Tuesday, October 9, 2007

लोग औरत को फ़क़त जिस्‍म समझ लेते हैं--साहिर का एक तल्‍ख़ नग्‍़मा



मुंबई में भी कंजंक्टिवाइटिस का प्रकोप फैला हुआ है और मैं भी इस प्रकोप से बच नहीं सका । कल आंख की गड़ती किरकिरी के बीच बैंगलोर के हमारे मित्र शिरीष कोयल से बातचीत हुई और उन्‍होंने याद दिलाया कि साहिर लुधियानवी की पुण्‍यतिथ‍ि आ रही है । फिर बातों ही बातों में उन्‍होंने बी आर चोपड़ा की फिल्‍म 'इंसाफ का तराज़ू' के एक गीत का जिक्र किया जिसके बोल हैं--लोग और को फ़क़त जिस्‍म समझ लेते हैं । बरसों बाद इस गाने की याद आई । शुक्रिया शिरीष भाई ।

मैंने शिरीष भाई से कहा कि इस गाने को तो जैसे जनता ने भुला ही दिया है । आमतौर पर भारत में थीमेटिक गीतों के साथ यही होता है । ये गीत नारी की चेतना को जगाने और दुनिया की ज़ुल्‍मतों का कच्‍चा चिट्ठा खोलने वाला तल्‍ख़ गीत है । रोमांस की चाशनी का स्‍वाद लेकर इठलाते हुए समाज को भला ये तल्‍ख़ी कैसे पसंद आयेगी । इसलिए शायद इस गाने को रेडियो स्‍टेशन तक नहीं बजाते । जबकि जिस समस्‍या पर ये फिल्‍म केंद्रित थी वो समस्‍या आज भी जस की तस बनी हुई है । और आज इस गीत की प्रासंगिकता और ज्‍यादा बढ़ गयी लगती है । इस गीत की एक एक पंक्ति कितनी मौज़ूं है, आप पढ़ेंगे तो अहसास होगा ।



साहिर लुधियानवी महज़ एक गीतकार नहीं थे । वो पहले शायर थे और बाद में गीतकार । इसीलिए उनके यहां शायरी की शख्सियत गीतों पर सदा हावी रही है और यहीं उनका मजरूह सुल्‍तानपुरी से विरोध रहा है । साहिर के बेहद इंटलेक्‍चुअल गीतों के बारे में मजरूह ने एक बार आमने-सामने कहा था--अमां हीरो है बग़ीचे का माली और तुम उससे ग़ज़ल कहलवा रहे हो, अरे भैया बग़ीचे के माली की पृष्‍ठभूमि तो देखो, उसकी भाषा को तो समझो, फिर कहो । बहरहाल । साहिर और मजरूह का ये रचनात्‍मक विरोध फिल्‍म-संसार में गीतों की रचना को लेकर हमेशा बने रहे संशय की मिसाल है । जावेद अख्‍तर जब 'एक लड़की को देखा' या अपने हिट गीतों में से कोई भी रचते हैं तो शाबाशी पाते हैं । और जब फिल्‍म के छर्रे टाईप हीरो के लिए 'दर्दे डिस्‍को' लिखते हैं तो लानतें-मलामतें पाते हैं । यही हाल गुलज़ार का रहा है । जब उन्‍होंने 'मेरा कुछ सामान' या 'तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी' लिखा तो उन्‍हें शाबाशी दी गयी । और कई लोगों ने 'बीड़ी' या फिर फिल्‍म 'जानेमन' के गीतों पर कड़ा एतराज़ जताया । यहां तक कि 'कजरा रे' पर भी । ख़ैर ये अलग से विचार विमर्श का मुद्दा है । और याद रहा तो जल्‍दी ही गीतकारों के रचनात्‍मक-शिखर और पेशेवर-गर्त में पहुंचने की कई मिसालें लेकर मैं अलग से हाजि़र होऊंगा ।

फिलहाल ये संजीदा गीत सुनिए । और बताईये कि कैसा लगा । इस गाने की एक एक पंक्ति तेज़ाबी है ।

लोग औरत को फकत जिस्‍म समझ लेते हैं ।
रूह भी होती है उसमें, ये कहां सोचते हैं
रूह क्‍या होती है इससे उन्‍हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तकाज़ों का कहा मानते हैं
रूह मर जाए तो हर जिस्‍म एक चलती हुई लाश
इस हक़ीक़त को समझते हैं ना पहचानते हैं
लोग औरत को फ़क़त जिस्‍म समझ लेते हैं ।।

कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है कायम ये गुनाहों का रवां
लोग औरत की हरेक चीख़ को नग़्मा समझें
वो क़बीलों का ज़माना हो के शहरों का समां
लोग औरत को फक़त जिस्‍म समझ लेते हैं ।।



जब्र से नस्‍ल बढ़े ज़ुल्‍म से तन मेल करे
ये अमल हममें है बेइल्‍म परिंन्‍दो में नहीं
हम जो इंसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं
हमसा वहशी कोई जंगल की दरिंदों में नहीं
लोग औरत को फ़क़त जिस्‍म समझ लेते हैं ।।

एक मैं ही नहीं क्‍या जाने ये कितनी होंगी
जिनको अब आईना तकने से झिझक आती है
जिनके ख्‍वाबों में ना सेहरे हैं ना सिंदूर ना सेज
राख ही राख है जो ज़ेहन पे मंडलाती है
लोग औरत को फ़क़त जिस्‍म समझ लेते हैं ।।

इक बुझी रूह, लुटे जिस्‍म के ढांचे में लिए
सोचती हूं कि कहां जाके मुकद्दर फोड़ूं
मैं ना जिंदा हूं कि मरने का सहारा ढूंढूं
और ना मुरदा हूं कि जीने के ग़मों से छूटूं
लोग औरत को फ़क़त जिस्‍म समझ लेते हैं ।।

कौन बतलाएगा मुझको किससे जाकर पूछूं
जिंदगी ज़हर के सांचों में ढलेगी कब तक
कब तलब आंख ना खोलेगा ज़माने का ज़मीर
ज़ुल्‍म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक
लोग औरत को फ़क़त जिस्‍म समझ लेते हैं ।।


इस गाने को आप यहां सुन सकते हैं ।


इस गाने को यहां देखा भी जा सकता है ।

Insaf Ka Tarazu - log aurat ko Video Clip


यहां दी गयी तस्‍वीर में कौन लोग हैं पहचाना क्‍या आपने ।
अगर नहीं तो पह‍चानिए--सबसे बांये शॉल ओढ़े हमारे किशोर दा हैं । फिर सदाबहार दे...व आनंद । फिर साहिर लुधियानवी और यश चोपड़ा ( जो सगे भाई जैसे दिख रहे हैं ) और सबसे दाहिनी तरफ हैं पंचम । मैंने याददाश्‍त पर बहुत ज़ोर डाला पर आज की सुबह तो याद नहीं आ रहा है कि कौन सी फिल्‍म रही होगी, जिसे यश चोपड़ा या देव आनंद ने बनाया और साहिर ने गाने लिखे और‍ किशोर दा ने गाया । हो सकता है कि ये देव साहब की उन फिल्‍मों में से एक हो जिसमें आर डी बर्मन का म्‍यूजिक हो । और यहां यश चोपड़ा और साहिर बस घूमते घूमते ही पहुंच गये हों ।


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16 comments:

  1. वाह यूनुस जी सचमुच ये गीत बहुत ही कम सुनने को मिला है, मैंने भी कभी जब यह फ़िल्म देखी थी तभी सुना था शयद, रेडियो पर भी कम ही बजता है, आपने जिंदा कर दिया फ़िर, और साहिर साहब के तो क्या कहने, अब देखिये उन्होंने सर जो तेरा चकराए लिखा तो पात्र पर बिल्कुल सटीक बैठा है, और शायरी नही है तो क्या, मिठास तो लफ़्ज़ों की वही है

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  2. युनुसजी,
    साहिरजी की शायरी में ऐसे पैने खंजर भी हैं, जानकर और पढकर बडा अच्छा लगा ।

    साहिरजी का ही लिखा १९५८ की फ़िल्म साधना का गीत "औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया" भी अपने में बडी तल्खी समेटे है । जब भी उसे सुनता हूँ तो अजीब सी बैचेनी होती है जिसे शब्दों में बयाँ करना नामुमकिन है । ये रहा उस गीत का लिंक:

    http://www.esnips.com/doc/196b2e86-5933-4716-99e5-f9b64f7fc955/Aurat-Ne-Janam-Diya-Mardon-Ko---Sadhana-1958---Lata-Mangeshkar

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  3. जल्द ही आप कन्जक्टिवाईटिस से मुक्त हों ऐसी कामना है ।

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  4. yunusbhai aap jis tasveer ki baat kar rahe ho kahin wo 'joshilay' film se sambandhit to nahin?..shayad isi me kishore ka gana tha''kis ka rasta dekhe...ai dil ai saudaee...''

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  5. मैंने ये पिक्चर काफी पहले देखी थी। पर इस गीत का ख्याल नहीं रहा। पर बहुत भावपूर्ण गीत है। यहाँ पेश करने का शुक्रिया।
    गुलज़ार की बीड़ी और कजरारे में भी एक कलात्मकता है और उनकी तुलना आजकल फैशन में आए बाकी आइटम गीतों से नहीं की जा सकती।

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  6. बहुत बढ़िया, शुक्रिया युनूस भाई!!

    देख लो आ गई ना आंख, पैले ही बोला तो अपन ने कि सोच समझ के लड़ाना नैन्। अब नैन लड़ाने की इतनी सज़ा तो भुगतनी ही होगी न!! चलो खैर, जल्दी से ठीक हो जाओ तो आगे फ़िर नैन लड़ाना!!

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  7. युनूस भाई,
    यह तस्वीर शायद फ़िल्म जोशीला के दर्द-भरे गाने 'किसका रस्ता देखें ऐ दिल ऐ सौदाई' के रेकॉर्डिंग के वक्त की है | यश चोपडा इस फ़िल्म से सम्बंधित तो नही थे, शायद साहिर के साथ वहाँ पर आ गए हो |
    आप ने कल इस बात का ज़िक्र क्यों नही किया की आपको कंजंक्टिवाइटिस हो गया है? बस कुछ दिनों की त्रासदी है यह!
    Get well soon.

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  8. आपके जल्द स्वस्थ होने की कामना करता हूँ.

    तस्वीर के लोगो को पहचान गये थे जी.

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  9. यूनुस भाई
    जो मैं कहना चाहता था उसे नीरज रोहिल्ला जी कह गये बस उसे कॉपी पेस्ट कर पढ़ लेवें। :)
    मुझे इस गाने की तुलना में औरत ने जन्म दिया.... ज्यादा अच्छा लगता है।

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  10. अभी तो आप ही हमारी संगीत सरिता हो गए हैं.....बहुत अच्छा बज रहा है आपका रेडियो

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  11. मैंने याददाश्‍त पर बहुत ज़ोर डाला पर आज की सुबह तो याद नहीं आ रहा है कि कौन सी फिल्‍म रही होगी, जिसे यश चोपड़ा या देव आनंद ने बनाया और साहिर ने गाने लिखे और‍ किशोर दा ने गाया । हो सकता है कि ये देव साहब की उन फिल्‍मों में से एक हो जिसमें आर डी बर्मन का म्‍यूजिक हो । और यहां यश चोपड़ा और साहिर बस घूमते घूमते ही पहुंच गये हों ।
    एक ही फ़िल्म हो सकती है - 1973 की जोशीला. यश चोपड़ा, देव, साहिर, पंचम, और किशोर - ये सभी उसका हिस्सा थे. और क्या कमाल के गाने थे. इस दुर्लभ तस्वीर के लिए शुक्रिया.

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  12. एक अर्से बाद यह गीत सुना. बहुत बढ़िया प्रस्तुति रही. तस्वीर में तीन को एकदम पहचान गये थे, दो आप्के माध्यम से पहचाने गये.

    लाल आँख लिये जबलपुर जा रहे हैं कि कार्यक्रम में फेरबदल किया है??

    जल्द स्वास्थयलाभ की शुभकामनायें.

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  13. प्रिय मित्रो वाक़ई जोशीला फिल्‍म की तो याद ही नहीं आई, सुबह सुबह हड़बड़ी में ।
    वाह क्‍या याद दिलाई है । इस फिल्‍म के सभी गीत मुझे पसंद रहे हैं । अब तो यक़ीन हो गया कि ये जोशीला से जुड़ी तस्‍वीर ही है । जो भी हो शिरीष भाई का शुक्रिया कि उन्‍होंने मुझे ये तस्‍वीर उपलब्‍ध कराई और ये गाना भी याद दिलाया ।

    और हां समीर भाई
    आंख की लाली तो बची है पर किरकिरी और पानी दोनों गए ।
    यानी हमारे जबलपुर जाने में जो संदेह था वो काफी कुछ खत्‍म हो गया ।
    अब तो बड्डे रूकहें ने ।

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  14. स्वास्थ के लिये शुभ कामना।

    मैं गीत की नहीं कहता पर गीत में नारी के प्रति जो विकृत धारणा पर जो प्रकाश डाला है - उस सन्दर्भ में उस विकृत धारणा का विरोध करता हूं।
    नारी के प्रति बहुत नजरिया बदल की जरूरत है।

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  15. चलिए आंख की शर्म (लाली) अभी बची है आपमें।
    यह अच्छा हुआ किरकिरी चली गई।

    अन्नपूर्णा

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