Sunday, June 21, 2009

पिता: कुछ कहना है मुझे आपसे ।।

कई बार हम अपने बेहद आत्‍मीय संबंधों में अपने प्‍यार का इज़हार नहीं
करते । हम अपनी 'मां' ने ये नहीं कहते कि हम उन्‍हें कितना प्‍यार करते
हैं । 'पिता' से नहीं कहते कि जीवन में उनकी उपस्थिति एक सूर्य की तरह
है । 'बहन' से नहीं कहते कि भले ही फ़ोन पर बातें ज्‍यादा ना हो पाएं--पर जीवन में उसकी उपस्थिति अनिवार्य रूप से रहती ही है ।


क्‍यों है ऐसा ? क्‍या हमारे समाज में आत्‍मीय-रिश्‍तों में अपना प्रेम प्रदर्शित करने की गुंजाईश, जगह, सजगता और आग्रह नहीं है । क्‍या हम इस मामले में भी 'भारतीय-संकोच' से ग्रसित हैं । आज 'फ़ादर्स-डे' है । चलिये आज पिता के प्रति अपने प्रेम का इज़हार करें हम । मैंने
'कविता-कोश' से कुछ कविताएं निकाली हैं--जिनमें पिता के प्रति अपनी विकलता को अभिव्‍यक्‍त किया गया है ।


मंगलेश डबराल की कविता 'पिता' 1991 में लिखी गयी थी और संग्रह 'हम जो देखते हैं में संग्रहीत है ।

पिता की छोटी छोटी बहुत सी तस्वीरें father-and-child
पूरे घर में बिखरी हैं
उनकी आँखों में कोई पारदर्शी चीज़
साफ़ चमकती है
वह अच्छाई है या साहस
तस्वीर में पिता खाँसते नहीं
व्याकुल नहीं होते
उनके हाथ पैर में दर्द नहीं होता
वे झुकते नहीं समझौते नहीं करते
एक दिन पिता अपनी तस्वीर की बग़ल में
खड़े हो जाते हैं और समझाने लगते हैं
जैसे अध्यापक बच्चों को
एक नक्शे के बारे में बताता है
पिता कहते हैं मैं अपनी तस्वीर जैसा नहीं रहा
लेकिन मैंने जो नए कमरे जोड़े हैं
इस पुराने मकान में उन्हें तुम ले लो
मेरी अच्छाई ले लो उन बुराइयों से जूझने के लिए
जो तुम्हें रास्ते में मिलेंगी
मेरी नींद मत लो मेरे सपने लो
मैं हूँ कि चिन्ता करता हूँ व्याकुल होता हूँ
झुकता हूँ समझौते करता हूँ
हाथ पैर में दर्द से कराहता हूँ
पिता की तरह खाँसता हूँ
देर तक पिता की तस्वीर देखता हूँ ।


नीलेश रघुवंशी की ये कविता 'टेलीफोन पर पिता की आवाज़' 'घर-निकासी' संग्रह से है ।


टेलीफ़ोन पर
थरथराती है पिता की आवाज़
दिये की लौ की तरह काँपती-सी।
दूर से आती हुईFather___Child
छिपाए बेचैनी और दुख।
टेलीफ़ोन के तार से गुज़रती हुई
कोसती खीझती
इस आधुनिक उपकरण पर
तारों की तरह टिमटिमाती
टूटती-जुड़ती-सी आवाज़।
कितना सुखद
पिता को सुनना टेलीफ़ोन पर
पहले-पहल कैसे पकड़ा होगा पिता ने टेलीफ़ोन।
कड़कती बिजली-सी पिता की आवाज़
कैसी सहमी-सहमी-सी टेलीफ़ोन पर।
बनते-बिगड़ते बुलबुलों की तरह
आवाज़ पिता की भर्राई हुई
पकड़े रहे होंगे
टेलीफ़ोन देर तक
अपने ही बच्चों से
दूर से बातें करते पिता।


सविता सिंह की कविता

एहसानमन्द हूँ पिता
कि पढ़ाया-लिखाया मुझे इतना
बना दिया किसी लायक कि जी सकूँ निर्भय इस संसार में
झोंका नहीं जीवन की आग में जबरन
बांधा नहीं किसी की रस्सी से कि उसके पास ताकत और पैसा था
लड़ने के लिए जाने दिया मुझको
घनघोर बारिश और तूफ़ान में
एहसानमन्द हूँ कि इन्तज़ार नहीं किया
मेरे जीतने और लौटने का
मसरूफ़ रहे अपने दूसरे कामों में


और ये है बोधिसत्‍व की कविता 'हार गए पिता' जो 2007 में रची गई ।

पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।

वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।

उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।

माँ ने मनौतियाँ मानी कितनीtelescope_father_daughter-759474
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।

1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......

बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।

पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।

इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।


पिता के प्रति कितनी-कितनी भावनाओं का इज़हार है इन कविताओं में । ये कविताएं आज 'पितृ-दिवस' पर ज़रूरी तौर पर पढ़ी जानी चाहिए । मैंने 'कविता-कोश' में जब 'पिता' शब्‍द की खोज की तो उसके परिणाम
इन कविताओं के रूप में सामने आए । आप सीधे लिंक पर जाकर अन्‍य कई कविताएं पढ़ सकते हैं ।

आज मुझे भी अपने पिता से कुछ कहना है ।
मुझे कहना है कि बहुत याद आते हैं बचपन के वो दिन जब बुख़ार से तपते अपने इस बड़े बेटे को पिता सायकिल पर 'विभागीय दवाख़ाने' ले जाते थे...और सायकिल के 'डंडे' पर बैठे पैरों में झुनझुनी चढ़ जाती थी....जब बचपन की शरारतों के बाद 'टिटनेस' का इंजेक्‍शन लगवाते थे पिता बार-बार..आज खुद पिता बनने के बाद समझ आता है कि कितना मुश्किल होता है 'एक शरारती बेटे का पिता बनना' ।


मुझे कहना है कि जब पहली बार मैं स्‍कूल से भागा और इसकी सज़ा के रूप में पिता ने थप्‍पड़ मारा था..तब बहुत बुरा लगा था । अगर उस दिन दोबारा आपने मुझे स्‍कूल नहीं पहुंचाया होता तो मेरे रास्‍ते बदल चुके होते ।


मुझे कहना है कि जिंदगी में कई मौक़े आये जब हमारी वैचारिक-असहमतियां हुईं, तो भी ऐसा नहीं था कि आप मेरे साथ ना हों । आपने ही तो सिखाया था कि अपने फ़ैसले ख़ुद करना सीखो । ‘be competent enough to manage the things’……मैंने कई फ़ैसले ख़ुद किए हैं । ऊपर से आपने अपना ग़ुस्‍सा दिखाया...पर भीतर से जो प्‍यार था...वो मुझे हमेशा दिखता रहा है । हो सकता है कि मेरा बेटा भी अपने फ़ैसले ख़ुद करे और तब शायद मैं वही करूं जो आपने किया । या शायद मैं उसका साथ भी दूं ।

मुझे कहना है कि मुझे गर्व है कि मुझे आप जैसे पिता मिले ।
एक पुरानी पोस्‍ट में आपके लिए एक गीत चढ़ाया था बचपन का ।
आज वही गीत फिर से आपके लिए---

सात समंदर पार से गुडियों के बाज़ार से
अच्‍छी सी गु‍डि़या लाना गुडिया चाहे ना लाना ।
पप्‍पा जल्‍दी आ जाना ।।
तुम परदेस गये जब से, बस ये हाल हुआ तब से
दिल दीवाना लगता है, घर वीराना लगता है
झिलमिल चांद-सितारों ने, दरवाज़ों दीवारों ने
सबने पूछा है हमसे, कब जी छूटेगा हमसे
कब जी छूटेगा हमसे कब होगा उनका आना,
पप्‍पा जल्‍दी आ जाना ।।
मां भी लोरी नहीं गाती, हमको नींद नहीं आती
खेल-खिलौने टूट गए, संगी-साथी छूट गये
जेब हमारी ख़ाली है, और आती दीवाली है
हम सबको ना तड़पाओ, अपने घर वापस आओ
और कभी फिर ना जाना,
पप्‍पा जल्‍दी आ जाना ।।
ख़त ना समझो तार है ये, काग़ज़ नहीं है प्‍यार है ये
दूरी और इतनी दूरी, ऐसी भी क्‍या मजबूरी
तुम कोई नादान नहीं, तुम इससे अंजान नहीं
इस जीवन के सपने हो, एक तुम्‍हीं तो अपने हो
सारा जग है बेगाना,
पप्‍पा जल्‍दी आ जाना ।।


क्‍या आपको अपने पिता से कुछ नहीं कहना है ?

23 comments:

  1. ्बहुत अनमोल गीत/कविताऐं पिता के लिये.. साधुवाद..

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  2. मर्मस्पर्शी युनुस ! शुक्रिया !

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  3. बहुत सुंदर और उपयोगी प्रस्‍तुति
    मन बाग बाग गार्डन गार्डन आज
    के
    रोज रोज़ रोज़ हो गया युनूस भाई।
    अपना ई मेल पता दीजिएगा।

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  4. पिता का ऋण हम कभी नहीं चुका पायेंगे. आज हम सुविधा संपन्न हैं, मगर आज इस स्थिति पर लाने के लिये किये गये परिश्रम जिन्होने किये, वे अगर नहीं करते तो आज इस ब्लोग पर टिप्पणी करने की बजाय कहीं और होते.

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  5. चिट्ठी और गाना दोनो मन को छू गये

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  6. वाकई बड़े नाज़ो दुलार से लिखा गया है, यह ख़त !

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  7. बहुत सुन्दर गीत/कवितायेँ पिता के लिए

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  8. दिल को छू लेने वाली पोस्ट..बस, गीत सुन रहा हूँ.

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  9. मन को छू गई हर एक लाईन, इसे बांटने का शुक्रिया।

    पितृदिवस पर शुभकामनायें.

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  10. मन को छू गई हर एक लाईन, इसे बांटने का शुक्रिया।

    पितृदिवस पर शुभकामनायें.

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  11. पिता के प्रति भावनाएं व्यक्त करने में 'भारतीय संकोच' ही शायद आड़े आता रहा है. भावपूर्ण पोस्ट लिखी है आपने.

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  12. बहुत खूब यूनुस जी.....आपका आलेख, कवितायें और गीत कुल मिलाकर सब ही पसंद आये और मन को भाये......आपको ढेर सारी दुआएं.....

    साभार
    हमसफ़र यादों का.......

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  13. इन महत्वपूर्ण रचनाओं को एक साथ पढवाने के लिए आभार।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  14. अपने बाबूजी की पुण्यतिथि पर जब ये गीत लगाया था, तो उसके साथ आलोक श्रीवास्तव की ये ग़ज़ल भी लगाई थी, जो मेरे पिताजी के काफी नज़दीक थी...!

    घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी,
    सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी

    तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था,
    अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी

    अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
    अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी

    भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता,
    अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी

    कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
    मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी


    बाबूजी को गये २० साल हो गये..ये कह सकती हूँ कि उनके साथ के १३ साल और बाद के २० सालों मे कभी भी उन्हे ये बताने से नही चूकी that I love him very much. एक बात और .....! अधिकतर होता ये है कि किसी चीज के खो जाने के बाद ही उसकी कीमत पता चलती है...बहुत कष्ट होता है तब...! लेकिन दर्द की सीमा अथाह होती है जब आपको पता हो कि आपकी सबसे कमती चीज़ क्या है.... आप उसे हर संभव संभाल रहे हों और फिर भी वो गुम हो जाये..! बाबू जी का जाना कुछ ऐसा ही था...!

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  15. युनूस भाई,
    बढिया मोती चुनकर
    ये तोहफा सजाया है -
    हम सभी के
    पापा जी को
    मेरे श्रध्धा सहित नमन
    पिता
    शायद आकाश और
    परम पिता दोनोँ ही होते हैँ
    - लावण्या

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  17. इस बार इस दिन पिता साथ ही थे जब मैंने उन्हें इस दिवस की बात बताई तो कहने लगे कि वैसे तो इनकी अलग से मनाने की जरूरत ही नहीं थी पर समाज ने ये देखा कि बच्चे अपने माता पिता की सुध नहीं ले रहे तो इन दिवसों के नाम पर उनके कर्तव्य बोध को जागृत करने की परंपरा चालू हो गई।

    आपने बेहतरीन कविताओं का संकलन किया इसके लिए आभार !

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  18. मार्मिक पोस्‍ट । मन भर आया । आंसुओं से धुंधलाई आंखों में तिर आए वे दिन जब पिता साथ थे । वे दिन भी जब हाई स्‍कूल का एक्‍ज़ाम देकर निकली थी और मौजमस्‍ती के सपने बुनते हुए इलाहाबाद में स्‍कूल की सीढियों से उतरी थी तो उम्‍मीद के खिलाफ़ पिताजी और मां स्‍कूल के गेट पर खड़े थे । उछल के उनके गले लग गई और उनके साथ रिक्‍शे पर बैठकर अपनी बुआ के घर ठठेरी बाज़ार पहुंच गई । उस वक्‍त पिता बीमार चल रहे थे, फिर भी लेने आए थे । ये बात आज भी बहुत भावुक बना देती है ।
    आज पिता नहीं हैं पर आंखें भींचूं तो अभी भी सामने आ जाते हैं पिता । वे मेरे साथ रहे हैं हमेशा ।

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  19. यूनुस भाई, आपकी यह पोस्ट थोड़ी पुरानी हो जाने के बाद पढ़ी और अभिभूत हो उठा. सिर्फ इतना ही कहूंगा कि मैं इस पोस्ट के लिए खड़ा होकर आपको सलाम करना चाहता हूं.

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  20. कभी हिंदयुग्म का पिता विशेषांक भी पढ़िए..कुछ कविताएं बहुत अच्छी लगेंगी..शैलेश जी से मंगवा लीजिए....

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