Thursday, July 21, 2022

ज़िंदा रहती हैं मोहब्बतें....बख्‍़शी साहब की याद में

 


  

आज जाने-माने गीतकार आनंद बख़्शी का जन्मदिन है। उनके बेटे राकेश आनंद बख़्शी ने उनकी जीवनी लिखी है--'नग़मे किस्से बातें यादें'। मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखी गयी इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद मैंने किया है। अभी यह किताब आनंद बख़्शी की वेबसाइट पर पीडीएफ के रूप में मुफ़्त में उपलब्ध है। शीघ्र इसकी हार्ड-कॉपी आपके हाथों में होगी।
'नग़मे, किस्से,बातें यादें' बख़्शी साहब के जीवन का बेमिसाल दस्तावेज़ है। आप लोकप्रिय हिंदी सिनेमा के इस बेमिसाल गीतकार के जीवन के उन हिस्सों को जान सकते हैं जो अब तक छिपे थे। उनकी असुरक्षा, उनके जज़्बात, गानों के बनने की कहानियां, उनका संघर्ष और उनकी कामयाबी। सब।
पुस्तक में मैंने एक अध्याय में यह लिखा है कि मैंने इस विशाल पुस्तक का अनुवाद क्यों किया। इस विराट काम को क्यों हाथ में लिया। बख़्शी साहब की क्या जगह है मेरे जीवन में। ................................................................................................................................................




बचपन के दिन थे वो। पापा नौकरी के सिलसिले में जबलपुर में थे...और हम भोपाल में। हमें पता था कि वो वीक-एंड पर किसी तरह आयेंगे और फिर तीन चार हफ़्ते के लिए चले जायेंगे। उन दिनों विविध-भारती पर जब एक गाना बजता
, तो आंखें भीग जातीं। कुछ महीनों की बात थी, पर पापा के बिना रहना बड़ा तकलीफ़देह होता था। गाना था—सात समंदर पार से गुड़ियों के बाज़ार से/ अच्‍छी-सी गुड़िया लाना/ गुड़िया चाहे ना लाना/ पप्‍पा जल्‍दी आ जाना। तब पता नहीं था कि ये गीत आनंद बख्‍़शी ने लिखा है या फिर लक्ष्‍मीकांत-प्‍यारेलाल इसके संगीतकार हैं। तब तो ये भी पता नहीं था कि जिस विविध भारती से ये गाना बज रहा है, भविष्‍य में वही मेरी कर्मभूमि बनने वाली है।  

बख्‍़शी साहब से अनायास ही नाता जुड़ गया था
, जो आगे चलकर और पुख्‍़ता होता चला गया। हाई-स्‍कूल के दिनों में पुराने फ़िल्‍मी-गानों से गहरा नाता जुड़ा। अच्‍छा सुनना और समझना शुरू किया और तब कुछ ऐसे गाने थे जो ज़ेहन पर छा जाते थे। उन्‍हीं दिनों में ये समझ में आया कि एक अच्‍छा गीतकार वो होता है जिसके गीत कहानी में गहरे धंसे होने हों, किरदारों की ज़बान में हों, आसान हों पर इसके बावजूद फ़िल्‍म से इतर उनका अपना एक आज़ाद सफ़र भी हो। तब कई गीतकारों से बहुत गहरा नाता जुड़ता चला गया।

उन्‍हीं दिनों में ये भी समझ में आया कि कुछ पंक्तियों में गीतकार किस तरह ज़िंदगी का फ़लसफ़ा भर देता है और तब से आगे तक के सफ़र में कई ऐसी लाइनें थीं जो हमारे लिए मुहावरे जैसी बन गयीं। जैसे—

दोस्तों शक दोस्ती का दुश्मन है/ अपने दिल में इसे घर बनाने न दो
आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है/ आते-जाते रस्‍ते में यादें छोड़ जाता है

कुछ रीत जगत की ऐसी है, हर एक सुबह की शाम हुई/ तू कौन है, तेरा नाम है क्या, सीता भी यहाँ बदनाम हुई

अपनी तक़दीर से कौन लड़े/ पनघट पे प्यासे लोग खड़े
जगत मुसाफ़िर खाना, लगा है आना-जाना
ये जीवन है, इस जीवन का यही है, यही है रंग रूप 
मुसाफिर जाने वाले नहीं फिर आने वाले/ चलो एक दूसरे को करें रब के हवाले
जिसने हमें मिलाया, जिसने जुदा किया, उस वक्‍़त, उस घड़ी, उस डगर को सलाम
दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं/बड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्‍त मिलते हैं


ज़रा सोचिए कि सिर्फ़ कुछ ही पंक्तियां हैं। ये वो लाइनें हैं जिनका इस्‍तेमाल आम आदमी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में करता है। कभी कोई दोस्‍त किसी से कहता हैबड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्‍त मिलते हैं। कभी कोई किसी परेशान शख्‍़स से कहता हैकुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना। यक़ीन मानिए ये बख्‍़शी साहब के गानों की यात्रा है जो फ़िल्‍म की कहानी, पटकथा और गाने के समानांतर आम ज़िंदगी के भीतर चलती रहती है। हर इंसान के लिए बख्‍़शी साहब के गानों के मायने अलग होते हैं। बख्‍़शी साहब की गीत-यात्रा में ऐसे इतने सूत्र या जीवन-दर्शन मिल जायेंगे कि इन पर अलग से किताब लिखी जा सकती है, बल्कि राकेश आनंद बख्‍़शी और मैंने इसकी योजना भी बना रखी है और हम जल्‍दी ही इस पर काम करेंगे। इस तरह आनंद बख्‍़शी से एक अलग तरह का लगाव बना रहा। जब मैं मुंबई आया तो बख्‍़शी साहब जीवित थे….पर संकोचवश कभी उनसे ना संपर्क किया और न मिलने और बात करने की कोई कोशिश....और बख्‍़शी साहब संसार से चले भी गए। रेडियो पर हमने उनकी याद में ट्रिब्‍यूट प्रोग्राम किया और उन्‍हें आख़िरी विदाई दी। बख्‍़शी साहब के साथ जो एक रिश्‍ता छात्र-जीवन से ही जुड़ गया था उसी की वजह से मैंने इस किताब के अनुवाद का काम अपने हाथ में लिया। मुझे पूरा अंदाज़ा था कि ये कोई आसान काम नहीं होगा। मुझे अपनी पेशेवर और पारिवारिक ज़िंदगी से वक्‍़त चुराना होगा और लगातार लिखना होगा। पर इस सफ़र में बख्‍़शी जी को जिस तरह क़रीब से जानने का मौक़ा मिलने वाला था, मैं उसके लिए पूरी तरह से तैयार था।

सच तो ये है कि जीते-जी बख्‍़शी साहब की गीत-यात्रा का सही आकलन नहीं हुआ। बख्‍़शी की गीत-यात्रा में आपको जीवन के ऐसे सूत्र मिल जायेंगे जिनकी जड़ें कभी विज्ञान में तो कभी दर्शन में बड़ी गहराई तक फैली हुई हैं। रेडियो का आविष्‍कार मार्कोनी ने किया था और उनका मानना था कि ध्‍वनि या आवाज़ें कभी ख़त्‍म नहीं होतीं। वो हमेशा कायम रहती हैं। वो ये मानते थे कि उनकी तीव्रता कम हो जाती है
, इतनी कम कि हम उन्‍हें पहचान नहीं पाते। हालांकि इस बात पर वैज्ञानिक समुदाय में काफ़ी रिसर्च और बहस हुई है। क्‍या आपको पता है कि इस वैज्ञानिक धारणा की छाया बख्‍़शी साहब के एक गाने में नज़र आती है। वो लिखते हैं, आदमी जो सुनता है, आदमी जो कहता है, ज़िंदगी भर वो सदाएं पीछा करती हैं। ये गाना भारतीय संस्कृति के कर्म और फल की अवधारणाका भी प्रतिरूप है। हमारे यहां माना जाता है कि हमारे कर्म ही हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं और हमें अपने अच्‍छे या बुरे कर्मों का प्रतिफल इसी जीवन में भुगतना पड़ता है। अब ज़रा बख्‍़शी साहब के इसी गाने की अगली लाइन देखिए, आदमी जो देता है, आदमी जो लेता है, ज़िंदगी भर वो दुआएं पीछा करती हैं

चूंकि बात भारतीय संस्‍कृति की हो रही है तो ज़रा देखें कि किस तरह बख्‍़शी साहब के गानों में हमारे दर्शन के सूत्र समाए हुए हैं। बृहदारण्‍यक उपनिषद
, यजुर्वेद में कहा गया हैअहं ब्रह्मास्मिअर्थात् मैं ब्रह्म हूं। छांदोग्‍य उपनिषद, सामवेद में अंकित है, तत्‍वमसि। अर्थात् वह ब्रह्म तू है। माण्‍डूक्‍य उपनिषद, अथर्ववेद में अंकित है, अयम आत्‍मा ब्रह्मयानी यह आत्‍मा ब्रह्म है। अब ज़रा बख्शी साहब का फ़िल्‍म धुनके लिए लिखा एक अनमोल गीत सुनिएमैं आत्‍मा तू परमात्‍मा इसे उस्‍ताद मेहदी हसन और तलत अज़ीज़ ने गाया है। इस गाने की पंक्तियां ये रहीं-

मैं आत्‍मा तू परमात्‍मा
मैं तेरा रंग-रूप
, मैं तेरी छांव-धूप
मैं बिलकुल तेरे साथ तू बिलकुल मेरे साथ।।
मैं एक बूंद तू सात समंदर
तू पर्बत-पर्बत मैं कंकर
मैं निर्बल तू बलवान
पर मैं तेरी पहचान
मैं बिलकुल तेरे साथ तू बिलकुल मेरे साथ।।


काश ये फ़िल्‍म रिलीज़ हो पाती और ये गाना उतनी दूर तक पहुंचता, जहां तक जाने का ये हक़दार था। मैं जब भी इसे सुनता या सुनाता हूं तो जाने क्‍यों आंखें भर आती हैं। यहां इस बात पर ग़ौर करना भी बहुत ज़रूरी है कि फ़ि‍लॉसफ़ी की गूढ़ बातों को बख्‍़शी साहब ने बहुत आसान शब्‍दों में गानों में पिरो दिया है, जिसके लिए विद्वान कई पन्‍ने रंग देते हैं और संत घंटों इस पर प्रवचन दिया करते हैं। ये हैरत की बात भी है और यही बख्‍़शी साहब की ख़ासियत भी है। गूढ़ बातों को इतने आसान शब्‍दों में कह देना कि आप अश-अश कर उठें।

बख्‍़शी साहब भले ये कहते रहे हों कि वो आम आदमी हैं
, वो कवि नहीं हैं, वो फ़िल्‍मी-गीतकार हैं, पर उनके भीतर एक बहुत गंभीर व्‍यक्ति छिपा था, जिसे ज़िंदगी की ठोकरों ने दुनिया की समझ सिखायी थी। यही वजह है कि बख्‍़शी के गानों में जगह जगह अलफ़ाज़ के ऐसे जुगनू हैं जो अपनी चमक बिखेरते रहते हैं।
वो फ़िल्‍म
अनुरोधके गाने में लिखते हैं:

हँस कर ज़िंदा रहना पड़ता है
अपना दुःख खुद सहना पड़ता है
रस्ता चाहे कितना लम्बा हो
दरिया को तो बहना पड़ता है
तुम हो एक अकेले तो रुक मत जाओ चल निकलो
रस्ते में कोई साथी तुम्हारा मिल जायेगा
तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो...

बख्‍़शी जी के मन पर विभाजन की ख़रोंच बड़ी गहरी लगी थी। वो
पिंडी दी मिट्टीको कभी भूल नहीं सके। रावलपिंडी से जुदा होना उनके लिए अपनी मां से जुदा होने से भी ज़्यादा दुःख भरा था। अपनी मिट्टी से टूटकर प्‍यार करने की ललक उनके गानों में कई-कई जगह नज़र आती हैं। ग़दर-एक प्रेमकथाके गाने में वो लिखते हैं—

मुसाफ़िर जाने वाले, नहीं फिर आने वाले/
चलो एक दूसरे को करें रब दे हवाले
 

ओ दरिया दे पाणियां/ ये मौजां फिर ना आणियां/
याद आयेगी बस जाने वालों की कहानियां


ना जाने क्‍या छूट रहा है, दिल में बस कुछ टूट रहा है
होठों पर नहीं कोई कहानी
, फिर भी आँख में आ गया पानी

अपनी सरज़मीं से बिछुड़ने की जो विकलता है, वो शायद सबसे ज़्यादा इसी फ़िल्‍मी गाने में समायी हुई है। बख्‍़शी साहब का मन उन गानों में बहुत रमा और भीगा है जहां लोग परदेस जा बसे हैं और उनके अपने उन्‍हें शिद्दत से याद कर रहे हैं, उन्‍हें पुकार रहे हैं-  

कोयल कूके हूक उठाये/ यादों की बंदूक चलाए
बाग़ों में झूलों के मौसम वापस आये रे
इस गांव की अनपढ़ मिट्टी
पढ़ नहीं सकती तेरी चिट्ठी
ये मिट्टी तू आकर चूमे
तो इस धरती का दिल झूमे
माना तेरे हैं कुछ सपने
पर हम तो हैं तेरे अपने
भूलने वाले हमको तेरी याद सताए रे।।
घर आ जा परदेसी तेरा देस बुलाए रे।।  

ये
दिल वाले दुल्‍हनिया ले जायेंगेका वो गाना है जिसे इसका हक़ नहीं मिला, क्‍योंकि इसके रूमानी गानों की शोहरत बहुत बहुत ज़्यादा हो गयी। बख्‍़शी साहब के ऐसे गानों का सरताज है फ़िल्‍म नामका गाना –चिट्ठी आई है। ये एक गाना नहीं बल्कि एक मिथक, एक मुहावरा, जज्‍़बात की एक टोकरी बन चुका है। यूं तो इस गाने की एक-एक लाइन लोगों को रुलाती रही है पर इस अंतरे को देखिए जिसमें परदेसियों के दूर जा बसने की पीड़ा कितनी गहरी समायी हुई है--

तेरे बिन जब आई दीवाली
, दीप नहीं दिल जले हैं ख़ाली
तेरे बिन जब आई होली
, पिचकारी से छूटी गोली
पीपल सूना पनघट सूना घर शमशान का बना नमूना
फसल कटी आई बैसाखी
, तेरा आना रह गया बाक़ी
चिट्ठी आई है...।।

बिछड़ने का दर्द बख्‍़शी साहब के गानों में बड़ी गहराई से समाया हुआ है और शायद इसकी वजह उनका अपनी सरज़मीं से बिछड़ना तो रहा ही है, बहुत बचपन में मां को खो देना एक टीस बनकर सारी ज़िंदगी उन्‍हें चुभता रहा है और जब तब इस दर्द का इज़हार उनके गानों में होता रहा है। फ़िल्‍म दुश्‍मनका गाना तो कोरोना के इस भयानक समय में बार-बार याद किया जा रहा है, ये ऐसा समय है जब कई लोगों ने अपने परिवार के सदस्‍यों को असमय खो दिया है। आखिरी वक्‍़त पर वो उनके साथ मौजूद तक नहीं रह पाए: 

एक आह भरी होगी
, हमने न सुनी होगी
जाते जाते तुमने
, आवाज तो दी होगी
हर वक़्त यही है ग़म
, उस वक़्त कहाँ थे हम
कहाँ तुम चले गए....

कितने ही श्रद्धांजलि संदेशों में इन दिनों मैंने इस गाने का इस्‍तेमाल देखा है। यहां ये महसूस करना बड़ा ज़रूरी है कि जिसने
अपनोंको खोया है, उस लॉसको स्‍वीकार करने की अपनी एक यात्रा होती है। मन एकदम से स्‍वीकार नहीं कर पाता, समय लगता है इस क्रूर सच्‍चाई को स्‍वीकार करने में। बख्‍़शी जी के दुश्‍मनके गाने समेत कई गाने ऐसे समय में मरहम का काम करते हैं। फ़िल्‍म बालिका बधुके जगत मुसाफ़िरख़ाना जैसे गाने उन्‍हें कबीर की परंपरा पर ला खड़ा करते हैं।

बख्‍़शी साहब की एक और ख़ासियत थी। वो अपने गानों के लिए बाक़ायदा ढेर सारे अंतरे लिखते थे। इस किताब में इस बात का ज़िक्र बार-बार आता है। निर्देशक और संगीतकार उनमें से चुन लेते थे कि कौन-से अंतरे रिकॉर्ड किए जाएंगे। ज़ाहिर है कि उनका लिखा जो कुछ हमारे सामने आया है
, तकरीबन उतना ही शायद हमारे सामने नहीं आ सका है। अच्‍छी ख़बर ये है कि राकेश जी के पास वो अंतरे बाक़ायदा मौजूद हैं। इसके अलावा उनकी वो नज़्में भी जो उन्‍होंने अपने शौक़ के लिए लिखी थीं। उन्‍हें राकेश आनंद बख्‍़शी मार्च 2022 में एक पुस्‍तक के रूप में प्रकाशित करके दुनिया के सामने लायेंगे। तब तक उन गानों को हम देख सकते हैं जिनके उन्‍होंने मेल-फ़ीमेल अलग-अलग संस्‍करण लिखे हैं। जैसे मेहबूबाका गाना मेरे नैना सावन भादो। या जब जब फूल खिलेका गाना परदेसियों से ना अंखिया मिलानाके तीन संस्‍करण। उन्‍होंने ग़दर-एक प्रेमकथामें जहां उड़ जा काले कावांगाने के तीन-तीन संस्‍करण लिख डाले थे और तीनों का अपना अलग मिज़ाज है।

एक गीतकार जब इतने लंबे समय तक सक्रिय रहे तो उसे वक्‍़त के मुताबिक़ बहुत बदलना पड़ता है। क्‍योंकि तब तक निर्देशकों
, कलाकारों, संगीतकारों की कई पीढ़ियां आ चुकी होती हैं। हर पीढ़ी अपना एक मिज़ाज लेकर आती है। हर पीढ़ी अपनी भाषा भी लेकर आती है। पर इसके बावजूद बख्‍़शी साहब बिलकुल नये ज़माने तक लगातार ना सिर्फ लिखते रहे बल्कि हिट भी रहे। लोगों के दिलों को छूते रहे। मैंने कितने ही कॉलेज के बच्‍चों को इस गाने को अपने फ़ंक्‍शन्‍स में गाते और इस पर परफ़ॉर्म करते हुए देखा है और कितनी एनर्जी और कितनी सनसनी छा जाती थी माहौल पर--

इक लड़की थी दीवानी सी इक लड़के पे वो मरती थी
नज़रें झुका के शरमा के गलियों से गुजरती थी
चोरी चोरी चुपके चुपके चिट्ठियां लिखा करती थी
कुछ कहना था शायद उसको जाने किससे डरती थी

इसी फ़िल्‍म में उन्‍होंने चार ऐसी पंक्तियां लिख दी हैं जिसमें उन्‍होंने आज के पूरे माहौल को पिरो दिया है

दुनिया में कितनी हैं नफ़रतें
फिर भी दिलों में हैं चाहतें
मर भी जाएं प्यार वाले
मिट भी जाएं यार वाले
ज़िंदा रहती हैं उनकी मोहब्बतें!!

ये सही मायनों में 21 वीं सदी का गाना है। बख्‍़शी साहब किसी एक समय या सदी तक महदूद नहीं रहेंगे। जब तक लोग इश्‍क़ करते रहेंगे, जब तक अपने दिल की बात कहते रहेंगे, जब तक परिवार रहेंगे, रिश्‍ते रहेंगे, दुनिया की चालबाज़ियां और बदमाशियां रहेंगी तब तक बख्‍़शी साहब के गाने सुने और गाये जाते रहेंगे। उनकी बातें की जाती रहेंगी क्‍योंकि--

ये जीवन दिलजानी दरिया का है पानी
पानी तो बह जाए बाकी क्या रह जाए
यादें यादें यादें

5 comments:

  1. विषय–वस्तु सर्वोच्च ! प्रस्तुति हाहा वही विविध –भारती के मेरे सबसे चहेते उद्घोषक की लग रही! पता नहीं चल रहा मैं ये सब पढ़ा या गांव में अपने रेडियो पर कान गड़ाए सुना ....
    आभार सर 🙏❤️

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  2. अतिसुंदर, मन मोह लिया ।

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  3. ❤️❤️आपकी संवेदनशीलता को प्रणाम🙏🙏❤️❤️

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