Tuesday, December 2, 2008

कुछ कर गुज़रने को ख़ून चला

रेडियोवाणी पर इन दिनों कुछ भी सुनने सुनाने का मन नहीं है ।
हम ख़ामोश रहना चाहते हैं और एक किनारे बैठकर तमाशा देखना चाहते
हैं । हम अपने ग़ुस्‍से को उबलने देना चाहते हैं । कल सुरमई उदास शाम में इस गीत ने मन को मथ
दिया । हम आपके मन को भी मथ देना चाहते हैं ।




स्‍वर-मोहित चौहान
रचना-प्रसून जोशी
संगीत-रहमान
फिल्‍म-रंग दे बसंती
अवधि: बमुश्किल तीन मिनिट

कुछ कर गुज़रने को ख़ून चला
आंखों के शीशे में उतरने को ख़ून चला
बदन से टपक कर, ज़मीन से लिपटकर
दुनिया से, रस्‍तों से उभरकर, उमड़कर 
नये रंग भरने को ख़ून चला, ख़ून चला ।।
खुली-सी चोट लेकर, बड़ी-सी टीस लेकर
आहिस्‍ता-आहिस्‍ता सवालों की उंगली,
जवाबों की मुट्ठी संग लेकर ख़ून चला ।
कुछ कर गुज़रने को ख़ून चला, ख़ून चला ।।

11 comments:

  1. समय के हिसाब से गीत का चयन उत्तम है धन्यबाद

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  2. यूनुस भाई,
    शायद अब इसी खून की जरूरत है जो खून से भरे सड़कों को साफ़ कर सके और अमन के फूल खिला सके.

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  3. सही, सामयिक भाव।

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  4. आज के वातावरण में यह सटीक गीत है ।

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  5. क्या कहें ! इस फ़िल्म की तरह बदलाव हो जाय शायद अब !

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  6. सामयिक भाव सटीक गीत है.

    mahendr mishra jabalpur.

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  7. अमर शहीदोँ को हमारी श्रध्धाँजलि
    अब भी वक्त है सम्हलने का
    शहीदोँ का खून सस्ता नहीँ है -
    उन्नीकृषणन की माँ के आँसू देखिये

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  8. ये गुस्सा आज हर भारतवासी का है,गीत बहुत बड़िया है और सामयिक भी…आभार

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