संगीत का कोई मज़हब, कोई ज़बान नहीं होती। 'रेडियोवाणी' ब्लॉग है लोकप्रियता से इतर कुछ अनमोल, बेमिसाल रचनाओं पर बातें करने का। बीते नौ बरस से जारी है 'रेडियोवाणी' का सफर।

Monday, January 14, 2008

चली चली रे पतंग मेरी चली रे.....

मुंबई में गुजराती समुदाय की तादाद बहुत ज्‍यादा है इसलिए यहां की जन-संस्‍कृति पर भी उनका असर है । जैसे ही मकर संक्रांति क़रीब आती है, गली मोहल्‍लों में पतंग की दुकानें सज जाती हैं । ये कोई छोटी मोटी दुकानें नहीं हैं बल्कि भव्‍य दुकानें होती हैं । जहां कैश के ज़रिए ऐश वाली बात है । मोटे दामों पर सजीली पतंगें खरीदी जाती हैं और फिर या तो इमारतों के टैरेस पर या फिर मुंबई में दुर्लभ होते जा रहे खेल के मैदानों पर जाकर पतंग उड़ाई जाती है । मकर संक्रांति पर बड़ा फिल्‍मी टाईप का नज़ारा होता है पतंगबाज़ी का । 

KITE

बचपन में भोपाल में मैंने असली पतंगबाज़ी देखी हे, जहां संपन्‍नता का प्रदर्शन कम और पतंगबाज़ी का जुनून ज्‍यादा होता था । वक्‍त मिला तो तरंग पर इस बारे में जल्‍दी ही लिखा जायेगा । आईये फिलहाल सन 1957 में आई AVM की फिल्‍म भाभी का ये गीत सुना जाए । जो पतंग के नाम से बरबस ही हमारी ज़बान पर आ जाता है । पिछले पचास सालों से ये गीत हमारे घर आंगन में गूंज रहा है । और पतंग पर केंद्रित सबसे सरल और सहज गाना है । राजेंद्र कृष्‍ण ने इसे लिखा, चित्रगुप्‍त की तर्ज है  । आवाज़ें लता मंगेशकर और मुहम्‍मद रफ़ी की ।

बताईये पतंग के नाम से आपको कौन सा गाना याद आता है । प्‍लीज़ भंसाली की फिल्‍म 'हम दिल दे चुके सनम' का गीत मत याद दिलाईयेगा ।

 

 

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चली चली रे पतंग मेरी चली रे
चली बादलों के पार होके डोर पे सवार
जिसे देख देख दुनिया जली रे ।।

यूं मस्‍त हवा में लहराये
जैसे उड़नखटोला उड़ा जाए
लेके मन में लगन जैसे कोई दुल्‍हन
चली जाय सांवरिया की गली रे ।।
चली चली रे पतंग मेरी चली रे ।।

रंग मेरी पतंग का धानी
है ये नीलगगन की रानी
बांकी बांकी है उठान
है उमर भी जवान
लागी पतली कमर बड़ी बड़ी रे
चली चली रे पतंग मेरी चली रे ।।

छूना मत देख अकेली
है साथ में डोर सहेली
है ये बिजली की तार
बड़ी तेज़ है कटार
देगी काट के रख दिलजली रे
चली चली रे पतंग मेरी चली रे ।।

10 comments:

mamta January 14, 2008 at 10:01 AM  

मधुर गीत सुनवाने का शुक्रिया।

Anonymous,  January 14, 2008 at 10:46 AM  

sundar geet wah shukran

समयचक्र January 14, 2008 at 12:13 PM  

यह अपने जमाने का प्यारा मधुर गीत है आज भी सभी इसे बड़ी खुशी के साथ सुनते है , फिर मकर संक्रांति के दिन यह गाना पतंग उड़ाते समय याद आ जाता है .बहुत बढ़िया धन्यवाद

Sanjeet Tripathi January 14, 2008 at 1:14 PM  

शानदार, शुक्रिया!

PIYUSH MEHTA-SURAT January 14, 2008 at 3:22 PM  

आदरणिय श्री युनूसजी,

इस वक्त मेरे दिमागमें पतंग पर आधरित दो गीत याद आये (१) ये दुनिया पतंग-(दो पहलुवाला) फिल्म पतंग और (२) मेरी पतंग (गातिका-समसाद बेगम )-फिल्म : (सुरैयाजी वाली) दिल्ल्गी ।
आपने हम दिल दे चुके है सनम के गीत के लिये मना किया बहोत अच्छा किया ।

पियुष महेता ।
सुरत-३९५००१.

annapurna January 14, 2008 at 4:08 PM  

Dillagi ka geet mujhe bhi pasand hai, khaskar ye line -

vo kata vo kata vo kata

kati patang film ka title song bhi achha hai par is avasar pat teek nahi.

Apko aur blog se jude sabhi ko Makar sankranti aur Pongal ki shubhakaamnaaye.

annapurna

Gyan Dutt Pandey January 14, 2008 at 7:53 PM  

मेरे कम्प्यूटर में साउण्ड कार्ड खराब हो गया है; पर यह गीत सुनूंगा जरूर - भले ही कुछ दिनों बाद।

सागर नाहर January 14, 2008 at 9:46 PM  

यूनूस भाई यह वह फिल्म है जो पापाजी ने हमें सबसे पहली बार दिखाई, और तभी से इस फिल्म के एक एक गाने मन में जम गये।
आज सक्रांति पर्व पर इस गाने को सुनवाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।

Anita kumar January 15, 2008 at 1:43 AM  

इस गाने ने तो कई बरस पीछे पहुंचा दिया। मिनी पतंग के बारे में नहीं लिखा

कंचन सिंह चौहान January 15, 2008 at 4:26 PM  

थोड़ा उदास है, पर याद यही आता है....मेरी जिंदगी है क्या, एक कटी पतंग है..!

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