Sunday, January 3, 2010

मैं अकेला हूं धुंध में 'पंचम' : गुलज़ार, भूपिंदर और 'चांद परोसा है'


कल यानी चार जनवरी को 'पंचम' की याद का दिन होता है । पंचम : आर.डी.बर्मन । 'पंचम' को गए सोलह बरस हो गए पर सोलह पल भी ऐसा नहीं लगा कि वो हमसे दूर हैं । दरअसल  इस दौरान रोज़ाना पंचम के गाने कैसेट्स, कंपेक्‍ट डिस्‍क, आइ पॉड्स और एफ.एम.स्‍टेशनों पर लगातार बजते रहे हैं । इन गानों की शक्‍ल में पंचम लगातार हमारे बीच मौजूद रहे हैं । पंचम ने भारतीय सिनेमा को एक नई 'ध्‍वनि' प्रदान की थी । पंचम शीतल-पेय की बोतलों, कांच की ख़ाली कटोरियों और गिलासों, रसोई के बर्तनों, लकड़ी के टुकड़ों वग़ैरह सबमें से संगीत खोज निकलाते थे । (पंचम के एक्‍स्‍पेरिमेन्‍ट्स के बारे में पढिये रेडियोवाणी के दूसरे पन्‍ने पर यहां )

पंचम एक अन्‍वेषक-संगीतकार थे । और यही वजह है कि कई बार वो इतने एक्‍सपेरीमेन्‍टल हो गए कि ज़माने ने उस वक्‍त उनकी कुछ रचनाओं को एकदम से नकार दिया । हालांकि उनके जाने के बाद अब हमें उनकी धुनों के नए चेहरे और नए आयाम समझ में आ रहे हैं ।

बाक़ी कलाकारों को छोड़ दें और सिर्फ पंचम, गुलज़ार और आशा भोसले की तिकड़ी के बारे में ही सोचें तो ये सही मायनों में भारतीय सिनेमा के लिए मणि-कांचन संयोग रहा था । ऐसी क्रियेटिव, एक्‍सपेरीमेन्‍टल और दिलेर तिकड़ी सिनेमा में दूसरी नहीं हुई । पंचम की याद आती है तो गूंजता है आशा भोसले का तरंगित-स्‍वर---'रात क्रिसमस की थी, ना तेरे बस की थी ना मेरे बस की थी'  या फिर 'भीनी भीनी भोर आई ' या इससे भी आगे गुलज़ार के शब्‍दों और पंचम के सुरों की डोर थामे आशा भोसले की नायाब उड़ान 'कोई दिया जले कहीं'  ( ये सभी गीत अलबम 'दिल पड़ोसी है' के हैं ) लेकिन इतने से भला प्‍यास कहां बुझती है । हमें तो इससे आगे चाहिए --'क़तरा क़तरा‍ मिलती है', 'मेरा कुछ सामान', 'आंकी चली बांकी चली', 'आऊंगी एक दिन आज जाऊं' 'बड़ी देर से मेघा बरसा', 'बेचारा दिल क्‍या करे', 'छोटी सी कहानी से' ....ये फेहरिस्‍त इतनी लंबी है कि दिल 'अश-अश' कर उठे । dilpadosihai
और एक दिन 'पंचम' चुपचाप चल दिए ।


यूं लगा कि 'म्‍यूजिक-रूम' की बत्‍ती 'गुल' हो गयी हो थोड़ी देर के लिए । दरअसल 'पंचम' तो शीशे के उस पार निकल गए थे । जहां से उनका अक्‍स ही नज़र आ सकता था । ना तो वो सुनाई दे सकते थे और ना ही उन्‍हें छुआ जा सकता था  । गुलज़ार ने 'पंचम' की याद में एकcph1 नज़्म लिखी थी, जिसे उन्‍होंने वैसे तो कई जगह पर पढ़ा है, पर भूपिंदर-मिताली के अलबम 'चांद परोसा है' में इसका बेहद सघन और आत्‍मीय रूप सामने आया है । पहले गुलज़ार पूरी नज़्म पढ़ते हैं उसके बाद पूरी विकलता के साथ भूपिंदर इसे गाते हैं । वही भूपिंदर जो पंचम के लिए हवाईन गिटार बजाया करते थे । बीच में आशा भोसले की आवाज़ में 'वो रात बुझा दो मेरा वो सामान लौटा दो' की ध्‍वनि सुनाई पड़ती है....मानो पहाड़ों पर कोई आवाज़ गूंज रही
हो । ये गीत जब अपने चरम पर पहुंचता है
तो भूपिंदर 'मैं अकेला हूं धुंध में पंचम' को इतनी बार गुनगुनाते हैं कि दिल बैठ जाता है । इस गाने की गायकी, डिज़ाइन और मिक्सिंग सब बेहद सांद्र है । पंचम को याद करने का और 'मिस' करने का इससे अच्‍छा तरीक़ा हो ही नहीं सकता था ।
हम पंचम के चाहने वाले बहुत विकलता के साथ मिलकर कहना चाहते हैं----'मैं अकेला हूं धुंध में पंचम'

song- yaad hai pancham
lyrics and narration : gulzar
singer : bhupinder singh

album: chand parosa hai.
duration: 6:28  




एक और प्‍लेयर : ताकि सनद रहे ।




याद है बारिशों का दिन, पंचम


याद है जब पहाड़ी के नीचे वादी में
धुंध से झांककर निकलती हुई
रेल की पटरियां गुज़रती थीं
धुंध में ऐसे लग रहे थे हम
जैसे दो पौधे पास बैठे हों
हम बहुत देर तक वहां बैठे
उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे
जिसको आना था पिछली शब, लेकिन  
उसकी आमद का वक्‍त टलता रहा
देर तक पटरियों पर बैठे हुए 
रेल का इंतज़ार करते रहे 
रेल आई ना उसका वक्‍त हुआ
और तुम, यूं ही दो क़दम चलकर
धुंध पर पांव रखके चल भी दिए

मैं अकेला हूं धुंध में 'पंचम' ।।


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9 comments:

  1. पंचम दा को भावभीनी श्रधान्जली

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  2. पंचम दा को सादर नमन.

    रामराम.

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  3. भूपिंदर सिंह की आवाज को आपके विवरण के साथ सुनना खूबसूरत रहा !
    सुन्दर प्रस्तुति !

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  4. पंचम दा को सादर स्मरण ...
    नव वर्ष की बहुत शुभकामनायें ....!!

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  5. बड़े दिनों बाद आपकी कोई पोस्ट दिखी. पंचम का भला कौन फैन नहीं होगा ! नववर्ष की शुभकामनायें !

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  6. pancham da....ki smiriti ko naman...-noopur

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  7. पंचम दा के प्रयोग कभी कभी इतने अधिक हो जाते थे कि मेलोडी के साथ कंप्रोमाईज़ हो जाता था. जैसे कि स्केल चेंज करने का उनका अंदाज़ जुदा था और मधुर भी. मगर कभी कभी एक ही मुखडे में या अंतरे में विवादी स्वर या कोर्ड्स लगाकर वे नया प्रयोग करते , जिससे रस निष्पत्ति नहीं हो पाती थी.

    मगर ऐसे गीत बहुत ही कम है. आज एक गीत सुन रहा था- आ देखें ज़रा, जिसमें ऒर्केस्ट्राईज़ेशन आज़ से और ट्रीटमेंत से कही ये नहीं लगता था कि ये गीत २०-२० साल पहले रचा गया था.

    आज के संगीतकारजो भी परोस रहें है, उनमें अधिकतर सिर्फ़ झंकार बीट्स मुख्य रहता है, बाकी सभी गौण.

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  8. मैंने अपने छात्र जीवन में ये डबल कैसट एलबम खरीदी थी पर इसके कुछ गाने सुन कर वो लुत्फ नहीं आया था जिसकी अपेक्षा मेंने इससे की थी। अब ये भी याद नहीं कि इस नज़्म तक पहुँच पाया था कि नहीं। मुझे लगता हें कि ऐसी नज़्में सिर्फ पढ़ी जाएँ तो कहीं ज्यादा असरदार होती हैं। गुलज़ार की आवाज़ में इसे सुनना बहुत अच्छा लगा।

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