निदा फ़ाज़ली को पद्म-श्री देने की घोषणा हो गयी है। वे हमारे समय के महत्त्वपूर्ण शायर और गीतकार हैं। ये समझना थोड़ा मुश्किल है कि फिल्म-संसार में उनकी पारी लंबी और हरी-भरी क्यों नहीं रही--फिर भी शुक्रगुज़ार होना चाहिए निदा फ़ाज़ली का...कि
उन्होंने हमें अपनी तन्हाईयों का साथ देने वाले कुछ नायाब गाने दिये। चाहे 'रजिया सुल्तान' का कब्बन मिर्जा़ का गाया गाना--'तेरा हिज्र मेरा नसीब है' हो या फिर 'आप तो ऐसे ना थे' का 'तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है' या फिर 'स्वीकार किया मैंने' का 'अजनबी कौन हो तुम'...इस तरह के गानों की एक लंबी फेहरिस्त है। मुमकिन हुआ तो हम 'रेडियोवाणी' पर निदा के कई गीत एक के बाद एक सुनवायेंगे।
लेकिन निदा के सबसे अच्छे अशआर ग़ैर-फिल्मी ग़ज़लों की शक्ल में नुमाया हुए हैं और ये सहज भी है। ग़ज़लों में वो एक आज़ाद शायर होते हैं--धुनों या अलफ़ाज़ की क़ैद से दूर। जहां वो अपने मन की बात कह सकते हैं। ऐसी ग़ज़लों की भी लंबी फेहरिस्त है। बहरहाल.... जब निदा को जगजीत की आवाज़ मिली है तो जैसे एक तिलस्म रच गया है।
निदा मन की कंदराओं में छिपे दर्द को सहलाने वाले शायर हैं। ग्वालियर से मुंबई तक का ऊबड़-खाबड़ सफ़र तय करने वाले निदा ने अपनी शायरी को आम आदमी से जोड़ा। ख्वाबों-ख्यालों, हुस्न और इश्क़ की बजाय उन्होंने जिंदगी के कडियल सफ़र को अलफ़ाज़ में उतारा।
वो टूटते हुए रिश्तों, धर्म की ख़तरनाक ज़ंजीरों, सरहदों, मां, बच्चों और रोज़मर्रा की जाने किन किन चीज़ों पर लिखा है।
उनकी ये ग़ज़ल देखिए--
बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता।।
सब कुछ तो है क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यों नहीं जाता।।
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यों नहीं जाता।।
वो नाम जो बरसों से ना चेहरा है ना बदन है
वो ख्वाब अगर है तो बिखर क्यों नहीं जाता।।
निदा ने दोहों पर भी प्रयोग किये हैं।
मैं रोया परदसे में भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।।
सीता-रावण-राम का करें विभाजन लोग
एक ही तन में देखिए तीनों का संजोग
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
सीधा-सादा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान
सबकी पूजा एक-सी, अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत।।
निदा के ये दोहे अनूठा प्रयोग हैं। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में दोहों की पुनर्खोज। उनकी आवाज़ में ये दोहे यहां सुने जा सकते हैं।
आज हम निदा की एक नायाब ग़ज़ल लेकर आये हैं जिसे जगजीत सिंह ने गाया। इसे आपने दूरदर्शन वाले ज़माने में (शायद 1991 के आसपास) डॉ राही मासूम राजा के लिखे मशहूर सीरियल 'नीम का पेड' के शीर्षक-गीत के रूप में काफी सुना होगा। निदा की इस बेहद मानीख़ेज़ ग़ज़ल को जिस इन्टेन्स तरीक़े से जगजीत ने गाया है, उससे ये रचना आपके भीतर ठहर जाती है। आप इससे बहुत देर तक बाहर नहीं आ पाते।
ghaza: Munh ki baat sune har koi
album: MARASIM
singer: jagjit singh
shayar: Nida Faazli
duration: 6:06
https://youtu.be/B4eLE3Um1jU
मुंह की बात सुने हर कोई दिल का दर्द जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन
सदियों-सदियों वही तमाशा, रस्ता-रस्ता लंबी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन।।
वो मेरा आईना है, मैं उसकी परछाईं हूं
मेरे ही घर में रहता है, मुझ जैसा ही जाने कौन।।
किरन-किरन अलसाता सूरज, पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है, ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन।।
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लेकिन निदा के सबसे अच्छे अशआर ग़ैर-फिल्मी ग़ज़लों की शक्ल में नुमाया हुए हैं और ये सहज भी है। ग़ज़लों में वो एक आज़ाद शायर होते हैं--धुनों या अलफ़ाज़ की क़ैद से दूर। जहां वो अपने मन की बात कह सकते हैं। ऐसी ग़ज़लों की भी लंबी फेहरिस्त है। बहरहाल.... जब निदा को जगजीत की आवाज़ मिली है तो जैसे एक तिलस्म रच गया है।
निदा मन की कंदराओं में छिपे दर्द को सहलाने वाले शायर हैं। ग्वालियर से मुंबई तक का ऊबड़-खाबड़ सफ़र तय करने वाले निदा ने अपनी शायरी को आम आदमी से जोड़ा। ख्वाबों-ख्यालों, हुस्न और इश्क़ की बजाय उन्होंने जिंदगी के कडियल सफ़र को अलफ़ाज़ में उतारा।
वो टूटते हुए रिश्तों, धर्म की ख़तरनाक ज़ंजीरों, सरहदों, मां, बच्चों और रोज़मर्रा की जाने किन किन चीज़ों पर लिखा है।
उनकी ये ग़ज़ल देखिए--
बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता।।
सब कुछ तो है क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यों नहीं जाता।।
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यों नहीं जाता।।
वो नाम जो बरसों से ना चेहरा है ना बदन है
वो ख्वाब अगर है तो बिखर क्यों नहीं जाता।।
निदा ने दोहों पर भी प्रयोग किये हैं।
मैं रोया परदसे में भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।।
सीता-रावण-राम का करें विभाजन लोग
एक ही तन में देखिए तीनों का संजोग
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
सीधा-सादा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान
सबकी पूजा एक-सी, अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत।।
निदा के ये दोहे अनूठा प्रयोग हैं। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में दोहों की पुनर्खोज। उनकी आवाज़ में ये दोहे यहां सुने जा सकते हैं।
आज हम निदा की एक नायाब ग़ज़ल लेकर आये हैं जिसे जगजीत सिंह ने गाया। इसे आपने दूरदर्शन वाले ज़माने में (शायद 1991 के आसपास) डॉ राही मासूम राजा के लिखे मशहूर सीरियल 'नीम का पेड' के शीर्षक-गीत के रूप में काफी सुना होगा। निदा की इस बेहद मानीख़ेज़ ग़ज़ल को जिस इन्टेन्स तरीक़े से जगजीत ने गाया है, उससे ये रचना आपके भीतर ठहर जाती है। आप इससे बहुत देर तक बाहर नहीं आ पाते।
ghaza: Munh ki baat sune har koi
album: MARASIM
singer: jagjit singh
shayar: Nida Faazli
duration: 6:06
https://youtu.be/B4eLE3Um1jU
मुंह की बात सुने हर कोई दिल का दर्द जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन
सदियों-सदियों वही तमाशा, रस्ता-रस्ता लंबी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन।।
वो मेरा आईना है, मैं उसकी परछाईं हूं
मेरे ही घर में रहता है, मुझ जैसा ही जाने कौन।।
किरन-किरन अलसाता सूरज, पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है, ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन।।
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आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ..shukriya Yunus..
ReplyDelete"जब निदा को जगजीत की आवाज़ मिली है तो जैसे एक तिलस्म रच गया है।"--सोलहो आने सच बात! अद्भुत लगती है यह जुगलबंदी।
ReplyDeleteइसे सुनवाने के लिए धन्यवाद।
दोनों का साथ अद्भुत रहा..
ReplyDeleteAwesome-niharika
ReplyDeleteयूनुस भाई को मेरा सलाम
ReplyDeleteआपसे कुछ बातें करना चाहता हूं। मेरठ से शाया होने वाले दैनिक जनवाणी में फीचर देख रहा हूं। मुमकिन हो तो अपना नंबर इस मेल पर भेज देंगे, मो मेहरबानी होगी। रेडियो वाणी वाकई जबरदस्त
saleem_iect@yahoo.co.in
9045582472