Sunday, November 23, 2008

नॉस्‍टेलजिया- मुरझाए हुए फूलों की क़सम इस देस में फिर ना आयेंगे: मसूद राना

रेडियो में आने से पहले से ही हम रेडियो के जुनूनी श्रोता रहे हैं । एक ज़माना ऐसा था जब अस्‍सी के दशक के उत्‍तरार्द्ध में ग़ज़लों का शौक़ ऐसा चर्राया कि पाकिस्‍तानी रेडियो स्‍टेशनों को शॉर्टवेव पर खोज-खोजकर सुना । उस ज़माने में ग़ुलाम अली और मेहदी हसन के पाकिस्‍तानी फिल्‍मी गीत सुनने 
मिल जायें तो हम उछल पड़ते थे ।


ठीक उसी ज़माने की बात है । अकसर पाकिस्‍तान की विदेश प्रसारण सेवा पर शाम चार पांच बजे के आसपास ये गीत बजता था । और शॉर्टवेव के उतार-चढ़ाव भरे प्रसारणों में इसे सुनकर हम 'अल्‍पज्ञानी' और 'अज्ञानी' इसे मेहदी हसन की आवाज़ समझा करते थे । ये गीत उस दौर में बार बार सुनने को मिला और उसके बाद मन के किसी कोने में दफ़्न हो गया ।


इंटरनेटी यायावरी के दौरान अचानक एक दिन इस गाने पर नज़र पड़ गई । और तब जाकर आंखें खुलीं कि ये मेहदी हसन साहब नहीं हैं बल्कि ये तो पाकिस्‍तान के मशहूर गायक मसूद राना हैं । कहने वाले इन्‍हें पाकिस्‍तान के 'मोहम्‍मद रफ़ी' कहते हैं । हालांकि हम इस खिताब को क़तई मंजूर नहीं करते । मोहम्‍मद रफ़ी की अपनी जगह और मकाम है । भला पाकिस्‍तानी रफ़ी और अंग्रेज़ रफ़ी जैसे खिताब क्‍यों दिये जायें ।

बहरहाल ये सन 1974 में आई पाकिस्‍तानी फिल्म 'दिल्‍लगी' का गाना है । ये बेवफ़ाई के उन गानों की श्रेणी में आता है जिसमें नायक चीख़-चीख़कर अपने दिल की भड़ास निकालता है और ये साबित करने की कोशिश करता है कि ये दुनिया उसके काम की नहीं है । लेकिन 'नॉस्‍टे‍लजिया' भी तो कोई चीज़ है । इसी नॉस्‍टेलजिया के नाम हम बप्‍पी लहरी का 'गोरों की ना कालों की, दुनिया है दिल वालों की' या फिर 'यार बिना चैन कहां रे' सुन कर मुस्‍कुरा लेते हैं । तो फिर अस्‍सी के दशक के उत्‍तरार्द्ध से अब तक हमारी दुनिया से ग़ायब रहा ये गीत सुनने में हर्ज क्‍या है । तो आईये आप भी मेरे इस नॉस्‍टेलजिया में शामिल हो जाईये ।



मुरझाए हुए फूलों की क़सम इस देस में फिर ना आऊंगा
मालिक ने अगर भेजा भी मुझे, मैं राहों में खो जाऊंगा ।।
अश्‍क़ों को पिया, होठों को सिया, हर ज़ख्‍म छिपाया सीने का
इस जुर्म में ज़ालिम दुनिया ने हक़ छीन लिया है जीने का
सीने से लगाकर दुख सारे इस महफिल से उठ जाऊंगा
इस देस में फिर ना आऊंगा ।।
रातों को जहां उम्‍मीद बंधी, और सुबह सहारे टूट गए
कितने ही यहां सूरज डूबे, कितने ही सितारे टूट गए
मेरे गीत सुनेगा कौन यहां, टूटा दिल किसे दिखाऊंगा
इस देस में फिर ना आऊंगा ।।
दुनिया के बुझाने से पहले आशा के दीप बुझा दूंगा
जो सांस दिये हैं मालिक ने, वो सांस उसे लौटा दूंगा
यहां लोग लुटेरे बसते हैं, मैं अब अपनों में जाऊंगा
इस देस में फिर ना आऊंगा ।।

7 comments:

  1. फुल वॉल्यूम में सुना, श्रीमती जी कह रही हैं इतना पुराना भजन कहाँ से आया?

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  2. मसूद राणा जी से परिचय कराने का धन्यवाद। यह देश एक क्यों न रहा!

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  3. ऐसी शख्सियत से परिचय कराने का आपको कैसे बधाई और आभार प्रकट करूँ मेरे पास कोई अल्फाज नही है साहब ..
    सप्रेम
    अर्श

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  4. बहुत-बहुत धन्यवाद... ज्ञान जी की बात ही कहने का मन हो रहा है !

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  5. आपकी इस पोस्ट ने पुरानी यादें ताज़ा कर दीं।शारजाह की क्रिकेट कमेंट्री सुनने के लिए एक समय रेडिओ पाकिस्तान द्वारा प्रयुक्त सारे शार्ट वेच बैंड की खोज कर डाली थी। ऐसी ही जद्दोज़हद में एक बार मंहदी हसन साहब की ग़ज़ल ये धुआँ कहां से उठता है को सुना था और फिर उसे सुनने के लिए बार बार उसी समय वो स्टेशन ट्यून करते थे।

    मसूद राना को पहली बार सुना, आभार

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  6. असली गीत वही होते हैँ जिन्हेँ सुनते ही वे अपनोँ से लगेँ और बार बार गुनगुनाने को मन करे - ये गीत उसी मेँ शामिल हो गया है अब शुक्रिया आप ने इसे सुनवाया -
    - लावण्या

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