दरअसल 'रेडियोवाणी' के लिए गानों की तलाश में कई बार यायावरी करनी पड़ती है और ये यायावरी ही है जो ऐसी चीज़ें हमारे हवाले करवा देती है जिनके बारे में हमने पहले कभी सोचा भी ना हो । अब देखिए ना भला कभी हमने सोचा ही ना था कि सुमन जी की वो कविता, जो 'बाल-भारती' में पढ़ी थी, और फौरन याद हो गयी थी और जिसे इससे अलग धुन पर हम स्कूल में समवेत स्वरों में गाया करते थे, वही हमें मिल जाएगी और वो भी इतने 'इन्फेक्शस' अंदाज़ में गाई हुई । पिछले कुछ दिनों से ये गीत और इसका संगीत हमारे घर और हमारे ज़ेहन में गूंज रहा है । और बार बार सुमन जी याद आ जाते हैं । उनका कविता-पाठ याद आ जाता है । 'निर्बल कुम्हार के हाथों से, कितने रूपों में गढ़ी -गढ़ी'......'मिट्टी की बारात' शीर्षक ये कविता मैंने उस ज़माने में टी.वी. से कैसेट पर रिकॉर्ड कर ली थी । या फिर 'जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी' । उन दिनों हमें ऐसी कविताएं ही पसंद आती थीं ।
सन 1987 में नेहरू जन्मशती के अवसर पर काव्य-भारती म्यूजिकल्स कलकत्ता ने एक रिकॉर्ड जारी किया था जिसका शीर्षक दिया गया था --'अमर बेला' । इसमें कई महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाओं को गाया गया था । इस रिकॉर्ड को मनीष दत्त ने तैयार किया था । इसमें मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया इस गीत ने । 'तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार' । इसे चंदन राय चौधरी ने गाया है । तो सुनिए और इस गीत का आनंद लीजिए । मुझे पूरा यक़ीन है कि कुछ-कुछ भटियाली शैली में स्वरबद्ध किया गया ये गाना आपके मन में लंबे समय तक गूंजता रहेगा और आपको विकल करता रहेगा ।
इस कविता की इबारत ये रही । गाते समय इसके एक अंतरे को छोड़ दिया गया है
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार ।।
bahtreen
ReplyDeletebahut achcha lag...
jaare rakhe
दिल झूम उठा। मजा आ गया।
ReplyDelete(पर दुख भी हुआ कि मैं ये गीत पी.सी. पर डाउनलोड न कर सका। रियल प्लेयर पर चरता हुआ एक मेमना डाउनलोड हुआ है।)
suman ji ko kitni baar vihval hotey dekha-suna hai NIRALA ji ke smarn me..post bahut nirali hai...shukriyaa
ReplyDeleteयूनुस भाई;
ReplyDeleteसुमनजी की कविता को पढ़कर आपसे यह बात बाँटने का स्मरण हो आया कि नेपाल में सांस्कृतिक राजदूत,विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति,म.प्र.साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष,कालिदास सम्मान की संयोजन समिति आदि आदि अन्य कई कामों में मसरूफ़ रहने की वजह से डॉ.सुमन को कवि के रूप में उनका ड्यू नहीं मिला. वे स्मृतियों में जीने वाले एक अदभुत प्रवक्ता थे. मीर,सौदा,ग़ालिब,नज़ीर अकबराबादी,तुलसीदास,हरिऔंध,दिनकर,पंत,निराला,महादेवी,फ़िराक़ और उन जैसे एकाधिक काव्य मनीषियों और साहित्यकारों पर एक जीवंत एनसयक्लोपिडिया थे.
उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर,भर्रतरी गुफ़ाओं,सांदिपनी आश्रम के अलावा डॉ.सुमन भी इस प्राचीन नगरी के स्थापत्य बन गए हैं.
इस गीत के प्रकाशन से आपने मेरा स्कूली संजय ज़िन्दा कर दिया आज.
इतने सुंदर उत्साहित करने वाले गीत को सुनाने के लिए आभार।
ReplyDeleteशिवमंगल सिंह सुमन की एक गद्य रचना भी हमने स्कूल की कीताब में पढ़ी थी - 'भूलते भागते क्षण'। बचपन के दिनों का इसमें जो जीवंत चित्रण हुआ है, उसकी स्मृति आज भी बनी हुई है।
ReplyDeleteमहान कवि का स्मरण कराने के लिए आभार।
आपका चयन,सस्वर प्रस्तुति,
ReplyDeleteभावना,अभिव्यक्ति आदि श्रेष्ठ और
सराहनीय है...बधाई.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अभी पिछले दिनो मेरी दीदी की एक सहेली आने वाली थीं, जिनके विषय मे मुझे बताया गया कि सुमन जी उनके पतिदेव के नाना थे..मैं बड़ी बेसब्र हो कर उनसे मिली और बहुत निराश हुई जब लगा कि इस बात को ले कर उनमे कोई खास गौरवान्भूति नही है....! उत्तम कविता हमसे बाँटने का धन्यवाद..!
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ReplyDeleteअच्छी पोस्ट यूनुस! मैने एक बार शिवमंगल सिंह जी के साथ यात्रा की थी। आज इस पोस्ट के माध्यम से उनकी याद हो आई।
ReplyDeletebahot hi sundar aur utsaahit karne vali rachna..
ReplyDeletesaath hi me bahot hi acchha composition...
pure gaane me paani ki khal-khal aawaaz ka sravan...
waah.. bahot acchha..
thank u...
शायद ही किसी पाठ्यक्रम की हिन्दी पुस्तक हो जिसमें शिव मंगल सिंह सुमन की कवितायें न होती हों. धन्यवाद इस कविता के लिए.
ReplyDeletebahut khoob Yunus Bhai. Ye post yaad rahegii .... jawaab nahiiN ....
ReplyDeleteशुक्रिया यूनूस भाई ! दिल को छूने वाली !!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना यूनूस जी। हमने ये कविता पहले नहीं पढ़ी हुई थी। इसे सुनाने के लिए आभार
ReplyDeleteबहुत अच्छे युनुस अंकल,
ReplyDeleteमुझे मेरे मिडिल स्कूल के दिन याद आ गये।
संगीतबद्ध गीत के रूप में पहली बार सुना, शुक्रिया। उत्तम......;;
इस धुन के रचयिता मनीष दत्त बिलासपुर छत्तीसगढ़ में रहते हैं. उन्होंने कलकत्ता से यह रिकार्डिगं कराई थी. उन्होंने अमर बेला के अलावा के अलावा भजनम मधुरम तथा दुर्गा स्तुति की रिकार्डिंग निकाली है. दादा ने करीब 1500 ऐसी रचनाओं को किताबों से निकालकर स्वर दिये हैं मंच दिया है. उन्होंने शंकराचार्य, तुलसीदास, मीरा, कबीर, पंत, सुमन, महादेवी, निराला, सुभद्रा जी के गीतों को धुन दिया है और निरन्तर इस काम में पूरे समर्पण के साथ जुटे हैं. 64 वर्षीय श्री दत्त ने विवाह भी नहीं किया. उनका खाना, सोना ओढना महान कृतियों को संगीत में पिरोना है. अफसोस कि ऐसे महान कलाकार की माली हालत बहुत खराब है. उनके सैकड़ों बेशकीमती कैसेट किराये के जर्जर मकान में नष्ट हो रहे हैं. उन्हें राशन, टेलीफोन का बिल पटाना भी मुश्किल हो रहा है. पूरे छत्तीसगढ़ में उन्हें कला क्षेत्र में आदर से देखा जाता है, पर उनकी कृतियों की सुरक्षा बहुत बड़ी जरूरत है, आने वाली पीढ़ी के लिये-इस तरफ किसी का ध्यान नहीं है.
ReplyDeleteअद्वितीय प्रस्तुति जिसे ब्लॉग पर सिर्फ़ और सिर्फ़ यूनुस ख़ान लगा सकता था!
ReplyDeleteबेहतरीन यूनुस भाई!
अच्छी पोस्ट
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