ईद और नवरात्र की जुगलबंदी जारी है आज के दिन देश भर में । सूरत के एक मित्र ने बताया कि गुजरात के कई इलाक़ों में ऐसे मुसलमान भाई हैं जो रमज़ान में दिन भर रोज़े रखते रहे और शाम ढलने पर डांडिया-रास में गाते और बजाते नज़र आए । चूंकि साजिंदे और गायक हैं तो ये उनका पेशा भी है
जब महेंद्र कपूर नात-शरीफ़ गाते हैं या रवींद्र जैन और हरिहरन अल्लाह को बेक़रारी से पुकारते हैं तो हमें गायक, गीतकार या संगीतकार का धर्म नहीं याद आता
और फ़र्ज़ भी । संगीत की दुनिया में कभी धर्म और जाति का भेदभाव नहीं होता, बाक़ी सारी जगहों पर भले ही दिमाग़ तंग हो जाएं लेकिन संगीत-जगत हमेशा इससे अछूता ही रहा है । जब शकील बदायूंनी बैजू-बावरा के लिए 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' लिखते हैं, नौशाद इसे स्वरबद्ध करते हैं और मोहम्मद रफ़ी इसे गाते हैं तो सुनने वाले एक नई आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचते हैं । उनके मन में ये ख्याल ही नहीं आता कि जिन लोगों ने इस रचना को तैयार किया है--उनकी अकीदत बुत-परस्ती में नहीं है । इसी तरह जब महेंद्र कपूर नात-शरीफ़ गाते हैं या रवींद्र जैन और हरिहरन अल्लाह को बेक़रारी से पुकारते हैं तो हमें गायक, गीतकार या संगीतकार का धर्म नहीं याद आता, शायद संगीत की दुनिया के इसी सेकुलरिज्म के लिए मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था- रोक सकता हमें ज़िन्दाने बला क्या मजरूह ।
हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं ।।
रेडियोवाणी संगीत का ऐसा ही मंच है ।
हम संगीत के हर पहलू से प्यार करते हैं । हमारे लिए संगीत एक इबादत
है । संगीत एक ज़रूरी चीज़ है जिंदगी की । हमारे लिए रोटी, कपड़ा, मकान और संगीत जिंदगी की अहम जरूरतें हैं । आज गांधी जयंती, नवरात्र और ईद के मिले-जुले अवसर पर हम एक ऐसी रचना लेकर आए हैं जिसे फिल्म-संगीत की एक दिव्य ऊंचाई माना जाना चाहिए ।
सन 1961 में फिल्म 'धर्मपुत्र' के लिए साहिर लुधियानवी ने ये क़व्वाली लिखी थी । इसे महेंद्र कपूर, बलबीर और साथियों ने गाया है और संगीतकार हैं एन दत्ता । फिल्म 'धर्मपुत्र' यश चोपड़ा की, निर्देशन की दुनिया में पहली कोशिश थी । उनका सिनेमा 'धर्मपुत्र' और 'धूल का फूल' जैसी फिल्मों से होते हुए कभी-कभी, चांदनी और वीर-ज़ारा तक आया है । ये गीत मैं समर्पित कर रहा हूं बैंगलोर में रहने वाले अपने मित्र शिरीष कोयल को । शिरीष के बारे में रेडियोवाणी पर पहले भी चर्चा की गयी है । पर फिर से आपको बता दें कि शिरीष साहिर लुधियानवी के जबर्दस्त फैन हैं। मुझे लगता है कि 'फैन' शब्द उनके जुनून के लिए छोटा है । साहिर के सभी गीत उनके पास हैं । कुछ गिने-चुने गाने नहीं हैं, जिनके लिए वो धरती-आकाश एक किए हुए हैं । अगर आप भी साहिर के दीवाने हैं तो शिरीष से ज़रूर संपर्क
कीजिएगा ।
डाउनलोड लिंक
काबे में रहो या काशी में निस्बत तो उसी की ज़ात से है
तुम राम कहो या रहीम कहो मतलब तो उसी की ज़ात से है ।।
ये मस्जिद है वो बुतख़ाना, चाहे ये मानो चाहे वो मानो
भई मक़सद तो है दिल को समझाना चाहे ये मानो चाहे वो मानो ।।
ये शेख़-ओ-बरहमन के झगड़े सब नासमझीं की बातें हैं
हमने तो है बस इतना जाना चाहे ये मानो चाहे वो मानो ।।
गर जज्बा-ए-मोहब्बत सादिक़ हो हर दर से मुरादें मिलती हैं
मंदिर से मुरादें मिलती हैं, मस्जिद से मुरादें मिलती हैं
काबे से मुरादें मिलती हैं काशी से मुरादें मिलती हैं
हर घर है उसी का काशाना, चाहे ये मानो चाहे वो मानो ।।
कठिन शब्दों के अर्थ--
शेखो-बहरमन--धर्मोपदेशक
काशाना--घर
सादिक़--पक्का
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ईद मुबारक़ युनुस भाई ... आप को भी और इस देश को ...
ReplyDeleteईद की बधाई।
ReplyDeleteयूनुस भाई ईद मुबारक !
ReplyDeleteसंगीत ने हमेशा संगसाथ के सुरीले मशवरे दिये हैं.देखिये न जब अजमेर शरीफ़ जाकर मोईनुद्दीन चिश्ती के आस्ताने पर जाकर शंकर-शभू नातिया क़लाम सुनते थे तो कहाँ ख़याल रहता था कि कोई हिन्दू गा रहा है या जब अहमद हुसैन-अहमद हुसैन मेरे शहर के ख्यात शनि मंदिर में जय जय जगजननी देवी गाते हैं तब कहाँ याद रहता है कि कोई मुसलमान देवी वंदना गा रहा है.
संगीत हमें विकटताओं को भुलाने और मुहब्बते बढ़ाने का आसरा देता है. मेरे वालिद गाँव से जब शहर आए तो सारंगीनवाज़ उस्ताद मुनीर ख़ा साहब के मकान में किरायेदार रहे और उस्ताद का परिवार आज भी हमारी सारी ख़ुशियों में शरीक होता है और मेरा परिवार भी उनके यहाँ हर शादी-ब्याह,त्योहार में शिरक़त करता है.
आपको जानकर हैरत होगी कि उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब इन्दौर के श्री गोवर्धननार्थ मंदिर के मुलाज़िम थे और बाक़यदा मंदिर की आरती में सारंगी बजाते थे.
गंगा-जमनी तहज़ीब के ये कलेवर इंसानी वजूद को मुकम्मिल बनाते हैं.सारे त्योहार ...नवरात्र हो या रमज़ान ...द्शहरा हो या ईद हमेशा एकता,अमन,ख़ुलूस और समन्वय का पैग़ाम देते आए हैं...आपके द्वारा सुनाए गए गीत में भी तो यही संदेश पोशीदा है.
आपको और ममता जी को ईद मुबारक ।
ReplyDeleteआप सभी को गाँधी जी शास्त्री जी व ईद की बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteयुनुस जी, ईद मुबारक़। बहुत सुंदर कव्वाली सुनाई।
ReplyDeleteईद की हार्दिक बधाईयाँ.
ReplyDelete"...जब शकील बदायूंनी बैजू-बावरा के लिए 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' लिखते हैं, नौशाद इसे स्वरबद्ध करते हैं और मोहम्मद रफ़ी इसे गाते हैं तो सुनने वाले एक नई आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचते हैं । ...."
आपका सही कहना है. चंद फिरकापरस्त लोगों के कारण मनुष्यता को जरा भी, बाल-बराबर भी आंच नहीं आएगी. यकीनन.
बेहद प्यारी पोस्ट ! संगीत से जुड़े लोगों ने जो समन्वित संस्कृति को फलने फूलने में जिस तरह का योगदान दिया है उसका कोई सानी नहीं है।
ReplyDeleteआनंद आ गया आज के दिन इस क्व्वाली को सुनकर। ईद के ऍसे ही एक मुबारक दिन हमारे सुपुत्र इस दुनिया में पधारे थे इसलिए ये मौका हमारे घर में भी विशेष होता है। आप सबको ईद मुबारक।
बहुत ख़ूब युनुस भाई। मज़ा आया। ईद मुबारक!
ReplyDeleteरविकान्त
युन्ऊसजी,
ReplyDeleteईद मुबारक ।
पियुष महेता ।
ईद मुबारक आपको।
ReplyDeleteएक बात का ज़िक्र करना भूल गई, शिरीष कोयल मेरे भैया जैसे हैं। हम एक ही जगह पले बड़े हैं, एक ही स्कूल में भी। और उनसे मुझे बेहतरीन गानों का संग्रह मिला है। आपका कहना सही है कि उनसे बड़ा साहिर का फ़ैन नहीं। मोहम्मद रफ़ी के भी नायाब, rare गाने भी उनके पास मौजूद हैं।
ReplyDeleteईद मुबारक़ !!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteईद मुबारक !
ReplyDeleteदेर से ही सही, ईद की बधाई यूनुस।
ReplyDeleteअस्वस्थ था; सो ईद कि सिवैंयों का भी स्वाद न ले पाया।
सबसे पहले ईद की मुबारकबाद।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना, दिल को छू जाने वाली। कैसे धन्यवाद दें आपको।
ईद की बहुत-२ मुबारकबाद ! संगीत कभी भी सरहद और मजहब नही देखता , वह तो दिल मे निशचल प्रेम की तरह बसता है और हर पल एक खूशूबू का एहसास कराता रहता है ।
ReplyDeleteEid Mubarak ho aapko aur Mamta ji ko Yunus bhai ....
ReplyDeleteQuwallii sun ker jhoomne lage sabhee yehan per :)
Sorry Angrezi mei comment likh rahee hoon.
Brian ki B day hai 5 th Octo. ko aur damaad aur bitiya ke ghar aayee hoon.
Humaree Sivvaiyaan pahuncha dijiyega ...intezaar rahega ...
bahut sneh ke sath,
aapki ,
- Lavanyadi
काबे में रहो या काशी में निस्बत तो उसी की ज़ात से है
ReplyDeleteदुआ है की यह बात सब की समझ में आ जाए ।
ईद की मुबारकबाद।
ReplyDeleteईद की मुबारकबाद।
ReplyDeleteगंगा- जमनी तहज़ीब का इस कव्वाली से अच्छा और संपूर्ण बयां और कहीं भी नही मिलता. ये मजबूरी नही मगर अत्यावश्यक है आज की इस पीडा़भरी परिस्थिती में.
ReplyDeleteमुझे वह गीत भी याद आया , जहां ऐसी ही हृदयस्पर्शी बात कही गयी है.:
मंदिरों में शंख बाजे, मस्ज़िदों में हो अजान,
शेख का धर्म और दीने बरहमन आज़ाद है,
अब कोई गुलशन ना उजड़े,
अब वतन आज़ाद है...
कितने आज़ाद है हम ...............?