कई बार हम अपने बेहद आत्मीय संबंधों में अपने प्यार का इज़हार नहीं
करते । हम अपनी 'मां' ने ये नहीं कहते कि हम उन्हें कितना प्यार करते
हैं । 'पिता' से नहीं कहते कि जीवन में उनकी उपस्थिति एक सूर्य की तरह
है । 'बहन' से नहीं कहते कि भले ही फ़ोन पर बातें ज्यादा ना हो पाएं--पर जीवन में उसकी उपस्थिति अनिवार्य रूप से रहती ही है ।
क्यों है ऐसा ? क्या हमारे समाज में आत्मीय-रिश्तों में अपना प्रेम प्रदर्शित करने की गुंजाईश, जगह, सजगता और आग्रह नहीं है । क्या हम इस मामले में भी 'भारतीय-संकोच' से ग्रसित हैं । आज 'फ़ादर्स-डे' है । चलिये आज पिता के प्रति अपने प्रेम का इज़हार करें हम । मैंने 'कविता-कोश' से कुछ कविताएं निकाली हैं--जिनमें पिता के प्रति अपनी विकलता को अभिव्यक्त किया गया है ।
मंगलेश डबराल की कविता 'पिता' 1991 में लिखी गयी थी और संग्रह 'हम जो देखते हैं में संग्रहीत है ।
नीलेश रघुवंशी की ये कविता 'टेलीफोन पर पिता की आवाज़' 'घर-निकासी' संग्रह से है ।
सविता सिंह की कविता
| एहसानमन्द हूँ पिता |
और ये है बोधिसत्व की कविता 'हार गए पिता' जो 2007 में रची गई ।
पिता के प्रति कितनी-कितनी भावनाओं का इज़हार है इन कविताओं में । ये कविताएं आज 'पितृ-दिवस' पर ज़रूरी तौर पर पढ़ी जानी चाहिए । मैंने 'कविता-कोश' में जब 'पिता' शब्द की खोज की तो उसके परिणाम इन कविताओं के रूप में सामने आए । आप सीधे लिंक पर जाकर अन्य कई कविताएं पढ़ सकते हैं ।
आज मुझे भी अपने पिता से कुछ कहना है ।
मुझे कहना है कि बहुत याद आते हैं बचपन के वो दिन जब बुख़ार से तपते अपने इस बड़े बेटे को पिता सायकिल पर 'विभागीय दवाख़ाने' ले जाते थे...और सायकिल के 'डंडे' पर बैठे पैरों में झुनझुनी चढ़ जाती थी....जब बचपन की शरारतों के बाद 'टिटनेस' का इंजेक्शन लगवाते थे पिता बार-बार..आज खुद पिता बनने के बाद समझ आता है कि कितना मुश्किल होता है 'एक शरारती बेटे का पिता बनना' ।
मुझे कहना है कि जब पहली बार मैं स्कूल से भागा और इसकी सज़ा के रूप में पिता ने थप्पड़ मारा था..तब बहुत बुरा लगा था । अगर उस दिन दोबारा आपने मुझे स्कूल नहीं पहुंचाया होता तो मेरे रास्ते बदल चुके होते ।
मुझे कहना है कि जिंदगी में कई मौक़े आये जब हमारी वैचारिक-असहमतियां हुईं, तो भी ऐसा नहीं था कि आप मेरे साथ ना हों । आपने ही तो सिखाया था कि अपने फ़ैसले ख़ुद करना सीखो । ‘be competent enough to manage the things’……मैंने कई फ़ैसले ख़ुद किए हैं । ऊपर से आपने अपना ग़ुस्सा दिखाया...पर भीतर से जो प्यार था...वो मुझे हमेशा दिखता रहा है । हो सकता है कि मेरा बेटा भी अपने फ़ैसले ख़ुद करे और तब शायद मैं वही करूं जो आपने किया । या शायद मैं उसका साथ भी दूं ।
मुझे कहना है कि मुझे गर्व है कि मुझे आप जैसे पिता मिले ।
एक पुरानी पोस्ट में आपके लिए एक गीत चढ़ाया था बचपन का ।
आज वही गीत फिर से आपके लिए---
| सात समंदर पार से गुडियों के बाज़ार से अच्छी सी गुडि़या लाना गुडिया चाहे ना लाना । पप्पा जल्दी आ जाना ।। तुम परदेस गये जब से, बस ये हाल हुआ तब से दिल दीवाना लगता है, घर वीराना लगता है झिलमिल चांद-सितारों ने, दरवाज़ों दीवारों ने सबने पूछा है हमसे, कब जी छूटेगा हमसे कब जी छूटेगा हमसे कब होगा उनका आना, पप्पा जल्दी आ जाना ।। मां भी लोरी नहीं गाती, हमको नींद नहीं आती खेल-खिलौने टूट गए, संगी-साथी छूट गये जेब हमारी ख़ाली है, और आती दीवाली है हम सबको ना तड़पाओ, अपने घर वापस आओ और कभी फिर ना जाना, पप्पा जल्दी आ जाना ।। ख़त ना समझो तार है ये, काग़ज़ नहीं है प्यार है ये दूरी और इतनी दूरी, ऐसी भी क्या मजबूरी तुम कोई नादान नहीं, तुम इससे अंजान नहीं इस जीवन के सपने हो, एक तुम्हीं तो अपने हो सारा जग है बेगाना, पप्पा जल्दी आ जाना ।। |
क्या आपको अपने पिता से कुछ नहीं कहना है ?
्बहुत अनमोल गीत/कविताऐं पिता के लिये.. साधुवाद..
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी युनुस ! शुक्रिया !
ReplyDeleteबहुत सुंदर और उपयोगी प्रस्तुति
ReplyDeleteमन बाग बाग गार्डन गार्डन आज
के
रोज रोज़ रोज़ हो गया युनूस भाई।
अपना ई मेल पता दीजिएगा।
पिता का ऋण हम कभी नहीं चुका पायेंगे. आज हम सुविधा संपन्न हैं, मगर आज इस स्थिति पर लाने के लिये किये गये परिश्रम जिन्होने किये, वे अगर नहीं करते तो आज इस ब्लोग पर टिप्पणी करने की बजाय कहीं और होते.
ReplyDeleteचिट्ठी और गाना दोनो मन को छू गये
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ReplyDeleteवाकई बड़े नाज़ो दुलार से लिखा गया है, यह ख़त !
बहुत सुन्दर गीत/कवितायेँ पिता के लिए
ReplyDeleteदिल को छू लेने वाली पोस्ट..बस, गीत सुन रहा हूँ.
ReplyDeleteमन को छू गई हर एक लाईन, इसे बांटने का शुक्रिया।
ReplyDeleteपितृदिवस पर शुभकामनायें.
मन को छू गई हर एक लाईन, इसे बांटने का शुक्रिया।
ReplyDeleteपितृदिवस पर शुभकामनायें.
पिता के प्रति भावनाएं व्यक्त करने में 'भारतीय संकोच' ही शायद आड़े आता रहा है. भावपूर्ण पोस्ट लिखी है आपने.
ReplyDeleteबहुत खूब यूनुस जी.....आपका आलेख, कवितायें और गीत कुल मिलाकर सब ही पसंद आये और मन को भाये......आपको ढेर सारी दुआएं.....
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
इन महत्वपूर्ण रचनाओं को एक साथ पढवाने के लिए आभार।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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ReplyDeleteअपने बाबूजी की पुण्यतिथि पर जब ये गीत लगाया था, तो उसके साथ आलोक श्रीवास्तव की ये ग़ज़ल भी लगाई थी, जो मेरे पिताजी के काफी नज़दीक थी...!
ReplyDeleteघर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी,
सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी
तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था,
अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी
भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता,
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी
बाबूजी को गये २० साल हो गये..ये कह सकती हूँ कि उनके साथ के १३ साल और बाद के २० सालों मे कभी भी उन्हे ये बताने से नही चूकी that I love him very much. एक बात और .....! अधिकतर होता ये है कि किसी चीज के खो जाने के बाद ही उसकी कीमत पता चलती है...बहुत कष्ट होता है तब...! लेकिन दर्द की सीमा अथाह होती है जब आपको पता हो कि आपकी सबसे कमती चीज़ क्या है.... आप उसे हर संभव संभाल रहे हों और फिर भी वो गुम हो जाये..! बाबू जी का जाना कुछ ऐसा ही था...!
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ReplyDeleteयुनूस भाई,
ReplyDeleteबढिया मोती चुनकर
ये तोहफा सजाया है -
हम सभी के
पापा जी को
मेरे श्रध्धा सहित नमन
पिता
शायद आकाश और
परम पिता दोनोँ ही होते हैँ
- लावण्या
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ReplyDeleteइस बार इस दिन पिता साथ ही थे जब मैंने उन्हें इस दिवस की बात बताई तो कहने लगे कि वैसे तो इनकी अलग से मनाने की जरूरत ही नहीं थी पर समाज ने ये देखा कि बच्चे अपने माता पिता की सुध नहीं ले रहे तो इन दिवसों के नाम पर उनके कर्तव्य बोध को जागृत करने की परंपरा चालू हो गई।
ReplyDeleteआपने बेहतरीन कविताओं का संकलन किया इसके लिए आभार !
मार्मिक पोस्ट । मन भर आया । आंसुओं से धुंधलाई आंखों में तिर आए वे दिन जब पिता साथ थे । वे दिन भी जब हाई स्कूल का एक्ज़ाम देकर निकली थी और मौजमस्ती के सपने बुनते हुए इलाहाबाद में स्कूल की सीढियों से उतरी थी तो उम्मीद के खिलाफ़ पिताजी और मां स्कूल के गेट पर खड़े थे । उछल के उनके गले लग गई और उनके साथ रिक्शे पर बैठकर अपनी बुआ के घर ठठेरी बाज़ार पहुंच गई । उस वक्त पिता बीमार चल रहे थे, फिर भी लेने आए थे । ये बात आज भी बहुत भावुक बना देती है ।
ReplyDeleteआज पिता नहीं हैं पर आंखें भींचूं तो अभी भी सामने आ जाते हैं पिता । वे मेरे साथ रहे हैं हमेशा ।
यूनुस भाई, आपकी यह पोस्ट थोड़ी पुरानी हो जाने के बाद पढ़ी और अभिभूत हो उठा. सिर्फ इतना ही कहूंगा कि मैं इस पोस्ट के लिए खड़ा होकर आपको सलाम करना चाहता हूं.
ReplyDeleteकभी हिंदयुग्म का पिता विशेषांक भी पढ़िए..कुछ कविताएं बहुत अच्छी लगेंगी..शैलेश जी से मंगवा लीजिए....
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