आज हमारा ये संगीत-ब्लॉग ‘रेडियोवाणी’ अपने बारह वर्ष पूरे करने जा रहा है।
एक ज़माना था जुनून था ब्लॉगिंग का। हालांकि हर बरस हम यह सोचते हैं कि अब ब्लॉगिंग को और आगे बढ़ाया जाएगा—पर अनेक कारणों से ऐसा हो नहीं पा रहा है। बीते कुछ बरस से तो फेसबुक पर संगीत पर लिखने के अपने शौक़ को आगे बढ़ाया जा रहा था पर फिलहाल तो हम
अन्य व्यस्तताओं के चलतेे फेसबुक से कुछ दिनों के लिए दूर हैै। हमारे लिए ‘रेडियोवाणी’ की सालगिरह बहुत ही ख़ास दिन होता है, ब्लॉगिंग के सुनहरे दौर ने जीवन की बेमिसाल यादें दी हैं।
रेडियोवाणी के ज़रिए बीते इन सालों में हमने संगीत के सागर में गहरी डुबकी लगायी है और जो कुछ हमें अच्छा लगा, मन भाया उसे पेश किया है। ख़ैयाम साहब की बात हमेशा मन में गूंजती है कि संगीत एक इबादत है और लोग इसे भूलते जा रहे हैं। फिर मजरूह का शेर रेडियोवाणी का नारा बन चुका है-‘हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं’।
रेडियोवाणी की सालगिरह के इस मौक़े पर हम अपने बहुत ही प्रिय गीतकार मजरूह को ही नमन कर रहे हैं। इसकी एक वजह ये भी है कि ये बरस मजरूह का जन्मशती वर्ष है। मजरूह के शैदाईयों के लिए जश्न मनाने का बरस। कोशिश रहेगी कि इस बरस भर हम मजरूह की बातें करते रहें, बतौर शायर भी और बतौर गीतकार भी।
एक बड़ी ही दिलचस्प बात बीते कुछ बरसों से मन में गूंज रही थी। और वो ये कि मजरूह ने ‘तीसरी क़सम’ का एक गीत लिखा था। पर ऐसा कोई साक्ष्य नहीं था हमारे पास। रिकॉर्ड में खोजबीन की—तो भी बात नहीं बनी। क्योंकि मजरूह के क्रेडिट वाला रिकॉर्ड हाथ नहीं लगा। पता नहीं है भी या नहीं।
बहरहाल...अज़ीज दोस्त पवन झा ने बताया कि वह गाना है—‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई/ काहे को दुनिया बनायी’। इसका मुखड़ा मजरूह का था और इसे आगे चलकर हसरत जयपुरी ने पूरा किया था। आगे चलकर इस खोजबीन में मदद की एक और अज़ीज़ दोस्त असद-उर-रहमान किदवई ने। उन्होंने यूट्यूब से खोजकर हमें यह वीडियो भेजा। इसे आप भी देखिए और सुनिए--
इस वीडियो को सुनने से पहले ये समझना ज़रूरी है कि मजरूह यूनानी चिकित्सा में डिप्लोमा थे और मुंबई के एक प्रसिद्ध मुशायरे में नामचीन शायर जिगर मुरादाबादी के साथ आए थे। इसी दौरान जाने माने निर्माता निर्देशक ए.आर. कारदार ने मजरूह को फिल्मों में गाने लिखने का न्यौता दिया था। ये 1946 की बात है जब मजरूह ने ‘जब दिल ही टूट गया’ और ‘ग़म दिए मुस्तकिल’ जैसे कालजयी गीत रच दिए थे- और इन्हें सहगल ने गाया था। संगीत नौशाद का था। मजरूह तरक्कीपसंद शायर थे। यानी वो उस टोली के शायर थे जिसमें साहिर लुधियानवी, अली सरदार जाफरी और कैफी आज़मी जैसे सितारे जगमगा रहे थे और जो चाहते थे कि दुनिया में सबको रोशनी बराबर मिले, सबका हक़ बराबर हो। कोई छोटा बड़ा ना हो।
बहरहाल... जैसा कि वीडियो में मजरूह बता रहे हैं कि जब सन 1948 में राजकपूर ‘आग’ बना रहे थे—तो उन्हें एक गाने की ज़रूरत थे, जो बतौर तोहफा मजरूह ने राजकपूर को दे दिया था। वो गाना था ये--'रात को जी चमकें तारे'
ये वो दौर था जब एक गाने की फीस औसतन ढाई सौ रूपए होती थी, यानी डिप्टी कलेक्टर की तनख्वाह के बराबर। पर मजरूह ने पैसे नहीं लिए तो नहीं लिए। सन 1950 में जब ‘अंदाज़’ बहुत कामयाब हुई और इसके गाने जनता की ज़बान पर चढ़ गए—उन्हीं दिनों में समाजवाद का सपना मजरूह को टूटा हुआ सा दिख रहा था और उन्होंने तब के हालात का विरोध करते हुए लिखा था-
‘कौन कहता है इस धरती पर अमन का झंडा लहराने ना पाए
ये भी हिटलर का चेला है मार दे साथी जाने ना पाए’।
इस गाने का जो संदेश था, इसके जुर्म में मजरूह के नाम का वॉरंट निकल गया। और उनके जेल जाने की नौबत आ गयी। जब ये बात राजकपूर को पता चली तो वो मजरूह के पास आए और उनसे कहा कि देखिए आपने एक गाना ‘आग’ में लिखा था, एक और लिख दीजिए—गाने का विषय कुछ ये है कि ऊपर वाले तूने ये दुनिया क्यों बनायी। तो मजरूह ने मुखड़ा लिखा—
‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी/
तूने काहे ये दुनिया बनायी’।
संभवत: मजरूह ने इसके अंतरे भी लिखे होंगे, जिनका इस्तेमाल ना किया गया हो। या हो सकता है कि केवल मुखड़ा दिया हो और आगे का गाना राजकपूर या शैलेंद्र ने हसरत जयपुरी से लिखवाया हो और राजकपूर ने इसके बदले में मजरूह को एक हजार रूपए दिए थे ताकि अगर जेल हो भी जाए तो उनके परिवार की मदद हो जाए। कोई दिक्कत ना पेश हो।
जो भी हो गाना—‘तीसरी क़सम’ का ये गाना बड़ा ही अद्भुत बन पड़ा है और जीवन की राहों में अकसर ये सवाल हमारे मन में उठ खड़ होता है—बिलकुल इन्हीं शब्दों में यह सवाल हमारे मन में आता है।
इस गाने का असली आनंद संवादों के साथ है। इसलिए आज रेडियोवाणी पर हम संवादों वाला संस्करण ही लाए हैं।
पवन झा के सौजन्य सेे इस गाने का सुमन कल्याणपुर वाला कम सुना संस्करण
ये रही इस गाने की इबारत
काहे बनाये तूने माटी के पुतले
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले
काहे बनाया तूने दुनिया का खेला
जिसमें लगाया जवानी का मेला
गुपचुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई
काहे को दुनिया बनायी।।
तू भी तो तड़पा होगा मन को बनाकर
तूफां ये प्यार का मन में छुपाकर
कोई छबि तो होगी आंखों में तेरी
आंसू भी छलके होंगे पलकों से तेरी
बोल क्या सूझी तुझको, काहे को प्रीत जगायी
काहे को दुनिया बनायी।।
प्रीत बनाके तूने जीना सिखाया
हंसना सिखाया रोना सिखाया
जीवन के पथ पर मीत मिलाए
मीत मिलाके तूने सपने जगाए
सपने जगाके तूने काहे को दे दी जुदाई
काहे को दुनिया बनायी।।
तो रेडियोवाणी की बारहवीं सालगिरह पर ये थी एक विशेष पोस्ट।
अगली पोस्ट में जिस विषय पर बातें होंगी, वो है--
'मुखड़ा किसी और का—गाने किसी और का'।
तो सोच क्या रहे हैं, बधाई नहीं देंगे क्या हमें।
तीसरी कसम का पोस्टर cinestaan से साभार
बहुत बधाई गुरुजी
ReplyDeleteशानदार पोस्ट
ReplyDeleteसप्रेम बधाई, प्रिय बंधु
ReplyDeleteयूनुस भाई साहब रेडियोवाणी की 12 वीं सालगिरह व इस प्रस्तुति की बहुत बधाई। रेडियोवाणी को प्लीज नियमित रखें जाने दे दुनिया को यूट्यूब गूगल रूपी जहाज पर अपनी बैलगाड़ी ही अच्छी 100 नही 10 श्रोता भी हो तो चलेगा
ReplyDeleteBhai nice post, thank you
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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