेरे पास शब्द नही हैं इस रचना की तारीफ करने के लिए.
मेरी शुभ कामनाएं
- प्रिय रंजन
आनन्दम!
बहुत ही अच्छी कव्वाली सुनवाई आपने यूनुस भाई।
अब कल की प्रतीक्षा है।
धन्यवाद।
वसँत पँचमी भी आ गई ..
आपको सपरिवार, शुभकामनाएँ
और बहुत सुँदर कथा सुनाई आपने और गीत भी ...
मन प्रसन्न कर दिया आपने सुना कर ..
ये पोस्ट तो बहुत पसंद आई. ज्ञान वर्धन भी हुआ... सीधे दिल से आभार !
वाह . बहुत दिनों बाद आ पायी आपके ब्लॉग पर .पर झूम उठी.
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