Monday, July 27, 2009

यार जुलाहे : गुलज़ार की नज़्म के दो रूप ।

'रेडियोवाणी' पर मैंने पहले भी गुलज़ार, विशाल भारद्वाज और सुरेश वाडकर के अलबम 'बूढ़े पहाड़ों पर' की चर्चा की थी । लेकिन तब 'सुनवाने' की उन तकनीकों का ज्ञान नहीं था, जिनका प्रयोग अब 'रेडियोवाणी' पर अब किया जाता है । बहरहाल पिछले कुछ दिनों से भूपिंदर-मिताली और गुलज़ार का अलबम 'चांद परोसा है' सुन रहा था, इसमें मुझे एक ऐसा गीत मिला जिसे 'बूढ़े पहाड़ों पर' में शामिल किया गया है । लेकिन दोनों ही प्रस्‍तुतियों में बहुत बड़ा फ़र्क़ है । इसलिए आज 'रेडियोवाणी' पर हम एक शायर की एक ही रचना की दो प्रस्‍तुतियों से होकर गुज़रेंगे और ये भी पहचानेंगे कि जब दो कलाकार अपने अलग-अलग तरीक़े से किसी रचना को गाते हैं तो उसका रूप कैसे बदल जाता है ।

'बूढ़े पहाड़ों पर' हमारे कॉलेज के दिनों का अलबम है, और कैसेट की शक्‍ल में अभी-भी हमारे संग्रह का हिस्‍सा है । अपनी बनावट और रचनात्‍मकता में ये अलबम उन बहुत थोड़े नॉन-फिल्‍म-अलबमों की लिस्‍ट का हिस्‍सा बनता है, जो एकदम संपूर्ण हैं । जिनमें कोई भी कोर-कसर बाक़ी नहीं रखी गयी है । सुरेश वाडकर का गाया ये गीत सुनिए, जिसमें विशाल भारद्वाज ने इस बात का ख्‍याल रखा है कि जज़्बात एकदम से तरल ना हो जाएं । उनका गाढ़ापन बचा रहे ।    
album:Boodhe pahadon par
song: Yaar julahe.
singer:Suresh Wadkar
lyrics:Gulzar.




यार जुलाहे यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा कोई
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया तो और सिरा कोई जोड़के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन एक भी गांठ भी रहे बुनकर की
देख नहीं सकता है कोई
..............................................................................
(यहां आकर गाने की गति बदल जाती है और गाना बेहद मार्मिक हो जाता है )
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्‍ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती हैं यार ।


यही गीत जब 'चांद परोसा है' में भूपिंदर गाते हैं तो पूरी आधुनिकता के साथ गाते हैं । भूपी ने इस गाने को थोड़ा 'लाउड' रखा है । 

 
album: Chand parosa hai.
singer: Bhupinder singh.
lyrics:Gulzar.




मुझको भी हां, मुझको भी हां, मुझको भी तरकीब सिखा दे यार
मेरे यार जुलाहे
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्‍म हुआ


फिर से बांध के, और सिरा कोई जोड़के उसमें
आगे बुनने लगते हो ।
तेरे उस ताने में लेकिन
एक भी गांठ भी रहे बुनकर की
देख नहीं सकता है कोई ।
......................................................................
(यहां भूपिंदर भी अपने स्‍वर को उदास कर देते हैं, पर इन पंक्तियों के बाद गाना फिर से अपनी 'मस्‍ती' पर पहुंच जाता है ।)
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती हैं ।

मुझे तो ये दोनों संस्‍करण दिलचस्‍प लगते हैं । चूंकि सुरेश वाडकर वाला गीत एक अरसे से सुनते आ रहे हैं इसलिए उससे ज्‍यादा अनुराग हो गया है । वैसे आपको बता दें कि 'बूढ़े पहाड़ों पर' आप यहां सुन भी सकते हैं और प्राप्‍त भी कर सकते हैं । ये याद रखिएगा कि यहां इस अलबम की टैगिंग ग़लत की गयी है । दरअसल ये सुरेश वाडकर, गुलज़ार और विशाल भारद्वाज का अलबम है । ना कि जगजीत सिंह का ।

10 comments:

  1. युनुस भाइ सुबह सुबह इतना सुन्दर गीत सुनवाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद

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  2. वाह-वाह...युनूसी जी....मज़ा आ गया...
    बैठक भी आइए ना इस जुलाहे को लेकर....
    www.baithak.hindyugm.com

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  3. pehale wale version ko khuud Gulzar sahab ki awaaz mein bhi sunaa hai... aur sach kahu to Gulzar saahab ki awaaz wala sabse behtar hai :)

    Album -MARASIM

    http://www.dhingana.com/marasim-jagjit-singh-gulzar/movie/songs/hindi/ghazals/781

    on this link ... GULZAR Speaks-2

    thanks for sharing these 2 version

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  4. जैसे गंगा के तट पर आध्यात्मिक अनुभूति होती है, वैसी जुलाहे की खड्डी के पास भी होती है।
    मैं हारून नामक जुलाहे से मिला था - बहुत समय पहले। बहुत सरल व्यक्ति। पर उसकी बातों में यूं लगता था कि कोई सन्त बोल रहा है।
    बस यूं ही यह पोस्ट देख याद हो आई।

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  5. खूबसूरत गीत सुनवाया आपने । आभार ।

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  6. दोनों ही गाने सुने ....मजा आ गया ...अब तक तो ये पढ़ा था सिर्फ

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  7. धन्यवाद युनुस भाई,
    इस अलबम को बहुत दिनो से ढुंढ रहा था! इसका टाइटिल गाना ’बुढे पहाड़ो पर’ मुझे काफ़ी पसन्द है !

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  8. आनंद आ गया जी। आपकी पोस्ट पर लगे गाने सुनकर आनंद आ जाता है। और मुँह से भी वही निकलता है। शुक्रिया जी।

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  9. धन्यवाद यूनुस जी, ये दोनॊं ही गीत बढिया हैं, और अलग अलग स्वाद रखते हैं.

    आपको वाकई संगीत की बडी पकड है. क्या खूब लिखा है तरला और गाढे़पन के बारे में...(धुन में)

    वैसे भूपेंद्र की आवाज़ में गाढा़पन ज़रूर है, मगर वाडकर जी की तरलता धुन को और श्रवणीय बना रही है.

    कपास के पिंजरने की आवाज़ का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया है, दोनों गीतों में...

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