Thursday, September 22, 2011

घुंघरू टूट गए: साब्ररी ब्रदर्स के मक़बूल अहमद साबरी की याद में

एक बुरी ख़बर आई है। जाने-माने क़व्‍वाल मक़बूल अहमद साबरी का बुधवार 21 सितंबर को साउथ अफ्रीक़ा में इंतकाल हो गया है। अफ़सोस की बात ये है कि वो बहुत जल्‍दी चले गए। महज़ 66 की उम्र में।

मेरे बचपन की कई यादें मक़बूल अहमद साबरी से जुड़ी हुई हैं। जिस पृष्‍ठभूमि और बुंदेलखंड के जिस इलाक़े से मैं आता हूं--वहां के गांवों में...मेरे अपने पैतृक गांव में पिछली कुछ पीढियां 'साबरी ब्रदर्स' की क़व्‍वालियां सुनते सुनते बड़ी हुई हैं। क़व्‍वालियों से मेरा निजी तौर पर इतना गहरा नाता नहीं रहा है। पर फिर भी ये मेरे बचपन का एक अहम हिस्‍सा थीं। आप Front समझ सकते हैं कि वो फिलिप्‍स के ''लेटे हुए रिकॉर्डर'' का ज़माना था। बाद में टू-इन-वन का आगमन भी हुआ। और तब जब भी हिंडोरिया गांव जाना होता--तो वहां घरों में साबरी ब्रदर्स बजते। सुबह-सुबह भी बजते। दोपहर को भी और रात को भी। लोग 'दमोह', 'छतरपुर' और 'जबलपुर' जैसे शहरों में जाकर ये कैसेट जमा करते। उनकी कॉपीज़ करवाते। उन दिनों ये सब बहुत मुश्किल काम थे। टेप-रिकॉर्डर तक सबके पास नहीं होता था।




हम भोपाल में रहा करते थे। जो गांवों की तुलना में ज़रा आगे था। अस्‍सी के दशक में तो यहां से सऊदी अरब जाकर नौकरियां करने का चलन शुरू हो भी चुका था। पैसा बढ़ रहा था। पहली बार सोनी और पैनासॉनिक के बड़े सिस्‍टम्‍स उन्‍हीं दिनों देखे गये। सऊदी से लाए गए। उनके ग्राफिक इक्‍वालाईज़र में झिलमिलाती एल.ई.डी. किसी जादूनगरी की रोशनियां लगतीं। और साउंड बैलेन्‍स करना किसी जादू की पुडिया का करिश्‍मा। सऊदी से ही साब्ररी ब्रदर्स के कैसेट भी लाए जाते। और पास पड़ोस में बांटे जाते। तब एक क़व्‍वाली बड़ी मशहूर हआ करती थी--'इश्‍क़ में हम तुम्‍हें क्‍या बताएं किस क़दर चोट खाए हुए हैं'। इस क़व्‍वाली को बाद में काफी लोगों ने गाया। इसका एक शेर बहुत बाद में समझ आया--'ऐ लहद(क्रब्र) अपनी मिट्टी से कह दे, दाग़ लगने ना पाए कफ़न में/ आज ही हमने बदले हैं कपड़े, आज ही हम नहाए हुए हैं'। शुरूआती खोजबीन में फिल्‍हाल ये क़व्‍वाली कहीं मिली नहीं। वरना यहां आपको सुनवाते।

एक और याद है साबरी ब्रदर्स को 'लाइव' सुनने की। दमोह में हम नानी के घर गर्मियों की छुट्टियां मनाने गए थे। उन्‍हीं दिनों मुर्शीद बाबा की मज़ार पर उर्स होना था। और बड़ा हल्‍ला था कि पाकिस्‍तान से साब्ररी ब्रदर्स को बुलवाया जा रहा है। मुझे याद है कि आसपास के शहरों और गांवों से लोग इस मौक़े के लिए पहुंचे थे। इतनी जबर्दस्‍त भीड़। वो मंजर अब तक आंखों में ठहरा हुआ है। साबरी ब्रदर्स देर से आए थे। लेकिन एक मिनी-बस में जब उनका कारवां  पहुंचा और कुछ ही मिनिटों में जब आसमानी पोशाक वाली उनकी टोली ने अपने साज़ मिलाने शुरू किए तभी से लोग 'अश अश' करने लगे। क़व्‍वालियों की उस महफिल में उन्‍होंने क्‍या गया, ये तो याद नहीं है पर ये ज़रूर याद है कि जिन लोगों ने उन्‍हें सुना, वो आज तक उस रात को याद करते हैं।

मक़बूल साबरी ने एक ख़ास चलन शुरू किया था। बीच में एकदम ठोस आवाज़ में 'अल्‍लाह' कहने का। बाद में ये उनका ब्रांड बन गया था। क़व्‍वालियां की दुनिया में जो मिलावटें हुई हैं और जिस तरह क़व्‍वालियों को ख़राब किया गया है, ऐसे दौर में साब्ररी ब्रदर्स की अहमियत
बहुत बढ़ जाती है। जो लोग साबरी ब्रदर्स को ठीक से नहीं पहचानते उन्‍हें बता दें कि साबरी ब्रदर्स में बड़े भाई हाजी गुलाम फ़रीद साबरी और हाजी मकबूल अहमद साबरी शामिल थे। गुलाम फ़रीद साबरी का निधन 1994 में हो चुका है। मकबूल अहमद साबरी के निधन के बाद क़व्‍वाली की दुनिया से 'साबरी ब्रदर्स' का सूरज डूबा ही समझिए।  

उन्‍हें श्रद्धांजली देते हुए आज रेडियोवाणी पर उनकी कुछ क़व्‍वालियां।

भर दे झोली या मुहम्‍मद मेरी



हज़रत अमीर ख़ुसरो की रचना 'जिहाले मिस्किन'





घुंघरू टूट गए।


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14 comments:

  1. इनकी कुछ कव्वालियाँ मैंने भी सुनी हैं. उनके बारे में विस्तृत संस्मरण साझा करने का आभार. उन्हें मेरी ओर से भी श्रद्धांजलि.

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  2. कुछ सुना है, शेष सुनते हैं। श्रद्धांजली।

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  3. एक समय सिर्फ़ यही सुनाई देते थे...
    विनम्र श्रद्धांजली..

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  4. साबरी साहब के लिए
    मेरी विनम्र श्रद्धांजली ...

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  5. संस्मरण साझा करने के लिये धन्यवाद.

    एक बार देवास उर्स से दिल्ली लौटते हुए ट्रेन में हमसफ़र हुए थे हम. जनाब ऊपर की बर्थ पर देर रात तक गुनगुना रहे, और मैं सोचता रहा कि ये सफ़र कभी खत्म ना हो.

    मेरे पास दो केसेट्स हैं , जिसमें से एक मिल गयी है. मगर चल रही है या नहीं कह नही सकता क्योंकि केसेट प्लेयर बिगडा हुआ है. दूसरी केसेट ज़फ़र अली की है, जिन्होने भी इनके सारे गाने गाये हैं. इनके बारे में जानकारी नही है, क्योंकि शायद इन्हे भी साबरी कहा जाता था.

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  6. ओह एक युग का अवसान -विनम्र श्रद्धांजलि

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  7. अमर रहेगी यह आवाज.

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  8. विनम्र श्रद्धांजली..

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  9. विनम्र श्रद्धांजलि

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  10. यूनुस भाई एक चित्र मक़बूल भाई का इस पोस्ट पर दरक़ार है. बाबा फ़रीद तो पहले ही चले गये थे तो बीच जब म.प्र.की स्थापना की पचासवीं जयंती का आयोजन इन्दौर में मना तो मक़बूल भाई ही पूरी पार्टी का नेतृत्व करने आए थे. चूँकि मैं इस इवेंट से जुड़ा था तो दिन में सोचता रहा कि बड़े भाई साहब के बिना मजमा अधूरा तो नहीं रहेगा ? लेकिन जब महफ़िल शुरू हुई तो सच मानिये पूरे गाँधी हॉल में एक बेसब्री सी भी और मक़बूल भाई बार बार अपने फ़न से दाद बटोर रहे थे. साबरी बंधु दो बार भोपाल तशरीफ़ लाए थे और सिर्फ़ एक बार इन्दौर.लेकिन उनकी रेकॉर्डों का जादू गाँव गाँव गली गली फ़ैलता रहा...आपने अल्लाह ! वाली बात ख़ूब बढ़िया रेखांकित की ..दर-असल एकतरह से ये उनकी सिगनेचर बन गई थे....हम सबकी झोली तो ख़ाली हो गई...

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  11. भोपाल के जिस दौर का ज़िक्र है वह जिया है इसलिए सब आँखों के सामने आ गया . और सबरी भाइयों के घूँघरू टूट गए दूरदर्शन पर सुना था और पहली बार सुन कर मुरीद हो गया . पुरानी यादें फिर ताज़ा हो गयीं . शुक्रिया .

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  12. एक युग का समापन

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